नोटबंदी से क्या हासिल हुआ, यह 30 दिसंबर 2016 की तय समय-सीमा के दस दिन के बाद भी न रिजर्व बैंक बताने को तैयार है, न सरकार. वित्त मंत्री जरूर कह रहे हैं कि केंद्रीय करों की आमद में इजाफा हुआ है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हुई है. उन्हें यह गवाही इसलिए देनी पड़ी क्योंकि हाल ही में जारी केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़े नोटबंदी के पहले ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट (7.6 फीसदी से 7.2 फीसदी) की आशंका जता चुके हैं. हालांकि करों की आमद में उत्पादों और पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले शुल्क में ही करीब 43 फीसदी और कंपनी मुनाफों के मद में महज 4.4 फीसदी बढ़ोतरी का अनुमान है. इसी से पता चलता है कि यह अस्थायी रुझान है.
यानी वित्त मंत्री जो बता रहे हैं, उससे ज्यादा छुपाने की कोशिश कर रहे हैं. वे भले कहें, ''अर्थव्यवस्था में मंदी और रोजगार गंवाने की बातें तो कहानियां हैं मगर ये तो ठोस आंकड़े हैं.'' अगर ऐसा है तो अर्थव्यवस्था के दूसरे आंकड़ों के जरिये वे रोजगार न घटने या अर्थव्यवस्था में मंदी का खंडन क्यों नहीं करते.
सरकार की तथ्यों को छुपाने या अर्धसत्य जाहिर करने की कोशिशें इतनी भर नहीं हैं. अब ये खबरें भी जाहिर होने लगी हैं कि सरकार नोटबंदी के मामले में संसद तक में सही तथ्यों का उजागर नहीं कर पाई. शीतकालीन सत्र में राज्यसभा को मंत्री पीयूष गोयल ने बताया था कि नोटबंदी की सिफारिश रिजर्व बैंक की थी और सरकार ने उसे मान लिया. लेकिन एक अखबार के मुताबिक संसदीय लोकलेखा समिति को लिखे रिजर्व बैंक के नोट से पता चलता है कि 7 नवंबर को सरकार ने नोटबंदी पर रिजर्व बैंक से फौरन प्रस्ताव मांगा और रिजर्व बैंक ने वह 8 नवंबर को मुहैया करा दिया.
सरकार या रिजर्व बैंक इस पर क्या सफाई देते हैं, या नोटबंदी के दौरान बेहिसाब नियमों में फेरबदल को कैसे जायज ठहराते हैं, यह तो आगे पता चलेगा. फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर मौके पर गरीबों की दुहाई देकर नोटबंदी को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं. उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यह ऐलान कर ही दिया है कि वे सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी को चुनावी मुद्दा बनाएंगे. यानी यह जाहिर हो गया है कि इन दोनों मुद्दों का मकसद देशहित के अलावा चुनावी हित भी साधना है.
किसी राजनैतिक पार्टी के लिए अपने किए कामों को चुनावी मुद्दा बनाना बेजा नहीं कहा जा सकता. यह हर सरकार करती है. लेकिन यह तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वह इन कामों के ठोस नतीजे जाहिर करे, न कि सिर्फ एक कयास या धारणा का हौवा खड़ा करे वर्ना यह उसी तरह सिर्फ जुमलेबाजी होकर रह जाती है, जिसे अमित शाह ने ही विदेश से काले धन की वापसी के मामले में पार्टी के 2014 के लोकसभा चुनावों के वादों के बारे में स्वीकार किया था. इसलिए भी सरकार का धर्म बनता है कि वह यह आंकड़ों समेत बताए कि नोटबंदी से कालेधन, नकली मुद्रा और आतंकी नेटवर्कों के वित्त पोषण पर क्या फर्क पड़ा है. इन्हीं तीनों मकसदों का जिक्र सरकार और रिजर्व बैंक करता आ रहा है.
हालांकि बाद में इसमें नकदी रहित या कम नकदी (कैशलेस या लेस कैश) प्रचलन वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढऩे की बातें जोड़ दी गईं. लेकिन इतने दिनों बाद भी पेट्रोल पंपों के कार्ड से भुगतान लेने का विवाद बताता है कि सरकार के पास इसकी भी कोई सुविचारित योजना नहीं है या इस पर व्यवस्थित ढंग से विचार नहीं किया गया है. इसके लिए जरूरी जानकारी के अलावा देश में बैंक, एटीएम, डेबिट-क्रेडिट कार्ड और इंटरनेट की सहूलियत कितनी कम है, यह कोई छुपी बात नहीं है.
फिर भी, प्रधानमंत्री सोशल मीडिया पर चल रहे उस मजाक को अपने भाषणों में जिक्र कर गए कि भिखारी भी अब कार्ड स्वैप कर रहे हैं! कविता होती तो यह अतिश्योक्ति अलंकार की मिसाल मान लिया जाता. लेकिन गंभीर सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री का दिल वाकई गरीबों के लिए धडक़ने लगा है. अगर ऐसा होता तो यह उनकी नीतियों और कार्यक्रमों में झलकता. महज भाषणों ही नहीं, नीति दस्तावेजों में जाहिर होता. लेकिन भाजपा ने तो पिछले कई चुनावों से घोषणा-पत्र भी जारी करना छोड़ दिया है. अब वह दृष्टि-पत्र (विजन डाक्यूमेंट) ही जारी करती है जिससे उसकी नीतियों और वादों का साफ-साफ पता नहीं चलता.
वैसे भी नरेंद्र मोदी हमेशा कारोबारी सहूलियत और उस विकास के पैरोकार रहे हैं जो शहरीकरण, भारी औद्योगीकरण और नव-उदारवादी नीतियों के तहत बड़े कारपोरेट घरानों को प्रश्रय देता है. गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने अपनी छवि इन्हीं नीतियों के लिए बनाई. उन्होंने 2008 में बंगाल में सिंगुर विवाद के बाद गुजरात में टाटा को जमीन मुहैया कराकर यह संकेत दिया था कि वे औद्योगिक विकास और शहरीकरण को तरजीह देने में सबसे आगे हैं. यही नहीं, 2013 के आखिरी महीनों में दिल्ली में पंचायतों को और अधिकार संपन्न बनाने के लिए योजना आयोग की बुलाई बैठक में गुजरात और दिल्ली दो राज्य ऐसे थे जिन्होंने अपने यहां ग्रामीण आबादी महत्वहीन होने का जिक्र किया था.
केंद्रीय मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से लेकर केंद्र में भारी बहुमत की सरकार बनाने के बाद तक मोदी उद्योगों को ज्यादा से ज्यादा सहूलियत देने की नीतियों पर ही चलते रहे हैं. उन्हें इन नीतियों का आक्रामक पैरोकार माना जाता रहा है. 2014 के लोकसभा चुनावों में उनकी जीत में यह एक बड़ा मुद्दा था कि वे निर्णायक नेता हैं और यूपीए सरकार की नीतिगत पंगुता से मुक्ति दिला सकते हैं. इन्हीं नीतियों के मुताबिक उन्होंने सरकार में आते ही हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की सीमा बढ़ाई. उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए अध्यादेश ले आए. हालांकि देश भर में भारी विरोध की वजह से सरकार को उससे मुंह मोड़ना पड़ा.
वे और उनकी सरकार लगातार मनरेगा और खाद्य सुरक्षा योजना जैसे कार्यक्रमों की खिल्ली उड़ाती रही. इस सरकार के अर्थशास्त्री कल्याणकारी योजनाओं में हर तरह की सब्सिडी को अनुत्पादक बताते रहे हैं. लेकिन नोटबंदी के लिए पचास दिन की अवधि खत्म होने के बाद 31 दिसंबर को प्रधानमंत्री नोटबंदी के लाभ-हानि पर कम, कई कल्याणकारी और लोकलुभावन योजनाओं के मद में राशि बढ़ाने की घोषणा करते ज्यादा देखे गए. इनमें जननी सुरक्षा जैसी योजना भी थी जिसे पिछले ढाई साल से लगभग भुला दिया गया था.
कुछ लोग कह सकते हैं कि दिल्ली और बिहार चुनावों में हार के बाद मोदी और भाजपा का मन बदला है. लेकिन मोदी खुद कई भाषणों में कह चुके हैं कि उन्होंने लोकसभा चुनावों में जीत के बाद संसद के केंद्रीय कक्ष में भाजपा संसदीय दल की बैठक में ही कहा था कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है. लेकिन, उनकी सरकार वाकई प्रतिबद्ध है तो सही-सही आंकड़ों और हकीकत का बयान करके स्थितियों को साफ करे, वरना जुमलेबाजी के आरोपों से बचना आसान नहीं हो सकता है.
हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Jan 10, 2017
नोटबंदी पर गरीबों की दुहाई देकर क्या कहना चाहते हैं पीएम मोदी
Harimohan Mishra
- बजट ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 17, 2017 12:36 pm IST
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Published On जनवरी 10, 2017 15:58 pm IST
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Last Updated On जनवरी 17, 2017 12:36 pm IST
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