नमस्कार मैं रवीश कुमार।
1945 में बर्लिन के एक बंकर में खुदकुशी करने वाले हिटलर की आत्मा आज भी उस आर्य भूमि यानी भारत में भटक रही है जिसके नस्ली नाम पर उसने लाखों यहुदियों का क़त्ल कर दिया। हिटलर हमारी राजनीति का सबसे बड़ा आरोप है। पता नहीं इंडिया में मुसोलिनी क्यों नहीं कोई नाम लेता। शायद इसलिए कि उसमें विचारधारा का पक्ष जरा कमज़ोर है। इंडिया का कल्याण कोई डिक्टेटर ही कर सकता है ऐसी नासमझी रखने वाले समझदार लोग आज सीरीयल ही देख लें तो ठीक रहेगा। मैं उनके ब्लड प्रेशर की ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता।
1918 से 1945 के बीच का जर्मन इतिहास। युद्ध और आर्थिक मंदी से तबाह जर्मनी। अपमानजनक वर्साई की संधि। राजतंत्र का पतन गणतंत्र का जन्म संविधान के निर्माण की प्रक्रिया और इन सबके साथ गठबंधन सरकारों के बनने गिरने का लंबा दौर। संसद चलती ही नहीं थी। 1932 यानी हिटलर के संपूर्ण नियंत्रण के साल से ठीक पहले संसद की पूरे साल में 32 बैठकें ही हुईं। इन्ही गठबंधन सरकारों पर सवार होकर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर आ जाता है।
इसी बीच एक अफवाह फैलती चली जाती है कि जर्मन आबादी के एक प्रतिशत के बराबर यहूदियों के कारण यह सब हो रहा है। तभी 1889 में ऑस्ट्रिया में पैदा हुआ और किसी सैन्य सेवा के अयोग्य ठहरा दिया गया हिटलर जर्मनी आता है।
बावेरियन सेना में संदेश वाहक की नौकरी मिल जाती है जो बाद में सेना में पोलिटिकल इंस्ट्रक्टर बन जाता है। अति राष्ट्रवादियों की पार्टी जर्मन वर्कर पार्टी की जासूसी करते करते उसका सदस्य बन जाता है। कब्ज़ा करता है और इस पार्टी का नाम बदल कर नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर पार्टी रख देता है। निशान सफेद और लाल कपड़े पर स्वास्तिका। फिर पूरी दुनिया का इतिहास हमेशा हमेशा के लिए उस काल कोठरी से साक्षात्कार करता है जहां हिटलर के गैस चैंबरों और कैंपों में 60 लाख यहुदियों को मार दिया जाता है। आपका कोई पड़ोसी हिटलर की तारीफ करता है तो देर मत कीजिये। फिजिशियन न मिले तो गाइनोकोलजिस्ट से ही दिखवा दीजिए।
फासीवाद, नाज़ीवाद और स्टालिनवाद को एक टीवी शो में समेटना असंभव है। सैनिक तख्तापलट में नाकाम होकर पांच साल हवालात में रहने वाला हिटलर बाहर आकर लोकतंत्र का सहारा लेता है। अपना उदार चेहरा बनाता है। हर तबके लिए अलग-अलग वादे कर देता है। जिनका आपस में कोई लेना देना नहीं। मगर पार्टी के भीतर गद्दे ही गद्दे की तर्ज पर हिटलर ही हिटलर। सबको हिटलर के प्रति निष्ठा की कसम खानी होती है खास तरह की वर्दी और सलाम करने का तरीका। मिस्टर इंडिया के हेल मोगैंबो से कंफ्यूज न करें तो हेल हिटलर कहना ही पड़ता है वर्ना मामला सीरीयस।
बीबीसी के हिस्ट्री पेज से हिटलर का यह पोस्टर मिला (खबर में दिया गया चित्र)। यह हिटलर के चुनावी प्रचार का पोस्टर है। कोई नारा नहीं। पार्टी का नाम नहीं। सिर्फ हिटलर लिखा है। हिटलर का चेहरा है।
जर्मन उद्योगपति हाई क्लास पूर्व सैनिकों और बरबाद मिडिल क्लास को लगा कि ये वो मसीहा है जो मसलों को निपटा देगा। क्रोधी फिल्म का गाना भी है वो मसीहा आया है आया है। हिटलर नए वोटर पर काफी ज़ोर देता था। उस वक्त युवा और औरतें हिटलर पर काफी फिदा थीं। अगर आज भी गलती से कोई है तो उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि राइखस्टैग यानी जर्मन संसद में हिटलर की पार्टी की एक भी महिला डेप्यूटी नहीं थी।
पार्टी का नियम था कि वरिष्ठ पदों पर कोई महिला नहीं होगी। टीचर, जज भी नहीं बन सकती। नौकरियों से हटाकर घरों में जगह तय किया गया और बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहन राशि दी गई।
1925 में उसे एक नया साथी मिलता है जोसेफ गोएबल्स। हिटलर का प्रचार मंत्री। गोएबल्स ने प्रचार और प्रोपैगैंडा का इतिहास ही बदल दिया। पूरी दुनिया उसका आज भी लोहा मानती है। जैसे हम रावण को जलाकर यह भी कहते हैं कि बड़ा विद्धान था। लोगों की जासूसी करने के लिए फ्लैट को ब्लाक में बाट कर चार लाख ब्लाक लीडर तैनात कर दिए गए।
गोएबल्स ने रेडियो का अपना हथियार बनाया। सरकारी स्तर पर सस्ता रेडियो बनाकर जर्मनी के घर घर में पहुंचा दिया। रेडियो वार्डन रखे गए जो देखते थे कि आप रेडियो पर भाषण सुन रहे हैं कि नहीं। नहीं तो गए काम से। नाज़ी पार्टी ने जर्मनी के सारे अखबारों को अपने नियंत्रण में ले लिया। एक तरफ नागरिकों के लोकतांत्रिाक अधिकार छीने जा रहे थे उन्हें मारा जा रहा था दूसरी तरफ हिटलर की विदेश नीतियों और आर्थिक नीतियों का इतना प्रचार होता था कि लोगों ने ध्यान ही न दिया कि जर्मनी में क्या हो गया। इसीलिए भारत में हिटलर के साथ गोएबल्स का भी नाम आता रहता है।
कांग्रेस कम्युनिस्ट आरएसएस बीजेपी सबके नेता एक दूसरे को हिटलर बोलते रहते हैं। हाल ही में अरुण जेटली ने कहा कि अगर जोसेफ गोएबल्स का दुबारा जन्म हो तो आम आदमी पार्टी ज्वाइन कर लेगा और राहुल गांधी ने जब हिटलर का नाम लिया तो सुनाई मोदी दिया। आखिर क्यों हम हिटलर का नाम लेते हैं। क्या वाकई हमारी राजनीति में फासीवादी खतरे हैं। इतनी विविधता संस्थाओं के रहते क्या वैसे आर्थिक सांस्कृतिक सैनिक हालात हैं कि भारत में कोई हिटलर बन जाए। इंदिरा गांधी का आपातकाल बाबरी ध्वंस के समय हिन्दू कट्टरवाद और कम्युनिस्ट आतंक के संदर्भ में फासीवाद की प्रवृत्ति का ज़िक्र होता है। क्या सचमुच हमारे बीच कोई हिटलर है। मुझे नहीं लगता लेकिन 1930 के जर्मनी में भी मेरे टाइप काफी लोग थे। प्राइम टाइम।
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