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This Article is From Aug 15, 2016

बेरोजगार युवाओं के लिए आजादी के मायने

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 15, 2016 17:03 pm IST
    • Published On अगस्त 15, 2016 17:03 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 15, 2016 17:03 pm IST
हर साल देश की आजादी का जश्न मनाया जाता है. यह 70वां समारोह था. यानी स्वतंत्र भारत ने स्वशासन के 69 साल पूरे कर लिए, लेकिन इस बीच स्वतंत्रता की अपनी इस यात्रा की समीक्षा करने की जरूरत महसूस नहीं हुई. हो सकता है कि बात दिमाग में इसलिए न आई हो क्योंकि स्वतंत्रता दिवस एक पर्व है और अपेक्षा की जाती है कि सब कुछ खुशनुमा माहौल में हो, और इस मौके पर रंगारंग कार्यक्रम हों. लेकिन इस बार स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर कुछ संस्थाओं ने स्वतंत्रता पर विचार विमर्श का आयोजन भी किया. इसका मकसद था कि गुजरे 69 साल में बनी नई परिस्थितियों में स्वतंत्रता को पुनर्परिभाषित किया जाए. सोचा गया कि इस बहाने अपनी स्वतंत्रता की यात्रा की समीक्षा हो जाएगी और अपनी इस यात्रा में कुछ जोड़ घटाने की बात भी सोची जाएगी.

यह आयोजन गाजियाबाद शहर और उससे सटे रईसपुर गांव की सीमा पर एक स्कूल में हो पाया. इस सिंपोजियम के मोडरेटर की भूमिका निभाते हुए मुझे सामाजिक, राजनीतिक, प्रौद्योगिकी और अर्थशास्त्र जैसे कई विषयों के  विद्वानों को गौर से सुनने का मौका मिला. अपने इस नए अनुभव के बाद कुछ कहने की इच्छा है.

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का भेद
स्वतंत्रता के बहाने स्वच्छंदता की छूट पाने का जोखिम बन ही जाता है. आखिर आज यह मुश्किल आ रही है कि स्वतंत्रता को मर्यादित करने की व्यवस्था कैसे बने. हालांकि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का निर्धारण करते समय बार-बार हमने इस बारे में सोचा है. सिर्फ आजादी पाने के समय हमने ही नहीं बल्कि विश्व राजनीति के 2400 साल के ज्ञात इतिहास में झांकें तो यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने प्रजातंत्र की संकल्पना करते समय इस बारे में गहराई से सोचा था.

लोकतंत्र और वैधानिक लोकतंत्र का फर्क
आधुनिक भारतीय राजनीति विज्ञान ने भले ही प्राचीन राजनीति विज्ञानियों को हाशिए पर डाल दिया हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र में स्वतंत्रता को पुरर्परिभाषित करने की जरूरत पड़ने लगी है. अगर वाकई यह हालत बनते जा रहे हैं तो इस बारे में आज हमें अरस्तू के विचार पर गौर करना पड़ेगा. उनका विचार था कि लोकतंत्र को वैधानिक व्यवस्था से मर्यादित करना पड़ेगा. अगर ऐसा न किया गया तो लोकतंत्र को भीड़ तंत्र में तब्दील होते देर नहीं लगेगी. इसीलिए उन्होंने वैधानिक लोकतंत्र को शुद्ध रूप बताया और लोकतंत्र को विकृत रूप.

वैधानिक लोकतंत्र ही तो है स्वतंत्र भारत की व्यवस्था
अपने मतदाताओं को लुभाने के लिए हम उन्हें उनकी प्रभुसत्ता के मुगालते में कितना भी बनाए रखें लेकिन आजादी के 69 साल के अनुभव से हमें अच्छी तरह से बोध हो गया है कि लोकतंत्र का नागरिक अपनी किसी भी आकांक्षा की पूर्ति के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं है. वह संविधान से मर्यादित है. यानी प्रभुसत्ता अगर किसी की है तो वह संविधान की है. हां संविधान का पालन करने में कहीं अड़चन आती हो तो उसमें संशोधन की व्यवस्था जरूर है. लेकिन इस संशोधन के तौर तरीके भी हमने संविधान में पहले से तय कर रखे हैं. वैसे कहने को यह काम जनता ही करती है. क्योंकि जनता के प्रतिनिधि का कुछ भी किया यही माना जाता है कि वह जनता ने ही किया है. जनता के प्रतिनिधि यह दावा करते ही रहते हैं कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह जनता की ही आकांक्षा है. इतने बड़े देश में चुनाव के अलावा जनता की आकांक्षा को जानने का और कोई निरापद तरीका हम ईजाद कर नहीं पाए हैं.

क्या हुआ था 15 अगस्त 1947 को
इस दिन हम साम्राज्यवाद की परतंत्रता से मुक्त हुए थे. हमारे अपने राजतंत्र यानी स्वतंत्र बनने का ऐलान हो गया था. उसके पहले हम राजनीतिक रूप से परतंत्र थे, और उस कारण से आर्थिक रूप से परतंत्र थे. अगर कार्य कारण संबध के लिहाज से देखें तो हमारी समस्या आर्थिक परतंत्रता थी और इसका कारण राजनीतिक परतंत्रता थी. खैर उस दिन हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हुए. और उस दिन के बाद से हमें अपनी आर्थिक स्वतंत्रता यानी आर्थिक आत्म निर्भरता के काम पर लगना पड़ा.

आर्थिक स्वतंत्रता के लिए हमने क्या किया
आजादी मिलने के दिन तक लगभग सभी क्षेत्रों में हमारी दुर्गति थी. सबसे ज्यादा दुर्गति आर्थिक क्षेत्र में थी. आजादी मिलने के बाद हमारी अपनी सरकार ने पहला लक्ष्य आत्म निर्भरता का बनाया. सत्तर के दशक में हमने हरित क्रांति के जरिए अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली थी. उस समय हमें अपने स्वतंत्रता दिवस समारोहों में इस उपलब्धि का जिक्र करने का मौका मिला होगा. और शायद यही कारण रहा होगा कि उस समय के हमारे जन प्रतिनिधियों के प्रति श्रद्धा भाव भी था. बाद में श्वेत क्रांति और फिर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतियों का दौर चला जिसके सहारे एक देश के रूप में हम विश्व में प्रतिष्ठित होते चले गए. यहां आते-आते इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में हमने आर्थिक प्रगति या वृद्धि या विकास के क्षेत्र में भी दुनिया में डंका बजा दिया था. लेकिन फिर भी सुख सुविधाओं के समान वितरण के लक्ष्य को हम हासिल नहीं कर पाए. समीक्षा करें तो यह बात निकलती है कि इन 69 साल में हमने आत्मनिर्भरता का लक्ष्य पाया और आर्थिक बराबरी के लक्ष्य की जटिलताओं को पहचान पाए.

आर्थिक समानता के नए लक्ष्य का आकार प्रकार
इसका सही अंदाजा लगाना मुश्किल है. हमें तो यह भी नहीं पता कि आखिर इस समय देश में कितने बेरोजगार है. सिर्फ इतना पता है कि हर साल सवा दो करोड़ की रफ्तार से आबादी बढ़ रही है. लगभग दो करोड़ की रफ्तार से देश में बेरोजगार भी बढ़ रहे हैं. सामान्य अनुभव है कि सरकारी नौकरियां घट रही हैं. अपने निजी काम धंधे शुरू करने में हद दर्जे की अड़चनें आने लगी हैं. सैकड़ों सरकारी योजनाओं, परियोजनाओं और कार्यक्रमों के ऐलान के बाद उन्हें लागू करने के लिए देश के पास पैसों का टोटा है. देश के 686 जिलों के कोई आठ हजार कस्बों में काम की तलाश करने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है. यह सारे हालात क्या हमें यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि हमें सब कुछ छोड़छाड़ कर अब सिर्फ आर्थिक आजादी यानी बेरोजगारी के मोर्चे पर लग जाना चाहिए.

आर्थिक स्वतंत्रता के विचार का एक पहलू यह भी
कुछ विद्वान आर्थिक स्वतंत्रता की बात को यह कहकर खारिज कर सकते हैं कि इस तरह तो हम तरह-तरह की आजादी की बात करने लगेंगे. करने क्या लगेंगे करने ही लगे हैं. लेकिन देश की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिहाज से सोचकर देखें तो साम्राज्यवाद से छुटकारा पाने के लिए हमने जो आजादी की लड़ाई लड़ी थी वह मुख्य रूप से साम्राज्यवादियों पर आर्थिक शोषण का आरोप लगाते हुए ही लड़ी थी. सन 1757 से लेकर 1857 तक साम्राज्यवादियों ने व्यापार के बहाने ही शोषण शुरू किया था और फिर 100 साल बाकायदा राज करके हमारे प्राकृतिक और मानव संसाधनों का शोषण किया था. तब भारतवासियों को अपनी योग्यता और मेहनत के मुताबिक रोजगार पाने का अधिकार नहीं था. यानी उन्हें काम पाने का अधिकार नहीं था. आजादी मिलने के बाद हमने काम के अधिकार को अपनी व्यवस्था में शामिल कर लेने का ऐलान किया था. कुछ साल पहले तक यह अधिकार अपने आप ही मिलता दिखता रहा हो लेकिन अचानक दिन पर दिन बढ़ती बेरोजगारी के नए दौर में क्या यह नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक या रोजगार पाने के मामले में इस समय देश के बहुसंख्य युवा परतंत्रता ही महसूस कर रहे हैं.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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