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This Article is From Feb 24, 2016

गुजरात में इन रेल यात्रियों ने कहा, यह सरकार है या व्यापारी?...

गुजरात में इन रेल यात्रियों ने कहा, यह सरकार है या व्यापारी?...
प्रतीकात्मक तस्वीर
वडोढरा: हर साल की तरह इस साल भी रेलवे बजट आने की तैयारी में है। चर्चा होगी कि क्या टिकटों के दर सस्ते होंगे, बुलेट ट्रेन जल्द चलाने के लिए क्या कदम उठाये जा रहे हैं वगैरह वगैरह। लेकिन ये चर्चा बड़ी मुश्किल से होती है कि ग्रामीण इलाके के लोगों के लिए सरकार ने क्या किया। शहर में तो अपनी मांगों को लेकर लोग आवाज़ बुलंद कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में ये नहीं हो पाता इसीलिए रेलवे बजेट में कुछ गाड़ियों के स्टोपेज बढाने के अलावा उनके लिए कुछ नहीं होता। इसका नज़ारा आपको देखना है तो आपको बिहार या ओडिशा जैसे राज्यों में जाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि आइए विकसित कहे जाने वाले गुजरात राज्य में।

यहां एक ट्रेन चलती है, राज्य के दो महत्वपूर्ण शहरों नडियाद और मोडासा के बीच। करीब 100 किलोमीटर का सफर ये ट्रेन दिन में 4 बार तय करती है यानी दो बार मोडासा से नडियाद और दो बार नडियाद से मोडासा। रोज़ाना करीब 1500 से लेकर 2000 यात्री तक दिन भर में इस ट्रेन में सफर करते हैं। लेकिन अगर आप इस ट्रेन में सफर करेंगे तो आपको विकास से पहले ट्रेन यातायात कैसा रहा होगा इसका एहसास हुए बिना नहीं रहेगा। इस रास्ते पर करीब 16 फाटक आते हैं।

आम तौर पर ऐसा होता है कि आप फाटक पर पहुंचें और ट्रेन आनेवाली है तो फाटक बंद हो जाता है और ट्रेन जाने के बाद फाटक खुल जाता है और सामान्य यातायात शुरू हो जाता है। लेकिन यहां उल्टा होता है। यहां के 16 में से किसी फाटक पर कोई रेलवे कर्मचारी नहीं है। लिहाज़ा कोई दुर्घटना न हो जाए इसलिए फाटक बंद करने के लिए दो लोग रोज़ाना इस ट्रेन में ही सफर करते हैं। हर फाटक से पहले यातायात सामान्य चलता है लेकिन ट्रेन रुक जाती है। एक व्यक्ति उतरता है और फाटक बन्द करके ट्रेन को जाने का इशारा करता है और ड्राइवर के पीछे वाले डब्बे में चढ़ जाता है। ट्रेन फाटक पार कर फिर रुक जाती है। गार्ड के पीछे वाले डब्बे से एक व्यक्ति उतरता है फाटक खोलता है और फिर चढ़ जाता है। तब ट्रेन आगे बढती है। इसी के चलते ये पूरी ट्रेन सिर्फ धीमी गति की ट्रेन बनकर रह गई है।

एक और बात इस रूट पर चलने वाले यात्रियों को अखरती है। आम तौर पर आप अपना स्कूटर, बाइक या कार हर थोडे समय पर सर्विस में भेजते हो और वापस आने तक दूसरी सवारी पर चलते हो। वैसा इन यात्रियों के साथ भी होता है। हर सप्ताह शुक्रवार को ये ट्रेन सिर्फ सुबह आती है और शाम को वापस जाती है। इस बीच ये ट्रेन पास के शहर आणंद में सर्विस के लिए जाती है। इसलिए यहां के यात्री इस समय के दौरान बस में ही सफर कर लेते हैं।

इतना कम हो तो इस रूट पर चलने वाले स्टेशनों में ज्यादातर जर्जर हालत में हैं। न बैठने की सुविधा, न छत का ठिकाना और न ही पानी या शौचालय की व्यवस्था। ये सिर्फ एक रूट की बात नहीं है। यहां पास के आणंद ज़िले में एक और ट्रेन चलती है कठाणा टाउन से वडोदरा जंक्शन तक। इस रूट पर एक स्टेशन आता है बोरसद। बोरसद वैसे तो बहुत बड़ा भी नहीं और न ही एकदम न के बराबर है, यह मध्यम श्रेणी का कस्बा है। इसका जिक्र इसलिए भी ज़रूरी है कि ये एक वीआईपी स्टेशन है। यूपीए सरकार में भरत सोलंकी यहां से सांसद थे जोकि रेल राज्य मंत्री भी थे। बोरसद उनका अपना शहर भी है। लेकिन इस स्टेशन की हालत भी वैसी ही है।

यहां पर न तो शौचालय ही है इसलिए आने वाले लोग खुली झाड़ियों में भी शौच कर लेते हैं। हमने पूछा कि स्वच्छ भारत मिशन पर करोड़ों रुपए खर्च किये जा रहे हैं और ऐसे ज्ञानवर्धक विज्ञापन भी बने हैं ताकि खुले में शौच को रोका जा सके। एक यात्री चंदूभाई से जवाब मिला इसका एक ही रास्ता है कि शौच लगे तो भी न जायें क्योंकि शौचालय हैं ही नहीं। पहले बने होंगे तो कभी सफाई नहीं हुई और सिर्फ ताले ही लगे हैं। पीने का पानी भी नहीं है।

दोपहर के करीब एक बजे थे और सूरज माथे पर चढ़ आया था। एक परिवार में बच्चे पानी के लिए बिलख रहे थे। पूछा, तो महिला यात्री गुलशन ने कहा यहां तो पानी है नहीं और आज जल्दबाज़ी में वह घर से लाना भूल गई थीं। उन्होंने आगे बताया कि सिर्फ पानी और शौचालय हीं नहीं  बल्कि  यहां बिजली भी नहीं है। इसका एहसास आपको होता है सुबह सवेरे की ट्रेन में। सुबह सात बजे यहां एक ट्रेन आती है और तब अगर आप बच्चों के साथ आएं तो अंधेरे में पूरा स्टेशन भूतिया प्रतीत होता है। बच्चे जब तक ट्रेन नहीं आती डर के मारे दुबके रहते हैं। सिर्फ बच्चे ही नहीं, बड़ों को भी डर लगे ऐसा माहौल होता है।

टिकट काउन्टर पर भी मकड़ी के जाले थे और अन्दर किसी ने बाथरूम कर दिया था इसलिए वहां से तेज बदबू आ रही थी। हमें लगा कि शायद सुविधाएं नहीं हैं तो सरकार शर्म के मारे मुफ्त यात्रा का फायदा देती होगी। लेकिन यह सोच ही रहे थे कि एक व्यक्ति मोटर साइकल पर आया और एक खम्भे के पास रुका। खम्भे पर लिखा था यहां टिकट मिलता है। वह पान की दुकान की तरह टिकट की दुकान सजाकर बैठ गया। लोगों को टिकट बांटने लगा। हमने पूछा भाई आप टिकट देते हो? स्टेशन पर सुविधाएं ही नहीं हैं। मझहर मलिक म के इस शख्स ने बताया कि वह रेलवे का कर्मचारी नहीं है। उसने सिर्फ टिकट बेचने का ठेका लिया हुआ है। इसलिए जब ट्रेन आने वाली हो, उससे 15 - 20 मिनट पहले वह आ जाता है और टिकट बेचकर चला जाता है। इस पूरे स्टेशन पर रेलवे का एक भी कर्मचारी नहीं है।

पूछने पर रेलवे प्रशासन ने बताया कि ये रूट नुकसान में चलते हैं। यहां पर इतनी ठीक कमाई नहीं होती कि यहां पर पैसा लगाया जाए। इस पर कुछ यात्रियों की बात याद आई जो कह रहे थे कि ये सरकार है कि व्यापारी जो नफे नुकसान की बातें कहते हैं। क्या सरकार का काम नहीं है कि लोगों से जो टैक्स वसूल करते हैं, उस पैसे से सभी देशवासियों को बिना फायदा नुकसान सोचे, सुविधायें प्रदान करें। अगर ऐसा ही रहा तो अब तक नहीं हुआ और आगे भी ग्रामीण इलाकों को रेलवे की सुविधाओं से वंचित ही रहना पड़ेगा। लेकिन उन्हें उमीद है कि कभी कोई सरकार तो आएगी जो गांवों के लोगों के बारे में सोचेगी - आखिर आधे से ज्यादा भारत अब भी गांवों में ही रहता है।

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