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This Article is From Jul 09, 2019

आर्थिक सर्वे और बजट के आंकड़ों में अंतर कैसे?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 16, 2019 16:09 pm IST
    • Published On जुलाई 09, 2019 23:53 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 16, 2019 16:09 pm IST

क्या आप भी मेरी तरह भारत-न्यूज़ीलैंड के बीच सेमीफाइनल मैच नहीं देख रहे हैं. न्यूज़ रूम में देख रहा था कि सभी क्रिकेट देख रहे थे. क्रिकेट के बारे में सभी को इतना पता है कि लगता है कि कोर्स में पढ़ाया जाता हो, बल्कि कोर्स की किताबों का ज्ञान तो छात्र कुंजी से ज़्यादा लेते हैं. मेरी राय में क्रिकेट के ऐसे दिनों में चैनलों में छुट्टी होनी चाहिए. मुझे तो लगता है कि कर्नाटक के विधायक भी मैच देख रहे हैं. डिबेटिया एंकर भी चीखने के बीच स्कोर पता कर रहे होंगे. एंकरों की डबल ड्यूटी हो गई है, उन्हें बीच-बीच में क्रिकेट पर ट्वीट भी करना है ताकि टाइम लाइन पर वे आउट डेटेड न लगें. क्रिकेट का मैच एक तरह का ब्रेक होता है. जीवन इतना कमर्शियल हो चुका है कि ऐसे ब्रेक कम मिलते हैं. आज कल क्रिकेट देखना आसान भी हो गया है. पहले की तरह नाखून चबाने वाला टेंशन नहीं होता है. बहुत कम लोग लास्ट ओवर में बालकनी में नज़र आते हैं, क्योंकि भारतीय टीम अपने शानदार दौर में है. उसके जीतने की संभावना पहले क्षण से नज़र आती है, लेकिन बारिश के कारण मैच रुकने से कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि तब सारा टाइम विश्लेषण में जा रहा है कि बारिश हो गई तो क्या होगा? कम ओवर के मैच होंगे तो क्या होगा? तब तक आप भारत सरकार के बजट का स्कोर कार्ड देखिए.

श्रीनिवासन जैन ने एक रिपोर्ट की है. बजट से 1 लाख 70 हज़ार करोड़ का हिसाब ग़ायब है. प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रथिन रॉय ने आर्थिक सर्वे और बजट का अध्ययन किया. उन्होंने देखा कि आर्थिक सर्वे में सरकार की कमाई कुछ है और बजट में सरकार की कमाई कुछ है. दोनों में अंतर है. बजट में राजस्व वसूली सर्वे से एक प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि 1 लाख 70 हज़ार करोड़ की है, क्या इतनी बड़ी राशि की बजट में चूक हो सकती है.

पहले रिवाइज्ड एस्टिमेट को समझिए. इसमें सरकार अनुमान बताती है कि उसकी कमाई कितनी हो सकती है. आर्थिक सर्वे प्रोविज़नल एक्चुअल का इस्तेमाल करता है. मतलब बताता है कि वास्तव में कितनी कमाई हुई. ये ज़्यादा सही आंकड़ा होता है. 2018-19 के बजट में रिवाइज्ड एस्टिमेट 17.3 लाख करोड़ का है. जबकि आर्थिक सर्वे में सरकार की वास्वतिक कमाई 15.6 लाख करोड़ की है. तो 1 लाख 70 हज़ार करोड़ कहां गए?

सरकार की कमाई के हिसाब में अंतर है यानी गड़बड़ी प्रतीत होती है. दूसरी तरफ सरकार के ख़र्चे में भी कमियां पकड़ में आई हैं. बजट में 2018-19 के लिए 24.6 लाख करोड़ का खर्च बताया गया है, जबकि आर्थिक सर्वे में सरकार ने मात्र 23.1 लाख करोड़ खर्च किया है. तो सवाल है कि डेढ़ लाख करोड़ का हिसाब कैसे कम हो गया? श्रीनिवासन जैन ने अपने सवाल वित्त मंत्रालय को भेजे हैं, मगर जवाब नहीं आया है. रथिन राय ने बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार में इस पर विस्तार से लिखा है. रथिन राय का कहना है कि अगर आर्थिक सर्वे का डेटा सही है तो स्थिति गंभीर है. 2014-15 से लेकर अब तक केंद्र सरकार का 1.1 प्रतिशत छोटा हो गया है.

श्रीनिवासन जैन ने भारत के राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग के पूर्व प्रमुख प्रणब सेन से बात की. प्रणब सेना पिछले साल इस्तीफा दे दिया था. उनका कहना है कि अगर ऐसी गलती या चूक किसी कंपनी में हुई होती तो उस कंपनी का मुख्य वित्तीय अधिकारी बर्खास्त कर दिया जाता. कमाई का अनुमान जो बताया जाता है अगर उससे कम कमाई हो और सरकार उसे हाईलाइट न करे तो यह चिन्ता की बात है. सवालों के जवाब मिल सकते थे, लेकिन वित्त मंत्रालय से एक ख़बर है. 'द प्रिंट' नामक वेबसाइट की खबर है, रिपोर्ट का मुखड़ा है, बजट हो गया, लेकिन निर्मला सीतारमण ने वित्त मंत्रालय में पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगाई. जिनके पास पत्र सूचना कार्यालय की मान्यता है वैसे पत्रकार भी तभी प्रवेश कर सकेंगे जब अधिकारी से समय लिया गया होगा.

रेम्या नायर ने यह रिपोर्ट सूत्रों के हवाले से लिखी है. वित्त मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना है कि ऐसा कोई औपचारिक आदेश जारी नहीं हुआ है. रेम्या ने लिखा है कि पहली बार है जब ऐसी बंदिश लगी है. जिनके पास PIB कार्ड होता है वे विदेश और रक्षा मंत्रालय को छोड़कर बाकी सभी मंत्रालयों में बिना रोक-टोक आ-जा सकते हैं. वित्त मंत्रालय में सिर्फ बजट से दो महीने पहले ऐसी रोक लगती है, मगर बजट के बाद भी यह बंदिश नहीं हटाई गई है. इस ख़बर को कुछ और वेबसाइट ने भी रिपोर्ट किया है.

तो जो बजट के हिसाब में 1 लाख 70 हज़ार करोड़ की कमी के सवाल का जवाब कैसे मिलेगा? सरकार दो दस्तावेंजों में अलग-अलग कमाई कैसे बता सकती है. बजट को लाल कपड़े में लाया गया था. एक व्यापारी ने कहा कि हम अपने बहीखाते में कम से कम सही सही लिखते हैं, क्योंकि वो हमारा होता है. तो फिर वित्त मंत्रालय को इस प्रश्न का जवाब नहीं देना चाहिए. क्या मुख्य आर्थिक सलाहकार को नहीं बताना चाहिए कि 1 लाख 70 हज़ार करोड़ का हिसाब कहां गया?

इन लोगों को तो आप रोज़ ही देखते होंगे. अपने अपने शहर की सड़कों पर. गाड़ियों के पीछे भारत की पूरी जातिप्रथा जीवित अवस्था में नामांकित गतिशील नज़र आती है. अभी-अभी गुर्जर की कार निकली नहीं कि बगल से ब्राह्मण की कार आ गई. समझ नहीं आता है कि क्या किसी न्यूट्रल को इन दोनों में से किसी एक को चुनना होगा या दोनों से संभल कर रहना होगा. कारों पर ब्राह्मण, राजपूत, अहीर, यादव, ख़ान, ठाकुर, लिखा देखकर यकीन होता है कि जाति प्रथा एक गतिशील प्रथा है. मेरी राय में मारुति और महिंद्रा को अपने ब्रांड का नाम लिखने की जगह ख़ाली छोड़ देनी चाहिए ताकि लोग अपनी जाति, गोत्र का नाम लिख सकें. आइये इसका विश्लेषण करते हैं. कारणों को गेस करते हैं. क्या वजह होती होगी कारों पर गुर्जर लिखने की, जाट लिखने की या ब्राह्मण लिखने की. क्या कार चोरी करने वाला गिरोह अपने लीडर की जाति का कार नहीं चुराता होगा या खास जाति की कार इसलिए छोड़ देते होंगे कि आस-पास के इलाके में उनका वर्चस्व है. कहीं पकड़ में आ गए तो अंतर्ध्यान कर दिए जाएंगे. या फिर जाति का नाम लिखने से उस जाति के ट्रैफिक पुलिस की मेहरबानी मिल जाएगी. कुछ तो होता है या फिर लोग अपनी मासूमियत में लिख जाते होंगे कि फलां की कार है. उस जाति के लोग में गौरव भाव जागता होगा कि हमारी बिरादरी वाले ने कार खरीदी है. हमें भी कार खरीदनी चाहिए. राजधानी दिल्ली में हर कार की जाति होती है. प्रेस वालों की भी जाति ही होती है, जिसे देखो अपनी कार के शीशे पर प्रेस लिख लेता है. लिखने वाले तो जज भी लिख देते हैं. ब्लॉक प्रमुख, प्रधान और विधायक, सांसद तो मान्य प्रथा है. लोगों की कार लोगों की पहचान है. इन सब लोगों ने अपनी कार पर भारतीय क्यों नहीं लिखा, पता नहीं. भारतीय तो सब है हीं, भारतीय के भीतर जाति सुप्रीम है. ऐसा प्रतीत होता है.

नोएडा पुलिस को यह सब ठीक नहीं लगा. ज़ाहिर सी बात है कि किसी भी पुलिस को यह ठीक नहीं लगनी चाहिए. उम्मीद है नोएडा पुलिस की तरह दिल्ली पुलिस और अन्य पुलिस भी कारों को जाति से मुक्ति दिलाने की दिशा में प्रयास करेगी. फैशन या जाति का प्रदर्शन करने पर चालाना कटेगा. भारत एक स्टेटस प्रधान देश है. कार से स्टेटस हाई होता है, लेकिन जब सबके पास कार हो जाए तो जाति और पद से हाई होता होगा. एसएसपी वैभव कृष्ण का यह प्रयास देश भर में फैलने की ज़रूरत है. उन दुकानदारों से भी कहने की ज़रूरत है तो ऐसे स्ट्रीकर बेचते हैं. कई लोग तो नंबर की जगह जाति लिख देते हैं. फिर यही लोग कहते हैं कि देश में जात-पात बढ़ गया है. अगर आपने ऐसा किया है तो हटा दीजिए. मां का आशीर्वाद ठीक है. मैं भी ऐसी तस्वीरें लेता रहता हूं.

अब सैंट्रो पर जेल ऑफिशियल लिखा है. बताइये भागा हुआ अपराधी देखते ही हड़बड़ा जाए. जेल ऑफिशियल लिखने का क्या तात्पर्य रहा होगा. अब इसी के बाद कोई कार आ जाए जिस पर जज लिखा हो तो क्या क्या ख़्याल पैदा होग? लगेगा पूरी अदालत सड़क पर चल रही है. पहली बार देखा था माता-पिता के आशीर्वाद के साथ दोस्त के सहयोग का ज़िक्र है. ठीक-ठाक इमोशनल हो गया था. कई बार हम दोस्तों की मदद से गाड़ियां ख़रीदते हैं और उस पर पिता का आशीर्वाद लिख देते हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि इन ट्रकों पर जो शायरी लिखी होती है क्या उस पर पुलिस की नज़र पड़ेगी? देखिए इस ट्रक पर लिखा है, दिल दिया था हीरा समझ कर, काट दिया तूने खीरा समझ कर. प्रेम में तरकारी का ऐसा भाव कहां मिलेगा. ये यादव जी सिर्फ यादव नहीं हैं, बल्कि डमरू वाले के फैन भी हैं. अब डमरू वाले से कौन पता करे कि वे इस फैन को पहचानते हैं या नहीं मगर प्रेम है तो है. कार पर उसका इज़हार भी है. न होता तो अच्छा था मगर है तो है. और अगर ये ऑटो वाला आ गया तो पुलिस क्या करेगी? गर्वनमेंट ऑफ भोले लिखा है. भोले की सरकार. माननीय पुलिस अधिकारी जी, आपका जीवन आसान नहीं है. चुनौतियां बड़ी हैं. कृपया गवर्नमेंट ऑफ भोले से पंगा न लें. ये वाली तस्वीर सुशील महापात्रा ने ली थी.

अब आते हैं स्कूलों पर. क्या आप चाहते हैं कि स्कूल के क्लास रूम में सीसीटीवी कैमरा लगे? क्या आप खुद को या बच्चों को लगातार कैमरे की निगरानी में रखने के असर को समझ रहे हैं. दिल्ली सरकार अपने स्कूलों में 1 लाख से अधिक सीसीटीवी कैमरे लगा रही है. 600 करोड़ से अधिक का प्रोजेक्ट है. लाजपत नगर के सरकारी स्कूल में 210 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं. एक स्कूल इतने कैमरों की ज़द में होगा तो हर समय एक पुलिस का साया बच्चों के ऊपर मंडराता रहेगा. क्या यह ठीक है या इससे नुकसान है? क्लास रूम से लेकर खेल के मैदान पर हर जगह निगरानी रहेगी. दिल्ली के मुख्यमंत्री का तर्क है कि बच्चे स्कूल में पढ़ाई के लिए जाते हैं, प्राइवेसी के लिए नहीं जाते हैं.

सीसीटीवी कैमरे लगाने से अनुशासन बढ़ेगा, पढ़ाई का स्तर अच्छा होगा और अगले साल रिज़ल्ट भी अच्छा होगा. देश में और दुनिया के अंदर स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में यह मील का पत्थर साबित होगा. केजरीवाल ने कहा है कि सरकारी स्कूल अच्छे नहीं होते तो हम क्लास रूम का लाइव फीड मां बाप को नहीं देते. कोई सरकार अपनी कमी नहीं दिखाना चाहेगी. इस योजना के तहत मां-बाप एक ऐप के ज़रिए देख सकेंगे कि उनका बच्चा क्लास में क्या कर रहा है, पढ़ाई ठीक से हो रही है या नहीं? मनीष सिसोदिया का कहना है कि जब कैमरे नहीं लग रहे थे तब विरोधी दल निशाना बना रहे थे अब लगाए जा रहे हैं तो सवाल हो रहा है. मां-बाप के लिए स्कूल कभी खत्म नहीं होंगे. बच्चों के स्कूल जाने के बाद ऐप के ज़रिये वे स्कूल में ही रहेंगे. घर आकर बच्चों के बताने से पहले ही उन्हें पता होगा कि किसने किसका टिफिन खाया, किसने किसकी चुगली की, और मारपीट की.

प्राइवेसी का सवाल उठ रहा है. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्र अम्बर टीकू ने दिल्ली हाईकोर्ट में इस योजना को चुनौती दी थी मगर हाईकोर्ट ने कहा कि इससे प्राइवेसी भंग नहीं होती है. बाद में याचिकाकर्ता इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट भी गया जहां यह मामला चल रहा है. सुशील महापात्रा ने संजय श्रीवास्तव से बात की है. प्रों श्रीवास्वत इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक ग्रोथ में काम करते हैं, उन्होंने इस मसले को लेकर इंडियन एक्सप्रेस में लेख भी लिखा है. 

क्या वाकई सीसीटीवी कैमरे के लग जाने से पढ़ाई बेहतर होती है? यह बहस का विषय होना चाहिए. मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि सीसीटीवी लगाने से एटीएफ फ्रॉड नहीं रुका, बल्कि हम उन्हीं कैमरों में एटीएम ही उठाकर ले जाते हुए वीडियो देखते हैं. दुकान से लेकर मोहल्लों में फुटेज मिलता है. जो अपराध के बाद चैनलों पर चलता है, लेकिन कैमरों के लग जाने से अपराध में कोई कमी नहीं आई है. ज़रूर अपराधी पकड़े गए हैं मगर क्या इससे अपराध रुकता है, इसका ठोस जवाब नहीं है. 2015 के बाद से राष्ट्रीय अपराध शाखा ब्यूरो की रिपोर्ट ही नहीं आई है. अब आपको पता ही नहीं है कि भारत में अपराध का क्या रिकॉर्ड है. इस बीच सीसीटीवी का कारोबार काफी बढ़ गया है. 

इकोनमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट है. 30 अक्तूबर 2018 की. राहुल सचितानंद की. इस रिपोर्ट में लिखा है कि इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक हर महीने 20 लाख सीसीटीवी कैमरे की बिक्री हो रही है. तो यह फलता फूलता कारोबार भी है. एक अनुमान के अनुसार 2020 तक यह बीस हज़ार करोड़ का बिजनेस हो जाएगा. वैसे इस बार के बजट में सीसीटीवी पर आयात शुल्क बढ़ा दिया गया है. पिथौरागढ़ के बच्चे शिक्षकों और पुस्तकों की मांग को लेकर आंदोलन पर हैं. उनके इस आंदोलन में अभिभावक भी उनके साथ आ चुके हैं. ये आंदोलन दरअसल उत्तराखंड में हर जगह होना चाहिए, क्योंकि शिक्षकों और पुस्तकों की कमी सभी जगह है, पर्वतीय इलाकों में और ज़्यादा है. ख़ैर एक सीमांत इलाके के छात्रों ने जो आंदोलन शुरू किया, उसके समर्थन में उत्तराखंड में दूसरी जगहों पर भी धरने प्रदर्शन शुरू हो गए हैं.

देहरादून में बारिश की वजह से हालांकि ज़्यादा लोग जमा नहीं हो पाए, लेकिन जो लोग जमा हुए उनके इरादे बुलंद हैं. पोस्टर बैनरों के साथ यहां पहुंचे इन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मौके पर जनगीत गाकर पुस्तक-शिक्षक आंदोलन की अहमियत बताई. इसके अलावा बागेश्वर में भी कुछ लोग धरने पर बैठे. सोशल मीडिया पर भी ये मुद्दा छाया हुआ है. प्राइम टाइम में इस ख़बर को दिखाए जाने के बाद कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. केएस राणा ने पिथौरागढ़ विश्वविद्यालय के लिए एक नोडल अधिकारी को आज तैनात कर दिया. शिक्षकों, पुस्तकों और फर्नीचर की कमी से जूझ रहे इस महाविद्यालय से ही पुस्तक-शिक्षक आंदोलन शुरू हुआ है. कुलपति कार्यालय से जारी आदेश के मुताबिक पिथौरागढ़ विश्वविद्यालय के डॉ. नरेंद्र सिंह धारियाल को नोडल अधिकारी के तौर पर नियुक्त कर दिया. कुलपति के मुताबिक छात्रों की बाकी मांगें शासन स्तर की हैं, इसलिए उनके मांग पत्र को आगे शासन को भेजा जा रहा है.

इस सिलसिले में स्थानीय समाचार वेबसाइट हिलवार्ता ने उच्च शिक्षा के प्रभारी निदेशक प्रो. सुरेश चंद्रपंत से बात की... प्रोफेसर पंत ने कहा कि पिथौरागढ़ महाविद्यालय के लिए स्वीकृत 122 पदों को पूरी तरह भरना शासन का विषय है, जिसे महाविद्यालय से आख्या मिलने के बाद शासन को भेजा जाएगा. उन्होंने हिलवार्ता को ये भी बताया कि महाविद्यालय को स्वीकृत फंड के हिसाब से फर्नीचर और पुस्तकों की व्यवस्था की जाएगी, लेकिन वो पूर्ण रूप से हो पाएगी ये वो अपने स्तर से नहीं कह सकते. इस बारे में शासन को अवगत कराया जाएगा तो कुलपति और उच्च शिक्षा निदेशक ने अपनी अपनी सीमाएं बताते हुए गेंद शासन के पाले में डाल दी है.

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