स्त्रियों पर अत्याचार के कुछ समाचारों से आंदोलित होने पर एक आलेख कुछ दिन पहले लिखा था, जिसे सराहे जाने के लिए आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद... परंतु विश्वास कीजिए, आपसे मिल रही सराहना के स्थान पर यदि आपमें से कुछ के मन-मस्तिष्क में स्त्री के प्रति सम्मान का भाव जागा, तो आलेख को ज़्यादा सफल मानूंगा...
बहरहाल, इस वक्त मेरा इरादा यह नहीं है... इरादा है, उसी चर्चा को कुछ और आगे ले जाने का... पिछले आलेख में मैंने एक स्थान पर लिखा था, महिला ही महिला की सबसे बड़ी शत्रु सिद्ध होती हैं... क्या हमने कभी सोचा है, ऐसा क्यों है... आज मेरी इच्छा इसी पहलू पर चर्चा करने की है...
कोई भी महिला मानव जीवन की सर्वाधिक कष्टदायक शारीरिक प्रक्रिया से गुज़रकर एक बच्चे को जन्म देती है... चीखती-पुकारती रही उस महिला के चेहरे पर असहनीय कष्ट के बाद आत्मसंतुष्टि और गौरव की जो मुस्कान बच्चे के जन्म के तुरंत बाद दिखाई देती है, वह सिद्ध कर देती है कि कोई महिला कितना सहन कर सकती है... यह सहनशीलता लासानी है, जिसे सिर्फ एक महिला ही समझ सकती है, परंतु सबसे अफसोसनाक पहलू यह है कि इसके बावजूद महिला ही महिला का सत्यानाश करने में सबसे आगे रहती है...
मेरी समझ में इसका एक कारण हमारे समाज का सदियों से पुरुषप्रधान होना है, जिसमें अपना महत्व बनाए रखने के लिए महिला खुद को बिल्कुल वैसा बनाने की कोशिश में जुटी रहती है, जैसा उसे पुरुष देखना चाहते हैं...
अब एक उदाहरण... इस समाज ने सदियों पहले कुछ व्रत-उपवास आदि के कुछ नियम बनाए, जिन्हें पढ़ी-लिखी औरतें आज भी स्वीकार करती हैं... सबसे पहले स्पष्ट कर देना चाहूंगा, मुझे इस तरह के किसी नियम से कोई आपत्ति नहीं, परंतु उनके औचित्य पर कुछ सवाल मेरी नज़र में खड़े नज़र आते हैं, जिनका जवाब ढूंढना मुझे ज़रूरी लगता है... करवाचौथ का व्रत पति-परमेश्वर के दीर्घायु होने की कामना से रखा जाता है, और होई का व्रत अपने पुत्रों की भलाई की इच्छा से... इसमें जो दो सवाल मेरे मन में कौंधते हैं, वे हैं - क्या पत्नी की आयु लंबी होना दुखकर होता है, या पुत्री की उम्र ज़्यादा हो जाने पर कोई नुकसान पहुंचता है... यदि इन सवालों का जवाब इंकार में हैं, तो किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के लिए व्रत रखे जाने का नियम इस समाज में क्यों नहीं है... या होई का व्रत रखने वाली महिला पुत्रों के साथ-साथ अपनी पुत्री के लिए भी परमात्मा से प्रार्थना क्यों नहीं कर सकती...
इसमें जो सवाल सामने आए हैं, उनसे ज़्यादा बड़े सवाल और भी हैं... क्यों किसी महिला ने कई शताब्दियां बीत जाने के बावजूद आज तक इस पर सवाल नहीं किया... क्यों अपनी ही नस्ल में पैदा हुई पुत्रियों को बराबर सम्मान और अधिकार दिलाने के लिए महिलाओं ने आंदोलन नहीं किया... क्यों महिला अधिकारों की पैरोकारी करने वाले पुरुष आज तक इन सवालों पर चुप रहे...
इसका जवाब जो सूझता है, वह विचलित करने वाला है... महिला इसलिए खामोश रहती है, क्योंकि अधिकार मांगने या बेटी को अधिकार दिलाने के उद्देश्य से उसके कुछ बोलते ही वह पुरुष की नज़रों में गिर जाएगी, और फिर परिवार और घर में उसका सम्मान और अधिकार खत्म हो जाएंगे... पुरुष इसलिए खामोश रहता है, क्योंकि महिलाओं को अधिकार देने से उसकी सत्ता के लिए चुनौती खड़ी हो जाएगी... सो, परिवार में अपना वर्चस्व और यहां तक कि स्थान बनाए रखने के लिए महिलाओं का अपनी ही जनी पर अत्याचार जारी रहा... यही नहीं, यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि जो महिला अपनी ही बेटी को नहीं बख्श पाई, वह दूसरे की बेटी के घर में बहू बनकर पहुंचने पर उसकी मां कैसे बन पाएगी... सो, यदि सास हमेशा कहावतों की सास ही रही, तो कुछ नहीं बदलेगा...
अब मुझे यह सोचना था कि हमारी मानसिकता ऐसी क्यों है... बहुत आसानी से जवाब सूझ गया... चूंकि इस समाज में सदियों से महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होकर पुरुषों पर निर्भर रही हैं, इसलिए वे वही करती और कहती हैं, जो पुरुषों को भाता है... रही-सही कसर समाज में फैली दहेज जैसी कुरीतियों ने पूरी कर दी, जिनकी वजह से पुरुषों को (और कालांतर में महिलाओं को भी) बेटियां बोझ लगने लगीं... परिवार के लड़के भी अपनी बहनों से नेह रखने के स्थान पर उन्हें बोझ मानने लगे, और दुनियाभर की बंदिशें लड़कियों पर लागू होती चली गईं... लड़का कैसी-भी पोशाक पहनकर घर से बाहर आ सकता है, लेकिन लड़की घर में भी 'सलीके के' कपड़े पहने, ऐसे नियम बने... लड़के का मन पढ़ाई में लगता है या नहीं, इसकी परवाह किए बिना वह कितना भी खर्च करवा सकता है पढ़ाई के नाम पर, लेकिन लड़की भले ही होशियार हो, पढ़-लिख लेने से वर ढूंढना मुश्किल हो जाएगा, इसलिए लड़की को पढ़ाना बेकार का खर्च है... और हां, किस्मत से पढ़ने का मौका मिल भी गया, तो घर का कामकाज सीखना ज़रूरी है, सो, अगर लड़की चूल्हा-चौका सीखने के बाद वक्त निकाल पाए तो पढ़ ले...
इतना करने के बावजूद विडंबना यही है कि महिला को सम्मान और अधिकार देने के कतई अनिच्छुक इन पुरुष-प्रधान परिवारों का सम्मान फिर भी महिलाओं से जुड़ा ही बताया जाता रहा है, और समाज में कथित रूप से 'अपमानित' होने की प्रत्येक घटना के लिए हर बार किसी न किसी महिला को ही उत्तरदायी ठहराया जाता है... यहां तक कि परिवार के कथित सम्मान के लिए महिला ही अपनी संतान के नृशंसतम तरीके से प्राण तक हर लेती है...
और एक बात और, इस तरह बेटी के प्राण हरने की नौबत तब आती है, जब बेटी को जन्म देकर उसे पाला-पोसा जाता है, और उसे बड़े होने का मौका दिया जाता है... लेकिन उस स्थिति में कोई क्या करे, जहां इस दुनिया में आकर सांस लेना सीखने से भी पहले उसकी सांसें रोक दी जाती हैं, और होने वाली मां इस पर भी खामोश रह जाती है... क्या किसी औरत के लिए अपने अजन्मे बच्चे की हत्या भी ऐसा अपराध नहीं है, जिसकी खातिर आवाज़ उठाई जा सके... यदि ऐसा है, तो मैं ऐसे भविष्य की कल्पना करने के लिए विवश हूं, जहां कोई औरत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखी जाएगी...
इस समय मेरे मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है, और सूझ नहीं रहा है, क्या लिखूं, क्या नहीं... लेकिन जो कहना चाहता हूं, वह मेरे मस्तिष्क में स्पष्ट है... इस समाज को आज अच्छे और समझदार बाप और भाइयों की ज़रूरत है, ताकि 'मां' सुरक्षित और संतुष्ट रहकर जी सके... और एक महिला ही इस समाज को अच्छे और समझदार बाप और भाई देने में सक्षम है, क्योंकि बच्चे को अच्छा इंसान बनाना हमेशा से मां का ही दायित्व रहा है, क्योंकि वास्तव में यह उसी के बस का काम है...
विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...
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This Article is From Apr 19, 2011
ज़रूरत है समझदार बाप-भाइयों की...
Vivek Rastogi
- ब्लॉग,
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Updated:मार्च 20, 2018 14:55 pm IST
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Published On अप्रैल 19, 2011 05:30 am IST
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Last Updated On मार्च 20, 2018 14:55 pm IST
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