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This Article is From Feb 16, 2017

खुल गई अखिलेश यादव, राहुल गांधी के धर्मनिरपेक्षता के दावों की पोल

Rana Ayyub
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 17, 2017 10:19 am IST
    • Published On फ़रवरी 16, 2017 20:40 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 17, 2017 10:19 am IST
दिवंगत राजनेता तथा लेखक रफीक ज़कारिया कि पुस्तक 'कम्युनल रेज इन सेक्युलर इंडिया' के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन द्वारा भविष्यदृष्टा की तरह लिखी गई प्रस्तावना के एक हिस्से में उन्होंने भारत में सांप्रदायिक दंगों का विश्लेषण भी किया था, जो भावनाओं को झकझोर डालता है... उन्होंने लिखा था, "हर किसी के कई-कई व्यक्तित्व हैं, और इसका ताल्लुक सिर्फ किसी के धर्म या समुदाय से नहीं है, बल्कि उसके आर्थिक वर्ग, पेशे, भाषा, लिंग, राजनैतिक झुकाव, और भी बहुत-सी चीज़ों से है... जब 1940 के 'खूनी' दशक में मैं बंगाल में पल-बढ़ रहा था, मुझे याद है कि मैं इस बात से भौंचक्का रह जाता था - एक बच्चे के तौर पर भी - कि दंगों से पीड़ित होने वाले हमेशा एक ही वर्ग से होते थे, भले ही वे अलग-अलग समुदायों या अलग-अलग धर्मों के हों..." जिस पुस्तक के लिए यह प्रस्तावना लिखी गई, वह रफीक ज़कारिया द्वारा वर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों का बेहद प्रशंसित विश्लेषण है. ये दंगे भी बिल्कुल वर्ष 1984 के दंगों जैसे ही रहे, जिनकी 'चीरफाड़' की जाती रही, लेकिन पीड़ितों को आज भी इंसाफ का इंतज़ार है...

अब 2017 आ चुका है, और देश में राजनैतिक रूप से बेहद अहम राज्य उत्तर प्रदेश नई सरकार चुनने के लिए वोटिंग कर रहा है, लेकिन प्रचार के दौरान लगातार बज रहे विकास के ढोल के पीछे आज भी साफ तौर पर धार्मिक और जाति-आधारित शोरशराबा ही सुनाई दे रहा है... मैं यह कॉलम राज्य के पश्चिमी हिस्से के सबसे ज़्यादा ध्रुवीकृत जिलों - मुज़फ़्फ़रनगर और शामली - में मतदान होने के बाद लिख रही हूं, क्योंकि इस कॉलम का मकसद मतदाताओं को प्रभावित करना नहीं, बल्कि हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं की शर्मनाक स्तर पर आ चुकी लापरवाही को उजागर करना है...

पिछले एक दशक के सबसे भयावह सांप्रदायिक दंगों का दंश झेलने वाले मुज़फ़्फ़रनगर में मतदान से दो दिन पहले एमनेस्टी इंडिया ने एक प्रेस नोट जारी किया, जो काफी अहम है... मुज़फ़्फ़रनगर के पीड़ितों के प्रति अखिलेश यादव प्रशासन के लापरवाह रवैये की ओर इशारा करने वाली कई बातों के साथ-साथ नोट में कहा गया, "उत्तर प्रदेश सरकार 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद दर्ज करवाए गए गैंगरेप के सात मामलों की तेज़ गति से जांच करवाने और दोषियों को सज़ा दिलवाने में नाकाम रही, और न्याय नहीं दिलवा पाई... तीन साल से भी ज़्यादा वक्त बीत जाने के बावजूद किसी एक मामले में भी एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया गया है... बलात्कार के मामलों को अनावश्यक देरी से बचते हुए तेज़ी से निपटाने के लिए भारतीय कानून में वर्ष 2013 में ही किए गए बदलाव के बावजूद इन मामलों की सुनवाई बेहद धीमी गति से चली... राज्य सरकार तथा केंद्र की सरकारें भी पीड़ितों को धमकियों और प्रताड़ना से पर्याप्त सुरक्षा देने - कुछ मामलों में तो पीड़ितों ने बयान तक वापस ले लिए - और पर्याप्त हर्जाना दिलवाने में नाकाम रहीं..."

...और अब, जब यूपी में वोट डाले जा रहे हैं, न सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की अब सहयोगी बनी कांग्रेस ने, और न ही पिछले पांच साल में अखिलेश यादव सरकार का खुलेआम समर्थन करते आ रहे लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने कभी भी मुख्यमंत्री से सवाल नहीं किया कि वह न्याय क्यों नहीं दिलवा पाए... यह बेहद अहम है, क्योंकि ये वही नेता हैं, जो धर्मनिरपेक्ष होने के नाम पर पीड़ितों को इंसाफ देने की नरेंद्र मोदी से लगातार मांग करते रहे हैं...

वर्ष 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगों में कम से कम 50,000 लोग विस्थापित हो गए थे, और उस दौरान 62 जानें गई थीं, और यही अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे... हां, इन्हीं दंगों से पूरे राज्य में ध्रुवीकरण हो गया, और अगले साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सभी का लगभग सूपड़ा साफ कर डाला... लेकिन क्या इससे अखिलेश यादव को हक मिल जाता है कि वह कोर्ट में धक्के खा-खाकर इंसाफ की मांग कर रहे लोगों, खास तौर से रेप की शिकार हुए महिलाओं, के प्रति असंवेदनशील हो जाएं... जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी कम से कम 1,000 लोगों की जान ले लेने वाले दंगों को रोकने में नाकाम रहे थे, बिल्कुल उसी तरह अखिलेश भी मुज़फ़्फ़रनगर में हत्याएं और बलात्कार रोकने के लिए खास कुछ नहीं कर पाए थे...

और जैसा कि मैंनें मुजफ्फरनगर के बघरा, बुढाना और जनसाथ त‍हसीलों का दौरा किया, जहां की आबादी में 45 फीसदी हिस्‍सा मुस्लिमों का है, मैं ऐसे लोगों से मिली जो चुनाव को लेकर डरे हुए थे. उन्‍हें डर है कि बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के अन्‍य नेता अयोध्‍या और कैराना से कथित पलायन जैसे मुद्दों की बात कर रहे हैं, इससे कहीं राज्‍य में सांप्रदायिक तनाव लौट न आए. वो अपनी औरतों और बच्‍चों को लेकर डरे हुए हैं लेकिन कहीं जा नहीं सकते.

और भी ज्‍यादा डरावना तो यह तथ्‍य है कि जो लोग मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान सबसे ज्‍यादा प्रभावित हुए, जिन्‍होंने अपनी संपत्ति तक खो दी, वो अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री के रूप में एक और मौका देने को तैयार थे. और उनके पास अपनी वजहें हैं. पहली वजह तो यह है कि वो विश्‍वास करते हैं कि मायावती ने उनकी दुर्दशा को अनदेखा किया और उन्‍हें न्‍याय दिलाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. कुछ लोगों को लगता है कि अगर चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो मायावती सत्ता में लौटने के लिए बीजेपी की मदद कर सकती हैं. अखिलेश यादव को समर्थन देने में लोगों की इसलिए भी रुचि है कि वो उनके दर्द में उनके साथ थे, साथ ही वो बीजेपी को सत्ता में आने से रोकना चाहते हैं क्‍योंकि उन्‍हें लगता है कि बीजेपी ने ही दंगे भड़काए और इससे सबसे ज्‍यादा लाभ उसी को हुआ. समाजवादी पार्टी से असामाजिक तत्‍वों को साफ करने को लेकर अपने पिता से ही लड़ाई लड़ने वाले अखिलेश यादव उन महिलाओं को न्‍याय दिलाने के नाम पर कमजोर पड़ गए जिनकी प्रताड़ना की कहानियां अखिलेश के समग्रता के ऊंचे दावों को खामोश कर देती हैं. उत्तर प्रदेश में धर्मनिरेपेक्षता की साइकिल चला रहे और सत्ता में वापसी की उम्‍मीद कर रहे अखिलेश यादव के यह बात बेहद शर्मिंदगी वाली होनी चाहिए कि मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ित केवल बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए ही उन्‍हें एक और मौका देना चाहते हैं. एक बार फिर एमनेस्‍टी की रिपोर्ट के अनसार, तीन मामलों में पीड़ितों ने उन लोगों की शिनाख्‍त की जिन्‍होंने उनके साथ रेप किया और जिनका नाम उन्‍होंने एफआईआर में दर्ज कराया था, लेकिन अदालत में वो अपने बयान से मुकर गए. उनमें से कुछ पीड़ितों ने बाद में स्‍वीकार किया कि वो ऐसा करने के लिए मजबूर थे क्‍योंकि उनके ऊपर जबरदस्‍त दबाव था और उन्‍हें और उनके परिवार को धमकियां दी गई. साथ ही प्रशासन की तरफ से पर्याप्‍त समर्थन और सुरक्षा भी नहीं मिली.

ये दस्‍तावेज अब सार्वजनिक डोमेन का हिस्‍सा हैं जो मुजफ्फरनगर की पीड़ित महिलाओं और विस्‍थापित बच्‍चों की दर्द को रेखांकित करता है और ऐसा नहीं हो सकता है कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव इससे परिचित ना हों. इसलिए जब दोनों नेता यूपी चुनाव में संभावित जीत को 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए बड़े मौके के रूप में देख रहे हैं, उत्तर प्रदेश में प्रचार के दौरान वो बिल्‍कुल अलग देखते हैं. तो आखिर वो मोदी और शाह जैसों से कैसे अलग हो गए जिन्‍हें वो सांप्रदायिकता का प्रतीक बताते हैं.

करीब एक महीने में उत्तर प्रदेश में नई सरकार बन जाएगी, और चाहे सत्ता जिसे भी मिले, अखिलेश यादव को मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों के लिए एक अयोग्‍य नेता होने का बोझ अपने कंधों पर ढोना ही होगा. और उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उन्‍हें कह सकते हैं कि इस नैतिक बोझ के साथ रहना आसान नहीं है.

राणा अय्यूब पुरस्कृत इन्वेस्टिगेटिव पत्रकार तथा राजनैतिक लेखिका हैं... उन्होंने गुजरात में नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह की राजनीति पर 'गुजरात फाइल्स' शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है...

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