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This Article is From Aug 03, 2018

जजों की नियुक्ति पर टकराव थमेगा या बढ़ेगा?

Akhilesh Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 03, 2018 20:17 pm IST
    • Published On अगस्त 03, 2018 20:17 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 03, 2018 20:17 pm IST
क्या जज ही जजों की नियुक्ति करते रहेंगे? क्या न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए यह ठीक कदम है? ये सवाल एक बार फिर इसलिए सामने आए हैं क्योंकि इस हफ्ते जजों की नियुक्ति को लेकर कई मुद्दे सामने आए हैं. सबसे पहले बात उत्तराखंड हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के एम जोसेफ की. केंद्र सरकार ने आखिरकार उनकी नियुक्ति को हरी झंडी दिखा दी है. जजों की नियुक्ति करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जोसेफ और वरिष्ठ वकील इंदु मल्होत्रा के नाम सरकार के पास भेजे थे. सरकार ने इंदु मल्होत्रा का नाम मान लिया था जबकि जोसेफ का नाम यह कहते हुए वापस कर दिया था कि उनके चयन में क्षेत्रीय संतुलन और वरीयता का ध्यान नहीं रखा गया.

लेकिन केंद्र पर आरोप लगा कि वो जोसेफ के इसलिए खिलाफ है क्योंकि उन्होंने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के फैसले को खारिज कर दिया था. बाद में कॉलेजियम ने दोबारा उनका नाम भेजा और अब इसे मान लिया गया है. हालांकि कानून मंत्रालय के सूत्रों ने साफ किया है कि जोसेफ का नाम व्यक्तिगत कारणों से नहीं बल्कि नीति के आधार पर वापस किया गया था.

इस बीच, कमर्शियल कोर्ट बिल पर चर्चा के दौरान लोकसभा में बुधवार को कई सांसदों ने एक बार फिर से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना का बिल लाने का आग्रह किया. यह बिल संसद ने पास किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था. लोकसभा में शुरुआत डिप्टी स्पीकर थंबी दुरै ने की. उन्होंने कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद से पूछा कि संसद ऊपर है या फिर सुप्रीम कोर्ट? उन्होंने कहा कि जज कानून की व्याख्या करते हैं जबकि हम कानून बनाते हैं. एनजेएसी बिल में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए छह सदस्यीय आयोग बनाने की बात थी जबकि मौजूदा नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ जजों का कॉलेजियम करता है.

इसी हफ्ते यह खबर भी आई कि केंद्र सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में नियुक्ति के लिए उसके पास आए 33 नामों को वापस कर दिया. लेकिन कॉलेजियम को आइना दिखाने के लिए पहली बार इन 33 में 11 नामों के बारे में बताया गया कि वे कैसे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मौजूदा तथा रिटायर्ड जजों के रिश्तेदार हैं. जाहिर है इसके पीछे केंद्र सरकार की मंशा यह बताने की है कि किस तरह जजों की नियुक्ति में समान अवसर दिए जाने के सिद्धांत की अनदेखी हो रही है और पारदर्शिता के अभाव में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिल रहा है.

तो क्या जजों की नियुक्ति पर उठा विवाद सिर्फ जस्टिस जोसेफ के नाम को हरी झंडी मिलने से ही थम जाएगा? या फिर आने वाले दिनों में जजों की नियुक्ति और तबादलों को लेकर अधिक पारदर्शिता व जवाबदेही का दबाव बढ़ेगा? हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में अधिकारों का समान बंटवारा किया था. लेकिन एक-दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण का चलन पिछले कुछ वर्षों में बढ़ा है. इसीलिए सभी अंग अपने-अपने अधिकारों की रक्षा के लिए ज़्यादा सक्रिय और मुखर हो गए हैं. आए- दिन का यह टकराव इसी वजह से बढ़ा है.

(अखिलेश शर्मा इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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