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This Article is From Jul 29, 2015

याकूब मेमन की इस फांसी के बहाने : दूसरा भाग

Reported By Abhishek Sharma
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  • Updated:
    जुलाई 29, 2015 23:56 pm IST
    • Published On जुलाई 29, 2015 23:36 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 29, 2015 23:56 pm IST
शायद अब बहस की गुंजाइश नहीं रह गई है। अदालतों ने अपना काम कर दिया है। मीडिया को जिन अलग-अलग आवाज़ों को दिखाने का काम करना था वो भी हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इंसाफ ने अपना काम कर दिया है। लेकिन पूरे देश में जो लोग फांसी के तरफदार हैं उनकी जिम्मेदारी अब कुछ ज्यादा होनी चाहिये।

कुछ दिन भी नहीं बीते हैं पंजाब में हुए आतंकी हमले को। एसपी साहब शहीद हो गये। उनके पिता भी 1984 में शहीद हुए थे। लेकिन हमारी व्यवस्था एसपी साहब के परिवार में वो भरोसा नहीं जता पाई कि हम उनका ख्याल रखेंगे। दो पीढ़ियों के बलिदान के बाद भी परिवार को इस देश में डर लगता है कि कहीं पिता के नाम पर नौकरी मिलेगी की नहीं। मैं ऐसे सैकड़ों लोगों की कहानियां बता सकता हूं जिन परिवारों के मुखिया इस देश के खातिर मारे गये...लेकिन उनके बच्चे रोज़गार और रोजी रोटी के लिये सरकार के सामने खड़े दिखते हैं।

तो बड़ा सवाल है कि जितनी बड़ी बहस लोग फांसी देने के खातिर कर रहे हैं क्या वही जज्बा उन लोगों के लिये भी दिखाते हैं जो शहीद होते हैं? फांसी की बहस जितना उन्माद पैदा करती है क्या उतनी ही आग उन लोगों के लिये होती है जो आतंकवाद के पीड़ित हैं?

पिछले दिनों पराग सावंत की मौत हो गई। मुंबई ट्रेन धमाके (7-11) के पीड़ित थे। कोमा में कई साल से थे। इलाज़ चल रहा था। परिवार ने पूरी जान लगा दी अपने बेटे को बचाने में। लेकिन 24 घंटे से भी ज्यादा का वक्त लग गया उसके शव को घर तक आने में। एक दो लोगों ने विरोध भी जताया कि ऐसा क्यों हुआ। लेकिन वो गुस्सा नहीं फूटा जो दोषी को दंड के लिये उमड़ता है।

क्या हमें याद नहीं रखना चाहिये कि धमाकों के सैकड़ों घायल लोग पूरी जिंदगी सरकार से मदद मांगते रहते हैं और फाइलें दफ्तरों के चक्कर काटती रहती हैं। तब किसी ऐसी कहानी पर लोग इतनी तीखी प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते जो आज फांसी पर दे रहे हैं? क्या इंसाफ का पैमाना सिर्फ दोषियों को सज़ा देना बस है? या फिर हम ऐसी समाज हैं जो इंसाफ को लेकर चुनाव करती रहती है? फांसी पर मुखर रहना चाहती है लेकिन पीड़ितों के ख्याल में पीछे?

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