कोई है जो मुझे बचा लेता है, किसी कहानी से भिड़ा देता है. एक बुजुर्ग ज़िंदगी के थपेड़ों से मुलायम होकर रैक के नीचे बैठे थे. नज़रें मिलीं और आगे बढ़ने ही वाला था कि ठहर गया. हाथ जोड़ा और नमस्कार किया फिर हाथ मिला लिया. जनाब उठ कर खड़े हो गए और पहले वाक्य में कहा, मैं भरत सिंह चौहान. चौहान राजपूत हूं. आठ पीढ़ी पीछे मेरे पुरखे शाहजहां की तरफ से लड़ते हुए मारे गए. उनका नाम अमरदास चौहान और भगवानदास चौहान था. औरंगज़ेब ने बूढ़े शाहजहां के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी थी. शाहजहां ने मारवाड़ के जसवंत सिंह से मदद मांगी. हमारे पुरखे उनकी सेना में ओहदेदार थे.
मैं एक दूसरे ही दौर में चला गया. कनॉट प्लेस के खादी भवन में लगा कि कहीं से शाहजहां ही चल कर न आ जाएं. इसके बाद कहानी आती है 1985 के साल पर. भरत सिंह चौहान को दिग्विजय सिंह ने टिकट दे दिया. पास में कुछ नहीं था तो लोगों ने चंदा दिया. चुनाव जीते और चंदे का बचा पैसा लोगों को लौटा दिया. मगर विधायक बनने के बाद लोग हर तरह के काम कराने का दबाव डालने लगे. भरत सिंह ने हाथ जोड़ लिया और कहा कि जो भी होगा ईमानदारी से करेंगे, बेईमानी से नहीं. बाद में राजनीति की बेईमानी से तंग आकर दोबारा चुनाव ही नहीं लड़े. मध्य प्रदेश के सीतामऊ से 1985-89 तक विधायक रहे.
उसके बाद की सारी चर्चा ईमानदारी को लेकर होती रही. उनकी पत्नी भी आ गईं. वो भी पूछने लगीं कि ईमानदारी से चलना इतना मुश्किल क्यों है. इलाक़े में लोग तरह तरह से परेशान करते हैं. दोनों का जीवन निहायत सादा ही था. टोकरी में बेहद ज़रूरी और सीमित और सोच समझ कर ख़रीदा गया सामान नज़र आ रहा था. बस उनका चेहरा खिल गया. गर्व से बताते रहे कि हमने बेईमानी नहीं की और उससे ख़ुश हैं.
कहानियों का स्वागत कीजिए. मालूम नहीं कि अगला घुड़सवार कौन है. भरत सिंह जी से मिलकर अच्छा लगा.
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