अगर आप दिल्ली के बाहर बसे लोगों से किसी ग्रुप फोटो में अहमद पटेल को पहचानने के लिए कहें, तो मेरा अदाज़ा है कि राजनैतिक रूप से सचेत लोगों को भी उन्हें पहचानने में दिक्कत होगी.
वह ऐसे ही शख्स थे. लाइमलाइट से दूर रहने वाले, इंटरव्यू देने से चिढ़ने वाले, पर्दे के पीछे रहना पसंद करने वाले. फिर भी, 10 साल तक, जब UPA सत्ता में थी, वह देश में सबसे अहम शख्सियतों में से एक थे, उनके असर से ज़्यादा असर सिर्फ सोनिया गांधी का रहा, और UPA के पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह का भी.
पटेल गुजरात से आए राजनेता थे, जो राष्ट्रीय पटल पर पहली बार तब दिखे थे, जब राजीव गांधी ने 1985 में उन्हें अपने तीन संसदीय सचिवों में स्थान दिया. (वे तीन थे अरुण सिंह, अहमद पटेल और ऑस्कर फर्नांडिस, और उन्हें लेकर 'अमर, अकबर एंथनी' संबंधी चुटकुले भी सुनाए जाते थे)
लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कुछ ही वक्त के लिए मिली उस पहचान के बाद उनके करियर में काफी उतार-चढ़ाव आए, और कुछ बार तो उतार काफी गंभीर रहे. उनका भाग्य तब बदला, जब कांग्रेस पार्टी की बागडोर सोनिया गांधी ने संभाली, और विश्वस्त लोगों की खोज शुरू की. राजीव गांधी की टीम में होना अहमद पटेल को सोनिया गांधी के शुरुआती सालों में बहुत काम आया, क्योंकि सोनिया का मानना था कि वह उदारवाद तथा धर्मनिरपेक्षवाद के कांग्रेस के आधारभूत मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हैं. इसलिए अहमद पटेल सटीक पसंद साबित हुए.
सोनिया के करियर के शुरुआती वर्षों में आई कुछ दिक्कतों के बाद सोनिया मानने लगी थीं कि एक पार्टी के प्रभुत्व के दिन अब लद रहे हैं. कांग्रेस के लिए अच्छा यही रहेगा कि वह गैर-BJP दलों के गठबंधन का नेतृत्व करे.
यह विचार बहुत अच्छा था, लेकिन इसे अमली जामा पहनाना मुश्किल था, क्योंकि अन्य तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष ताकतें' अविश्वसनीय भी हो सकती थीं, और भ्रष्ट भी. यह सबक सोनिया को तब सीखने को मिला, जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई, और विपक्षी गठबंधन सत्ता संभालने जा रहा था, तभी समाजवादी पार्टी ने गठबंधन तोड़ दिया और BJP के लालकृष्ण आडवाणी से गुप्त वार्ताएं शुरू कर दीं.
सोनिया गांधी को ऐसे किसी शख्स की ज़रूरत थी, जो मृदुभाषी हो और गठबंधन की संभावनाओं को बेहतर करने के लिए अन्य पार्टियों को मना भी सके, लेकिन साथ ही भरोसेमंद भी हो और अपनी ताकत का दुरुपयोग नहीं करे. अहमद पटेल कतई ऐसे ही शख्स थे. उनकी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं, BJP की विचारधारा से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध थे, और समूचे राजनैतिक परिदृश्य में उन्हें पसंद भी किया जाता था.
सोनिया और पटेल की टीम परफेक्ट रही, क्योंकि कहीं न कहीं वे दोनों एक जैसे थे. दोनों शर्मीले थे, अन्य राजनेताओं के वादों पर भरोसा करने के प्रति कुछ-कुछ अनिच्छुक थे, और दोनों ही सार्वजनिक बने रहने को लेकर असहज महसूस करते थे. लेकिन अजनबियों से कभी-कभार ही बात करने वाली सोनिया के उलट अहमद पटेल ने अपनी वयस्क ज़िन्दगी का अधिकतर हिस्सा राजनेताओं के आसपास ही गुज़ारा था, औऱ वह जानते थे कि उनसे कैसे बात करनी है.
वर्ष 2002 और 2004 के बीच सोनिया गांधी ने कांग्रेस को नया रूप दे डाला, जो अब न सिर्फ उदार, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की बात करती है, बल्कि ऐसी पार्टी भी है, जो मानती है कि आर्थिक सुधारों का फायदा समाज के सभी हिस्सों को सही तरीके से नहीं मिला है. जब सोनिया कांग्रेस की इस छवि को तैयार कर रही थीं, अहमद पटेल राजनीति की दुनिया में उनके दूत बनकर काम कर रहे थे, और उन्हें यह भी बताते जा रहे थे कि क्या चल रहा है, और भावी गठबंधन कैसे तैयार होंगे. जब, सोनिया के बनाए प्लेटफॉर्म की बदौलत सभी उम्मीदों के खिलाफ 2004 में BJP हार गई, यह पटेल की ज़िम्मेदारी था कि वह गठबंधन तैयार करें, जो बाद में UPA कहलाया. गठबंधन तैयार करने और लोभी सहयोगियों की इच्छाओं को दबाए रखने को लेकर अहमद पटेल ने इतना शानदार काम किया कि सोनिया गांधी ने एक ऑन-रिकॉर्ड इंटरव्यू में मुझसे कहा था, वह यह काम अहमद पटेल के बिना नहीं कर सकती थीं.
सोनिया-पटेल टीम का काम UPA के पहले कार्यकाल में बढ़िया चला, लेकिन जब कांग्रेस ने दूसरा चुनाव जीता, तब समस्याएं शुरू हो गईं. स्वास्थ्य कारणों के चलते सोनिया की गैरहाज़िरी से रिक्तता पैदा हो गई थी. राहुल गांधी के उद्भव की वजह से इन अटकलों को बल मिला कि पटेल को बदलते समीकरणों की वजह से घर पर बैठना नसीब नहीं हो रहा है. कांग्रेस के एक हिस्से में गठबंधन के खिलाफ रणनीति बनी, और फिर तय हुआ - कोई गठबंधन नहीं होगा, हम अकेले लड़ेंगे. और अंततः जब सरकार के लिए चीज़ें बिगड़ने लगीं, मनमोहन सिंह चुपचाप नेपथ्य में चले गए, और उनका कतई अकुशल PMO हालात को संभाल ही नहीं पाया.
अंत में एक समय ऐसा आया, जब अहमद पटेल और प्रणब मुखर्जी हर रात घंटों साथ बैठकर उन झंझटों को सही करने की कोशिश में जुटे रहते थे, जो सरकार ने पैदा किए. लेकिन ये कोशिशें काफी नहीं रहीं, और सरकार की इस तरह हर तरफ से खिंचाई होने लगी कि अब पटेल कुछ कर ही नहीं सकते थे. उन्होंने एक बार काफी उत्तेजित होकर मुझसे कहा था, साफ है कि प्रधानमंत्री का सरकार पर से नियंत्रण खत्म हो गया है, कोई नीतियां नहीं, कोई दिशा नहीं, बस, बिगड़े को संवारने की कोशिश हो रही है.
और जब जनता मोदी लहर के असर में आ गई, सोनिया की बनाई कांग्रेस ने अपने ही समर्थकों को असमंजस में डाल दिया. कभी-कभी वह उदार, समझदार पार्टी लगती थी, जो समाज के हाशिये पर मौजूद तबके की मदद करना चाहती थी, लेकिन कभी वह ऐसा दर्शाती थी कि पुराने दिन लौट आए हैं, हम ही बॉस हैं, और हमारा करिश्माई नेता जनता को लुभा लेगा. कांग्रेस का यह नया अवतार जैसा भी रहा हो, बहरहाल, उसने काम नहीं किया, और यह संदेश गया कि नेतृत्व अस्थिर और मनमौजी है और पार्टी की आत्मा से कटा हुआ है.
मैं नहीं जानता, पटेल इस बारे में क्या सोचते हैं, क्योंकि वह कभी भी कुछ भी नहीं बोलते थे. लेकिन वह अंत तक सोनिया के साथ रहे, शांत और वफादार. हम सभी की तरह, शायद उन्हें भी अंदाज़ा नहीं कि कांग्रेस कहां जा रही है. दूसरी ओर, राजनैतिक इतिहास में उनकी जगह कोई नहीं ले सकता, वे 10 साल, जिनमें उनकी भूमिका बेहद अहम रही, जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस को नया रूप दिया.
वह अपने समय की अनूठी ही शख्सियत थे.
वीर सांघवी पत्रकार तथा TV एंकर हैं...
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