अखिलेश यादव ने अपने भाषण में गुजरात के गधों का जिक्र किया (फाइल फोटो)
उत्तरप्रदेश के चुनाव का लगभग आधा काम निपट गया और अब तक ये पता नहीं चल पा रहा कि वहां मुख्य मुददा क्या है. चौथे चरण के मतदान के लिए प्रचार की मियाद खत्म हो गई. यानी कल तो तिहाई काम पूरा हो जाएगा. सो बचे-खुचे समय में कोई नया मुददा आने से रहा. जाहिर है कि पिछले दस दिनों में चार दौर में जो भी चुनाव प्रचार चला है उसी के आधार पर यूपी के माहौल की समीक्षा का सही समय आ गया है.
हर सियासी दल के अपने-अपने मुददे
जब सभी राजनीतिक दलों के नेता रोज लंबे-लंबे भाषण दे रहे हैं तो यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि यूपी चुनाव में मुददे की बातें हो नहीं रही हैं. जिसकी अपनी जो विशेषता, विशेषज्ञता होती है वह जरूर चाहता है कि चुनाव में उसकी विशेषता ही मुख्य मुददा बन जाए. सो यह बात यूपी में पिछले दस दिनों में खूब दिखाई दी. इस तरह एक से बढ़कर एक चुनावी खिलाड़ियों ने अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी की बात का जवाब देने की बजाए सिर्फ अपनी बात ही कहना ठीक समझा. अखिलेश ने हरचंद कोशिश कर ली कि विकास मुददा बन जाए और वे उप्र में पांच साल में अपने किए कामों को गिनाने का मौका पा लें. चुनाव के मध्यांतर के बाद मोदी और अमित शाह धाार्मिक आधार पर भेदभाव की बातें ज्यादा करने लगे. मायावती सर्वजन हिताय की अपनी पहले से तय बातों को दोहराती चली आ रही हैं.
उधर, कांग्रेस ने पहले से मान रखा था कि उसके लिए यूपी का चुनाव अगले लोकसभा चुनाव के लिए महत्वपूर्ण है और उसने उसी के लिहाज से कवायद की. अगर चारों प्रमुख राजनीतिक खिलाड़ियों की रणनीतियों को एक नजर में देखें तो यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि चुनावी रैलियों में अपने प्रत्यक्ष श्रोताओं और टीवी पर देख सुन रहे अप्रत्यक्ष श्रोताओं के लिए आकर्षक और सनसनीखेज बातें भी करनी पड़ती हैं. इसके लिए एक-दूसरे पर छविनाशक हमले करना पारंपरिक हथियार की तरह होते हैं. सो ये हथियार खूब चले. इसी प्रक्रिया में कई सनसनीखेज बातें होने लगीं. यूपी चुनाव के इस कालबिंदु पर दो प्रमुख बातें सुनाई दीं. एक धार्मिक आधार पर भेदभाव की बात को जोर से उछाला जाना और दूसरी अमिताभ बच्चन अभिनीत विज्ञापन में गुजरात के गधों का प्रचार. आइए पहले इन दोनों बातों की बात कर लें.
गुजरात के गधों का प्रचार
इसका जिक्र अखिलेश यादव ने किया था. यह बात उन्होंने इस सिलसिले में कही कि उप्र में लंबे लंबे हाईवे और विकास के दूसरे काम का प्रचार होता नहीं है और अमिताभ बच्चन गुजरात के गधों का आकर्षक प्रचार करते हैं. यहां अखिलेश से यह पूछा जाना चाहिए था कि वक्त रहते अपने कामों का उतने ही कारगर तरीके से प्रचार करने से उन्हें किसने रोका था. प्रचार के लिए वे भी खर्चा निकाल लेते. खैर जो हुआ सो हुआ, आगे से अखिलेश को समझ लेना चाहिए कि काम चाहे आधा रह जाए लेकिन उतना बचा पैसा बचाकर उसे प्रचार पर खर्च करके आधे काम को भी डेढ़ गुना बताया जा सकता है.
धार्मिक भेदभाव का भी छिड़ा जिक्र
भेदभाव तो अपने नाम से ही भावनात्मक है. इसीलिए इसकी तीव्रता को कोई नहीं नकार पाता. भेदभाव के आगे लगे शब्द धार्मिक के कारण इसकी भावात्मकता दसियों गुनी बढ़ाई जा सकती है. जाहिर है कि यूपी के चुनाव में इसका इस्तेमाल होने से रोक पाना बहुत ही मुश्किल था. हैरत तो ये होना चाहिए कि राज्य में तीन दौर के चुनाव तक यह भावनात्मकता रुकी कैसे रही? यह सवाल जटिल है सो इसका सही विश्लेषण राजनीति मनोविज्ञान के बड़े विद्वान या चुनाव प्रबंधन के प्रौद्योगिकीविद ही कर पाएंगे. लेकिन यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि भारतीय चुनावी लोकतंत्र में यह भावात्मकता कुछ बेअसरी की तरफ है. इसे गौर से देखने-समझने के लिए विद्वान लोग चाहें तो 2014 के आमचुनाव और पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के तथ्यों को देख सकते हैं यानी हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि कब्रिस्तान बनाम श्मशान का मुददा आखिर कुछ घंटों के आगे टिका क्यों नहीं?
कौन कहां तक पहुंचा अब तक
यूपी में मतदाताओं का रुझान पता न चल पाना खुद में एक मुददा बन गया है लेकिन इस बीच इतना तो दिख ही चुका है कि राज्य में दो तिहाई वोटर वोट डाल रहे हैं और हमेशा की तरह मतगणना के बाद किसी न किसी की सरकार बनेगी ही. रुझान पता न चलने के आधार पर कोई भी फिलहाल अनुमान यही लगाएगा कि प्रदेश में तीनों प्रमुख दलों के बीच बारीक अंतर रह सकता है. अगर यह सूरत बनी तो कांग्रेस और रालोद बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएंगे. चूंकि कांग्रेस पहले से ही सपा के साथ है सो सबसे ज्यादा लाभ में उसके ही रहने के आसार क्यों नहीं बनेंगे? और वैसे भी जिसका ज्यादा दांव पर ही न लगा हो उसके घाटे में रहने की संभावना भी सबसे कम रहेगी ही. बहरहाल यूपी में अब तक के माहौल का अगर संक्षेप में विषयगत विश्लेषण करें तो यह कहा जा सकता है कि तीन तीन सौ सीटों का दावा कर रहे तीनों प्रमुख दावेदारों को बस यही देखना है कि उन्हें नुकसान कितना कम होता है...
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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