दिल्ली के वृद्ध आश्रम में रह रहे महात्मा गांधी के पोते कानुभाई रामदास गांधी।
नई दिल्ली:
दिल्ली के मोहन स्टेट मेट्रो स्टेशन के ठीक सामने वाली सड़क पर मुड़ते ही पहले एम्स की नई बन रही चमचमाती इमारत दिखी। आगे बढ़ने पर सड़क संकरी और आबादी घनी होने लगी। ओल्ड एज हम के तीर लगे बोर्ड देखकर हम आगे बढ़ते रहे। घनी बस्ती के बीच अचानक हमारी गाड़ी रुकी। गाड़ी से उतरते हुए ही बीड़ी पीते एक शख्स ने कहा कि वृद्ध आश्रम उधर है। हम एक तंग संकरी गली में घुस गए। बड़े से गेट पर तैनात सुरक्षा कर्मी ने देखा और दरवाजा खोल दिया। मानसिक तौर पर बीमार और लाचार बुजुर्गों की इतनी बड़ी तादाद मैंने अस्पतालों में भी नहीं देखी थी। लेकिन अस्पतालों की तरह न तो इस आश्रम में गंदगी है और न ही कोई आपाधापी। कुछ डाक्टर मरीजों का इलाज करते दिखे तो कुछ लाचार बुजुर्ग खामोशी से मुझे देखते मिले।
मैंने सोचा क्या यही महात्मा गांधी के पोते कानु भाई रामदास गांधी अपनी पत्नी डा शिवा के साथ रहते हैं। आश्रम के संचालत डा जीपी भगत ने मुझे महात्मा गांधी के पोते कानु भाई से मिलवाया। वे मुझे पहले ही बता चुके थे कि 85 साल की उम्र होने की वजह से वे और उनकी पत्नी डिमीशिया यानी भूलने वाली बीमारी से ग्रस्त हैं। उन्होंने यह भी बताया कि वैसे उनके वृद्ध आश्रम में कोई ऐसा नहीं था, लेकिन कानुभाई के लिए एक अलग से कमरा तैयार करवाकर एसी लगवाया गया है ताकि उन्हें कोई दिक्कत न हो।
मैंने कानुभाई से सवाल पूछा कि आप अमेरिका में नासा के वैज्ञानिक रहे हैं, आपकी पत्नी डाक्टर थीं। इतने सालों बाद आप भारत लौटे हैं, क्या आपको पैसे की तंगी है। वे हल्का मुस्कुराए, फिर बोले आपका सवाल अच्छा है लेकिन इसका जवाब मैं नहीं दूंगा। वे अपने हालात के बारे में किसी से चर्चा नहीं करते हैं। लेकिन यह जरूर बताते हैं कि 2014 में वे अमेरिका से साबरमती लौटे। वहां डेढ़ साल वृद्ध आश्रम में रहे, फिर दिल्ली आ गए हैं। वे कहते हैं कि गांधी जी वाला गुजरात अब नहीं रहा, लोग स्वार्थी हो गए हैं।
उनकी पत्नी ने मीडिया से दूरी बना रखी है। उनके कोई बच्चे नहीं हैं। इसी के चलते वे भारत लौटना चाहते थे, अमेरिका में बहुत अकेले हो गए थे। उनसे मिलने वालों में मीडिया के अलावा वे दानदाता भी हैं जो वृद्ध आश्रम में लाखों रुपए दान देते हैं। कानुभाई से मिलने के बाद मैंने डाक्टर भगत से भी यही सवाल पूछा कि यह दिल्ली कैसे आ गए? वे तुरंत बोले इसमें आपके चैनेल के रवीश कुमार जी का बड़ा योगदान है। उन्होंने एक डाक्यूमेंट्री की थी, जिसके बाद लोगों ने इन्हें दिल्ली के वृद्ध आश्रम में जाने की सलाह दी। मैंने पूछा क्या इन्हें आर्थिक तंगी है। उन्होंने कहा कानुभाई ने ज्यादा बताया तो नहीं लेकिन उन्हें नहीं लगता है कि कोई तंगी है। थोड़ी देर रुककर मैंने दूसरे लाचार बुजुर्गों की तरफ देखा। इनमें से ज्यादातर को उनके अपने ही यहां छोड़कर चले गए। कानुभाई की तरह अब यह बुजुर्ग भी अपने बचपन को यहां जी रहे हैं। इनके लिए जिंदगी ही सवाल है...और सवाल ही अब इसका जवाब भी...।
मैंने सोचा क्या यही महात्मा गांधी के पोते कानु भाई रामदास गांधी अपनी पत्नी डा शिवा के साथ रहते हैं। आश्रम के संचालत डा जीपी भगत ने मुझे महात्मा गांधी के पोते कानु भाई से मिलवाया। वे मुझे पहले ही बता चुके थे कि 85 साल की उम्र होने की वजह से वे और उनकी पत्नी डिमीशिया यानी भूलने वाली बीमारी से ग्रस्त हैं। उन्होंने यह भी बताया कि वैसे उनके वृद्ध आश्रम में कोई ऐसा नहीं था, लेकिन कानुभाई के लिए एक अलग से कमरा तैयार करवाकर एसी लगवाया गया है ताकि उन्हें कोई दिक्कत न हो।
मैंने कानुभाई से सवाल पूछा कि आप अमेरिका में नासा के वैज्ञानिक रहे हैं, आपकी पत्नी डाक्टर थीं। इतने सालों बाद आप भारत लौटे हैं, क्या आपको पैसे की तंगी है। वे हल्का मुस्कुराए, फिर बोले आपका सवाल अच्छा है लेकिन इसका जवाब मैं नहीं दूंगा। वे अपने हालात के बारे में किसी से चर्चा नहीं करते हैं। लेकिन यह जरूर बताते हैं कि 2014 में वे अमेरिका से साबरमती लौटे। वहां डेढ़ साल वृद्ध आश्रम में रहे, फिर दिल्ली आ गए हैं। वे कहते हैं कि गांधी जी वाला गुजरात अब नहीं रहा, लोग स्वार्थी हो गए हैं।
उनकी पत्नी ने मीडिया से दूरी बना रखी है। उनके कोई बच्चे नहीं हैं। इसी के चलते वे भारत लौटना चाहते थे, अमेरिका में बहुत अकेले हो गए थे। उनसे मिलने वालों में मीडिया के अलावा वे दानदाता भी हैं जो वृद्ध आश्रम में लाखों रुपए दान देते हैं। कानुभाई से मिलने के बाद मैंने डाक्टर भगत से भी यही सवाल पूछा कि यह दिल्ली कैसे आ गए? वे तुरंत बोले इसमें आपके चैनेल के रवीश कुमार जी का बड़ा योगदान है। उन्होंने एक डाक्यूमेंट्री की थी, जिसके बाद लोगों ने इन्हें दिल्ली के वृद्ध आश्रम में जाने की सलाह दी। मैंने पूछा क्या इन्हें आर्थिक तंगी है। उन्होंने कहा कानुभाई ने ज्यादा बताया तो नहीं लेकिन उन्हें नहीं लगता है कि कोई तंगी है। थोड़ी देर रुककर मैंने दूसरे लाचार बुजुर्गों की तरफ देखा। इनमें से ज्यादातर को उनके अपने ही यहां छोड़कर चले गए। कानुभाई की तरह अब यह बुजुर्ग भी अपने बचपन को यहां जी रहे हैं। इनके लिए जिंदगी ही सवाल है...और सवाल ही अब इसका जवाब भी...।
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