क्यों भारत से नाराज रहते थे सिंगापुर के ली क्वान यू...

ली क्वान यू की फाइल तस्वीर

नई दिल्ली:

मेरी नजर में सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली क्वान यू इस दुनिया के शायद आखिरी लोकतांत्रिक तानाशाह नेता थे, जिन्हें पीपुल्स एक्शन पार्टी के नेता के तौर पर छह दशक तक लोगों ने चुना और लोकतांत्रिक तरीके से तानाशाही करने का मौका दिया।

बदले में उन्होंने लोगों को कम बोलने, सीमित धार्मिक आजादी और बात-बात में लोकतंत्र के चौथे खंभे को पकड़ने की आजादी लगभग न के बराबर दी। लोगों को मुंह बंद करके काम करने की आदत डालवाई और उसके बदले में लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से पश्चिम का वैभव और पूर्व के लजीज व्यंजनों का स्वाद मिला।

उनके बारे में कुछ पढ़ने के बाद उनसे प्रभावित होने की बजाय मेरे मन में उनकी छवि एक ताकतवर लेकिन धूर्त नेता की बनी, जो शायद कल की इंदिरा गांधी और आज के नरेंद्र मोदी के कुछ हद तक करीब है। जो दिखावे के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देते हुए कठोरता से अपने नव उदारवाद के मॉडल को लागू करवाना चाहते हैं।

ली क्वान यू भारत को एक देश नहीं, बल्कि ब्रिटेन की रेल लाइन के करीब बसने वाले 35 देशों का समूह कहा करते थे। इसमें कोई शक नहीं है कि ली क्वान सिंगापुर की ही तरह समाजवाद और नवउदारवाद के एक अजीब घालमेल की पैदाइश थे। वो शायद इसलिए भी, क्योंकि वो जन्म से चीनी थे और व्यवहारिक पूंजीवादी के कट्टर समर्थक ब्रिटेन की छत्रछाया में पले थे।

वो जनता को समाजवादी अनुशासनात्मक तरीके से हांकते रहे और सिंगापुर का विकास पूंजीवादी तरीके से करते रहे। वो ऐसे पहले नेता थे, जिन्होंने जनता को अनुशासित रखने के लिहाज से इंदिरा गांधी के इमरजेंसी लगाने का समर्थन किया था। उनका इस बात को लेकर खासा आग्रह रहता था कि भारत एक महान देश है, लेकिन ये अपने को महान बनाने का अवसर तेजी से गंवा रहा है।

ली क्वान यू भारत को पसंद करते थे, लेकिन नौकरशाही के व्यवस्थागत ढांचे को नफरत की हद तक नापसंद भी करते थे। उनका कहना था कि भारत के नौकरशाह अपने को सुविधा देने वाला नहीं, बल्कि नियमों को लागू करवाने वाला मानते है। यहीं से संस्थागत ढांचे में बुनियादी गलती शुरू होती है। वो कहते कि उद्योगपतियों के बारे में अच्छी सोच की बजाय किसी तरह पैसा ऐंठने की सोच ज्यादातर नौकरशाहों में रहती है, जो किसी भी देश के विकास की राह में एक बहुत बड़ा रोड़ा है।

हालांकि बहुत सारे भारतीय ये जरूर आपको कहते मिल जाएंगे कि वो सिंगापुर के दमघोंटू अनुशासनात्मक जीवन की बजाय दिल्ली के प्रदूषित माहौल में अच्छा प्रदर्शन करना ज्यादा पसंद करते हैं। लेकिन हमें ये जरूर मानना पड़ेगा कि वो ये सारी बातें कहने के लिए इसलिए हकदार थे, क्योंकि 1965 में ब्रिटेन से आजादी मिलने के बाद उन्होंने झंझावात से अपने देश को निकाल कर एक चमचमाते वित्त बाजार में तब्दील कर दिया था। जिसकी सुरक्षा करने के लिए उसके पास कोई भारी-भरकम सेना या सुरक्षा कवच नहीं है, ये अपने आप में हैरान करने वाला है।

हमें उनसे राजनीतिक व्यवहारवाद के अनुशासन को कुछ हद तक सीखने की जरूरत है, तभी लोकतांत्रिक मूल्यों को भीड़तंत्र के खतरों से बचाया जा सकता है। वरना हम इसी तरह संकीर्ण राजनीतिक सोच और बड़े खतरों की मनगढ़ंत कहानियों के बीच अपने देश की बदहाली का महज रोना तो रो सकते हैं, लेकिन देश के विकास के लिए कठोर फैसला नहीं कर सकेंगे।


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