दिल्ली के स्पेशल पुलिस कमिश्नर (ट्रैफिक) मुक्तेश चंद्रा (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
पुलिस और संगीतकार, सुनकर ताज्जुब होगा, लेकिन ये सच है। दिल्ली के स्पेशल पुलिस कमिश्नर (ट्रैफिक) डॉ. मुक्तेश चंद्र एक बेहतरीन बांसुरी वादक हैं। मंच पर जब बांसुरी बजाना शुरू करते हैं तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने अपने बांसुरी वादन की सीडी भी बनाई है जिसको उन्होंने कॉपीराइट नहीं किया है। उनका मानना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया है ताकि लोग बांसुरी की तरफ खिंचे चले आएं।
बिना गुरु के सीखी बांसुरी
बचपन में कभी ख्वाबों ख्यालों में बांसुरी न थी, लेकिन एक दिन मेरे पिताजी के दोस्त मेरे स्कूल में आये, वो बांसुरी बहुत अच्छी बजाते थे। बच्चों ने बांसुरी मांगी तो उन्होंने कहा, जो-जो बांसुरी बजा लेगा ये बांसुरी उसको दे दी जाएगी। संयोग से मैंने बांसुरी बजा ली। उन्होंने मुझे ये कहकर बांसुरी हाथ में दे दी कि तुम बांसुरी बजा सकते हो। तब से ये शौक़ मेरी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गया है।
शुक्रिया गोवा
मुक्तेश चंद्र कहते हैं कि पुलिस की नौकरी में सारा दिन मारपीट, क़त्ल ओ गारत के मामलों को देखते हुए बांसुरी का शौक़ फीका पड़ गया था। मैंने महसूस किया कि ये गलत है, अपने अंदर के कलाकार को मरने नहीं देना चाहिए। 2003 में गोवा में पोस्टिंग हुई, वहां सुकून भी था, संगीत और मस्ती का माहौल भी था, नौकरी के बाद बचे वक्त में जमकर रिहर्सल कर लेता था। वहीं से दोबारा बांसुरी की शुरुआत की। चंदर आग़े कहते हैं कि इतनी व्यस्त ज़िन्दगी में ही तो संगीत के लिए टाइम निकालना चाहिए ताकि दिनभर की थका देने वाली दिनचर्या से सुकून मिल सके।
बांसुरी बुला रही है और कर्तव्य रोक रहा है
मुक्तेश चंद्र कहते हैं कि एक बार कार्यक्रम में 7 बजे जाना था और 6 बजे पुलिस कमिश्नर साहब ने मीटिंग में बुला लिया। बड़ी दुविधा का समय था, एक तरफ शौक़ था दूसरी तरफ ज़िम्मेदारी। मीटिंग में शामिल होने के बाद लगातार बांसुरी की याद तेज़ होती जा रही थी और मीटिंग खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। मीटिंग ख़त्म हुई, जल्दी से कार्यक्रम स्थल की तरफ रवाना हुआ, कार में ही वर्दी बदली, लेकिन अंदर से पूरी तरह कलाकार के रूप में तैयार नहीं हो पाया था। कार्यक्रम में पहुंचते ही पता चला कि मेरा सेगमेंट अभी बाकी है। शौक़ और ज़िम्मेदारी की इस जंग में मंच पर पहुंचने का वक्त आ चुका था, मैंने बांसुरी बजाई जिसे लोगों ने काफी पसंद किया।
बेटा बांसुरी नहीं गिटार बजाना चाहता है
चंद्र कहते हैं कि भगवान कृष्ण का प्रिय वाद होते हुए भी बांसुरी का कल्चर धीरे-धीरे कम हो रहा है। मैंने अपने बेटे से कहा कि बांसुरी सीख ले, उसने कहा कि गिटार सीखूंगा। धर्म संकट है, आजकल की जेनरेशन बांसुरी नहीं बजाती, गिटार बजाती है। उनका कहना है कि शौक़ रखना अच्छी बात है, वो कहते हैं कि बांसुरी सुनने के बाद लोग कहते हैं, मैं भी बासुरी सीखूंगा, मैं कहता हूं जाओ और अच्छी सी बांसुरी खरीद कर ले आओ, लेकिन वापस कोई नहीं आता।
हिंदी फिल्मों में बांसुरी को तरजीह नहीं
मुक्तेश चंद्र कहते हैं कि हिंदी फिल्मों में बांसुरी बजाने वाला हीरो अनपढ़, गंवार, गांव का फूहड़ धोती पहने हुए दिखाया जाता है जो अपनी कमर के खोचे से बांसुरी निकलेगा और बजाएगा। बांसुरी को अनपढ़ गंवार से जोड़ा जाता है। कभी हिंदी फिल्मों में सूट बूट वाला हीरो बांसुरी बजाता नहीं दिखाया जाता, जबकि गिटार बजाने वाले हीरो को करोड़पति दिखाया जाता है। फिल्मों में जब बांसुरी को प्रत्साहन मिलेगा तो दर्शक भी बांसुरी की तरफ आकर्षित होंगे।
बिना गुरु के सीखी बांसुरी
बचपन में कभी ख्वाबों ख्यालों में बांसुरी न थी, लेकिन एक दिन मेरे पिताजी के दोस्त मेरे स्कूल में आये, वो बांसुरी बहुत अच्छी बजाते थे। बच्चों ने बांसुरी मांगी तो उन्होंने कहा, जो-जो बांसुरी बजा लेगा ये बांसुरी उसको दे दी जाएगी। संयोग से मैंने बांसुरी बजा ली। उन्होंने मुझे ये कहकर बांसुरी हाथ में दे दी कि तुम बांसुरी बजा सकते हो। तब से ये शौक़ मेरी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गया है।
शुक्रिया गोवा
मुक्तेश चंद्र कहते हैं कि पुलिस की नौकरी में सारा दिन मारपीट, क़त्ल ओ गारत के मामलों को देखते हुए बांसुरी का शौक़ फीका पड़ गया था। मैंने महसूस किया कि ये गलत है, अपने अंदर के कलाकार को मरने नहीं देना चाहिए। 2003 में गोवा में पोस्टिंग हुई, वहां सुकून भी था, संगीत और मस्ती का माहौल भी था, नौकरी के बाद बचे वक्त में जमकर रिहर्सल कर लेता था। वहीं से दोबारा बांसुरी की शुरुआत की। चंदर आग़े कहते हैं कि इतनी व्यस्त ज़िन्दगी में ही तो संगीत के लिए टाइम निकालना चाहिए ताकि दिनभर की थका देने वाली दिनचर्या से सुकून मिल सके।
बांसुरी बुला रही है और कर्तव्य रोक रहा है
मुक्तेश चंद्र कहते हैं कि एक बार कार्यक्रम में 7 बजे जाना था और 6 बजे पुलिस कमिश्नर साहब ने मीटिंग में बुला लिया। बड़ी दुविधा का समय था, एक तरफ शौक़ था दूसरी तरफ ज़िम्मेदारी। मीटिंग में शामिल होने के बाद लगातार बांसुरी की याद तेज़ होती जा रही थी और मीटिंग खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। मीटिंग ख़त्म हुई, जल्दी से कार्यक्रम स्थल की तरफ रवाना हुआ, कार में ही वर्दी बदली, लेकिन अंदर से पूरी तरह कलाकार के रूप में तैयार नहीं हो पाया था। कार्यक्रम में पहुंचते ही पता चला कि मेरा सेगमेंट अभी बाकी है। शौक़ और ज़िम्मेदारी की इस जंग में मंच पर पहुंचने का वक्त आ चुका था, मैंने बांसुरी बजाई जिसे लोगों ने काफी पसंद किया।
बेटा बांसुरी नहीं गिटार बजाना चाहता है
चंद्र कहते हैं कि भगवान कृष्ण का प्रिय वाद होते हुए भी बांसुरी का कल्चर धीरे-धीरे कम हो रहा है। मैंने अपने बेटे से कहा कि बांसुरी सीख ले, उसने कहा कि गिटार सीखूंगा। धर्म संकट है, आजकल की जेनरेशन बांसुरी नहीं बजाती, गिटार बजाती है। उनका कहना है कि शौक़ रखना अच्छी बात है, वो कहते हैं कि बांसुरी सुनने के बाद लोग कहते हैं, मैं भी बासुरी सीखूंगा, मैं कहता हूं जाओ और अच्छी सी बांसुरी खरीद कर ले आओ, लेकिन वापस कोई नहीं आता।
हिंदी फिल्मों में बांसुरी को तरजीह नहीं
मुक्तेश चंद्र कहते हैं कि हिंदी फिल्मों में बांसुरी बजाने वाला हीरो अनपढ़, गंवार, गांव का फूहड़ धोती पहने हुए दिखाया जाता है जो अपनी कमर के खोचे से बांसुरी निकलेगा और बजाएगा। बांसुरी को अनपढ़ गंवार से जोड़ा जाता है। कभी हिंदी फिल्मों में सूट बूट वाला हीरो बांसुरी बजाता नहीं दिखाया जाता, जबकि गिटार बजाने वाले हीरो को करोड़पति दिखाया जाता है। फिल्मों में जब बांसुरी को प्रत्साहन मिलेगा तो दर्शक भी बांसुरी की तरफ आकर्षित होंगे।
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