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This Article is From Mar 07, 2014

प्राइम टाइम इंट्रो : पीएम पद के कितने उम्मीदवार?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार... हमार कटकुट गए। इंटर पास होने और योग्य होने के बाद भी मेरा नाम कटकुट जाता है। मुझे तो तब भी कोई शिकवा नहीं, मगर उन्हें शिकायत है कि वे भी लायक हैं, उनसे जो इन दिनों खुद को लायक बता रहे हैं। आज की कहानी के नायक हैं- पहले लायक हैं नीतीश कुमार और उनसे बीजेपी की तरफ से लायक घोषित हो चुके नरेंद्र मोदी। नीतीश ने तो अभी-अभी अपनी लायकी बजाई है, जबकि नरेंद्र मोदी तो एक साल से अपनी लायकी की गायकी पेश कर रहे हैं।

राहुल गांधी, ममता बनर्जी, जयललिता, मुलायम, मायावती। इनमें से कोई खुद का नाम लेता है, तो कोई दूसरे का। दूसरा तीसरे का नाम लेता है। अण्णा कहते हैं ममता, ममता कहती हैं जया। निरमा का विज्ञापन गीत याद आ गया। सबकी पसंद कुर्सी की लालिमा। सवाल यहां दावेदारी की गंभीरता को लेकर है, औपचारिकता को लेकर नहीं।

देश का नेता कैसा हो आजकल यह नारा पब्लिक कम, नेता ही ज्यादा लगाते हैं। वे कहते हैं नारा लगाओ, मेरे जैसा हो। आखिर नीतीश कुमार ने बेतिया में क्यों कहा कि उनका बायोडेटा ज्यादा बड़ा है, मोदी के बायोडेटा से। क्या बिना नाम लिए वह मोदी पर ही तंज कर रहे थे कि हम सब लोग विनम्र लोग हैं, इसलिए हम लोग कोई बहुत बात नहीं कहते हैं। जितने लोग टहल रहे हैं, उनसे तुलना करके देख लीजिए। हम कोई बुरे हैं क्या? भले ही विनम्रता में हमारी कोई दावेदारी ना रहती हो, लेकिन जितने लोग घूम रहे हैं किसी को संसद का तजुर्बा नहीं है, किसी को राज्य का तजुर्बा नहीं है। यहां तो संसद का भी तजुर्बा है, राज्य का भी है और काम का भी है। बातें बनाने का तजु्र्बा नहीं है।

क्या नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी की दावेदारी को कोई गंभीर चुनौती दी है या चुटकी भर ली है। यह सवाल राहुल गांधी के बारे में भी उठा था कि वह सिर्फ सांसद रहे हैं, सरकार का तजुर्बा नहीं। तीन बार मुख्यमंत्री रहना, कैसे प्रधानमंत्री की पात्रता का हकदार नहीं है। क्या सांसद या केंद्रीय मंत्री होने से कोई विशेष फर्क आ जाता है। राहुल गांधी भी नेतृत्व का आइडिया दे रहे हैं। वह अपनी हर रैली में नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर उनकी शैली पर चोट करते हैं।

ये उनके ही शब्द हैं कि भइया ऐसे स्टेज में आकर कोई भी बोल सकता है, मगर सुनने के लिए सिर को झुकाने की जरूरत होती है, अपना जो ईगो होता है, घंमड होता है जो सब में होता है थोड़ा थोड़ा, उसको दबाने की जरुरत है क्योंकि जब तक नेता अपने आप को नहीं दबाता और जनता के बीच में नहीं जाता है, तब तक नेता कोई बदलाव नहीं ला सकता। इसके लिए राहुल पाठशाला की तरह बाड़शाला लगाते हैं, जहां एक बाड़े में कभी आदिवासी होते हैं, तो कभी रिक्शावाले, तो कभी मछुआरे। चंद बुनियादी सवालों को पूछ कर कोई नेता बन जाता है क्या?

युद्ध की ट्रेनिंग युद्ध से पहले होती है या युद्ध के दौरान। राहुल के समर्थक कहते हैं कि दिल्ली में पूर्वोत्तर के छात्र जब धरने पर बैठे थे, तो राहुल उनके बीच गए और मोदी ने उन्हें अपने पास बुलाकर बात की। उनके बीच नहीं गए। मगर जरा सा टेप रिवाइंड कीजिए, तो नरेंद्र मोदी भी तमाम कॉलेजों में गए। राहुल ने मोदी से पहले कॉलेजों में जाना शुरू किया, मगर वह चुनावी महीनों में कॉलेजों का रास्ता भूल गए। मोदी ने गूगल हैंगऑउट किया, किसानों को बुलाकर बात किया, कुछ जगहों पर सवाल-जवाब में भी हिस्सेदारी की। राहुल ट्वीटर पर नहीं है, लेकिन क्या नरेंद्र मोदी ट्विटर पर होकर संवाद की सारी शर्ते पूरी करते हैं? कम ही देखा है जवाब देते हुए बात करते हुए। कभी कभार किसी का ट्वीट जरूर आगे बढ़ा देते हैं।

यह सारा कुछ स्वाभाविक होते हुए भी मार्केटिंग की रणनीति का बेहद खर्चीला हिस्सा है। क्या राहुल एक-दो इंटरव्यू देकर इतने बड़े देश में संवाद करने वाले नेता की छवि हासिल कर सकते हैं? क्या मोदी चुनावी साल में बिना इंटरव्यू दिए देश भर के पत्रकारों के सवालों का सामना किए संवाद प्रिय नेता हो सकते हैं? क्या वाकई आपके लिए यह सब मैटर करता है या आप इसे मटर के दाने की तरह गटक कर भूल जाते हैं। नेतृत्व को लेकर नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषणों में काफी जोर दिया है। वह आडवाणी काल के मजबूत नेतृत्व की अवधारणा को ही आगे बढ़ाते हुए इसका एक नया रूपांतरण पेश करते हैं।

अपनी तमाम रैलियों में नेतृत्व और इरादे को रेखांकित करते हैं। अहमदाबाद में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों से बोलते हुए मोदी कहते हैं कि लीडरशिप बहुत मैटर करती है। अगर देश हमें जिम्मा देता है तो जिम्मेवारी अच्छी है तो भी लेनी पड़ेगी, बुरी हैं तो भी झेलनी पड़ेगी। भागने से देश नहीं चलता है। मुझसे लोग पूछते हैं कि मोदी जी पटना रैली से आप भागे क्यों नहीं? मैंने कहा कि भागना ही होता तो मोदी पैदा ही नहीं होता। बम बलास्ट होते हैं, भीड़ थी सब था। लीडरशिप में यह दायित्व होता है जी।

एक और जगह पर मोदी कहते हैं कि ग्रेट लीडर चाहिए या गुड लीडर चाहिए। दोनों में बहुत अंतर है। मित्रों जो खुद के लिए जीता है जो खुद को बड़ा बनाने की कोशिश करता है हवा, अगर उसको बड़ा बना भी दे तब जाकर वह ग्रेट लीडर बनता है। लेकिन जो औरों के लिए जीता है, औरों के लिए हिम्मत जुटाता है, औरों के लिए अपने आप को आहुत करने का सामर्थ रखता है और तब जाकर के जब दुनिया उसे लीडर मानने लगती है, वह गुड लीडर होता है। तो देश का नेता कैसा हो इसी पर है प्राइम टाइम...

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