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This Article is From Aug 22, 2016

जातियों के जंगल में चुनाव (भाग-1)

Vijay Manohar Tiwari
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 24, 2016 17:34 pm IST
    • Published On अगस्त 22, 2016 22:17 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 24, 2016 17:34 pm IST
भारत बहु संस्कृति और भाषायी विविधता के साथ  चुनावों का देश है. हर बरस कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं. देश के विभिन्न इलाकों का दौरा करके उन्हें बहुत नजदीक से जान-समझ चुके पत्रकार विजय मनोहर तिवारी  ने देश के चुनावी मौसमों का भी गहराई से जायजा लिया है. विजय मनोहर तिवारी की हाल ही में प्रकाशित किताब 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' में उनके रिपोर्ताज और देश में दर-दर मिले अनुभवों की किस्सागोई का ताना-बाना ऐसे बुना गया है कि उसको पढ़ते हुए देश के अलग-अलग हिस्सों के जनमानस की धड़कनों को सुना जा सकता है. इसकी खूबी है कि यह सिर्फ यात्रा वृतांत ही नहीं हैं बल्कि यात्रा वृतांत की शक्ल में ऐसी कथाओं का संग्रह है जो अतीत को वर्तमान से जोड़ती चलती हैं. मौजूदा संदर्भों में इस पुस्तक के चुनिंदा अंश यहां प्रकाशित किए जा रहे हैं...
   
पुस्तक के पहले हिस्से में उत्तर प्रदेश के सियासी सफरनामे को इतिहास और वर्तमान के बीच के संवाद के साथ किस्सागोई अंदाज में पेश किया गया है. इसे 2012 के विधानसभा चुनाव के वक्त लिखा गया है लेकिन इसे पढ़ते वक्त आप सामयिकता के दबाव से मुक्त हो सकते हैं क्योंकि इन पांच वर्षों की अवधि में राज्य के सियासी फलक पर बहुत कुछ नहीं बदला- वही चेहरे हैं और वही मोहरे. लेकिन इसके बहाने यूपी के अंचलों के सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक दास्तान को करीने से पेश किया गया है. इसे एक किस्से के रूप में पढ़कर सूबे की सियासत और अतीत के मर्म से रूबरू हुआ जा सकता है और मौजूदा दौर की सियासी तपिश को शिदद्त से महसूस किया जा सकता है. राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों के लिहाज से भी यह एक सियासी दस्तावेज होने के साथ मौजूदा दौर पर सटीक टिप्पणी सरीखा है. इसी कड़ी में पेश है...'जातियों के जंगल में चुनाव' का पहला भाग -

हजार साल की गुलामी के अवशेषों पर उपजे इलाके में सत्ता की भूख का भयावह नजारा..........
                                

उत्तर प्रदेश का यह चक्कर पैंतालीस दिन का था. सबसे बड़े राज्य के यह सबसे अहम चुनाव थे. नेहरू परिवार के इस गढ़ में कांग्रेस को कब्रों से निकालकर बाहर जिंदा खड़ा करने का करिश्मा राहुल गांधी को दिखाना था. यादव राजवंश की एक बार फिर ताजपोशी के लिए सैफई के युवराज अखिलेश यादव जूझ रहे थे. मंदिर-मस्जिद के खंडहरों में धूल-धूसरित बीजेपी के माथे पर राजतिलक के लिए सुसज्जित थाली साध्वी उमा भारती के कर कमलों में सौंपी गई थी. पार्टी में वापसी के बाद भी जारी उनके राजनीतिक वनवास का अगला पड़ाव उत्तर प्रदेश का ही मैदान था. मायावती ने पिछले पांच साल तक प्राचीन मिस्र के सर्वशक्तिमान राजाओं की तरह राज किया था, जहां उनके इशारे के बिना परिंदे पर नहीं मार सकते थे और हवाओं को बहने के लिए भी बहनजी से इजाजत लेनी होती थी. मुकाबले हर कहीं दिलचस्प थे.

झांसी से अपनी चमचमाती कार के साथ इम्तियाज इस सफर में मेरे सारथी थे. सैयद इम्तियाज अली. 21 वर्षीय नौजवान. आठवीं के बाद पढ़ाई नहीं कर सका था. उसके वालिद ड्राइवर थे. एक हादसे में अपना एक पैर गंवाने के बाद वह गाड़ी चलाने लायक नहीं रहे. भाई-बहनों की शादियां हो चुकी थीं. अम्मी भी अल्लाह को प्यारी हो चुकी थीं. बाप-बेटे साथ रहते थे. रास्ते में ही इम्तियाज ने मुझे बताया कि वह मेरे साथ इस गाड़ी में पहली बार चल रहा है. दूसरे ड्राइवरों से अलग इम्तियाज सुलझी हुई परिपक्‍व सोच का लगा. वह जल्दी ही घुलमिल गया. उसे उत्तर प्रदेश के गांव-शहरों, आसान रास्तों और लोगों के मिजाज का बखूबी अता-पता था.

 जब मैंने उससे शादी के बारे में पूछा तो उसने अपनी मुहब्बत का जिक्र एक विजेता के भाव से किया. जैसे बाबर, पानीपत के किस्से सुनाएं. एक पड़ोसी लड़की,  जो उसके दिलो-दिमाग में बसी थी. नाम अरशी. कभी झांसी में थी. मगर रास्ते की इकलौती अड़चन उसकी अम्मीजान थी, जो इस रिश्ते के लिए कतई राजी नहीं थी. इसलिए अरशी को किसी रिश्तेदार के यहां दिल्ली भेज दिया गया था. अरशी भी इस जिद में थी कि निकाह करेगी तो अपने इम्तियाज से. दोनों देर रात मोबाइल पर घंटों बात करते. एक परंपरावादी मुस्लिम परिवार में भला कोई लड़की अपनी पसंद के लड़के से रात को गुफ्तगू करे और घर के लोगों को अहसास भी न हो, मुझे हैरत हुई कि आखिर यह कैसे मुमकिन था?

इम्तियाज ने खुश होकर तरकीब का खुलासा किया, 'मैंने एक सिम अरशी को दिलाई है. 197 के प्लान में रिचार्ज करवा देता हूं. हम दोनों के मोबाइल एक ही कंपनी के हैं. बातचीत में ज्यादा खर्च नहीं आता. वह मरती है मुझ पर.'

रात जब लोग नींद की आगोश में होते हैं अरशी इम्तियाज के लिए जागती है. वह चुपके से अपनी दीदी का फोन लेकर उसमें अपनी सिम लगाती है. फिर इम्तियाज से घंटों बतियाती है. इम्तियाज उसके साथ अपने बेहतर कल के ख्वाब बुनते हुए इस सफर में मेरे साथ था. मैंने उससे पूछा, अरशी का अर्थ जानते हो? वह अटका. उसे शर्मिंदगी हुई. अरशी से दिल लगाया मगर उसके नाम का मतलब नहीं मालूम. मासूमियत से बोला, 'यह एक लड़की का मुसलमानी नाम है.‍' अरशी अर्थ, अर्श से था. जिसका संबंध आसमान से हो. जो ऊंचाई पर हो. मगर इम्तियाज ठेठ जमीन का इंसान था. उसे अरशी का अर्थ कहां से मालूम होगा? उसकी अरशी भी उसी जमीन पर थी, जहां उनका रास्ता आसान नहीं था.

झांसी से निकलते हुए मैं उत्तर प्रदेश की राजनीति के बीते पांच सालों के बारे में सोच रहा था. इस दौरान कितना कुछ बदल गया था? 2007 में मुलायम सिंह यादव, अमर सिंह, राज बब्बर सब एक-साथ थे. अब मुलायम-अमर की जोड़ी बिखर चुकी थी. अमरसिंह अपनी पार्टी बनाकर मुलायम सिंह के खिलाफ वोट मांग रहे थे. राज बब्बर कांग्रेस में शामिल होकर राहुल गांधी की जय-जयकार की जरूरी रस्म निभा रहे थे. वे फीरोजाबाद में मुलायम की बहू डिंपल को हरा चुके थे. बेनीप्रसाद वर्मा मुलायम सिंह से अलग होकर अब केंद्र में मंत्री थे और मुलायम को सबसे ज्यादा खरी-खोटी वे ही सुना रहे थे. सपा की सियासत में जया प्रदा के राजनीतिक प्रस्तुतकर्ता अमरसिंह थे. इस बिखराव में जया ने अमरसिंह का दामन नहीं छोड़ा था. संजय दत्त पिछली बार लाल टोपी लगाकर समाजवादी पार्टी के लिए टिकट मांग रहे थे. टिकट इस दफा भी मांगे, लेकिन न लाल टोपी लगाई और न ही अमर सिंह के बुलावे पर आए. मुन्नाभाई इस मौसम में कांग्रेस के सेट पर उन्हें दिए गए डायलॉग दोहरा रहे थे.

भाजपा की सरकार में अयोध्या के जीर्ण-शीर्ण बाबरी ढांचे के ढहने की ऐतिहासिक घटना के समय मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह भटकाव के भंवर में थे. भाजपा से टूटकर उन्होंने मुलायम से हाथ मिलाया था, लेकिन मुस्लिमों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. आजम खां ने सपा से नाता तोड़ लिया. ऐसे में मुलायम-कल्याण का यह रिश्ता भी जल्दी ही टूट गया था. अब कल्याण अपनी ही पार्टी और झंडा-बैनर लिए मैदान में थे. वयोवृद्ध मुलायम अपने बेटे अखिलेश के भरोसे थे. ऐसा लग रहा था कि अखिलेश की सवारी से सपा की साइकिल की रफ्तार जोर पकड़ लेगी.

 उत्तर प्रदेश, भारत में मुस्लिम हुकूमत के सक्रिय केंद्र आगरा और दिल्ली से सबसे करीब था. सात सौ सालों के उस उथल-पुथल भरे दौर में इसी इलाके से ही बिहार और बंगाल के सूबों तक हमलों, कत्लेआमों और लूट के सिलसिले की अनगिनत कहानियां इतिहास में दर्ज थीं. घोर दमन के अंधेरे अतीत से निकला राज्य. जातिवादी राजनीति इस हद तक गहरी है कि बीस साल के किसी नौजवान से चुनावी माहौल पर बात कीजिए तो वह शुरू यहां से करेगा, 'हमारे यहां 45 हजार कुर्मी, 20 हजार कुशवाहा, 22 हजार लोधी, ब्राह्मण-बनिया 15 हजार और 60 हजार मुसलमान हैं. लेकिन चार केंडिडेट मुसलमान हैं इसलिए इन वोटों का कटना तय है. इस बार कुर्मी निर्णायक होंगे. अमुक पार्टी ने ही सिर्फ कुर्मी को टिकट दिया है. उसकी जीत तय है.' मैंने कभी ध्यान नहीं दिया था कि मेरे गांव में कितने ब्राह्मण-बनिए, ठाकुर, चमार या मुसलमान हैं? यह सामान्य ज्ञान मेरे लिए नया था. यहां राजनीति का पहला पाठ है-'जाति के गणित स्कोर बढ़ाते हैं.'

हर दूसरा नेता ऐसा मिलेगा, जो कई पार्टियों में तफरीह कर चुका है और अभी जिस पार्टी की शाख पर बैठा चारों तरफ गर्दन घुमाते हुए अपने पंख फडफ़ड़ा रहा है, वह भी उसका आखिरी पता नहीं है. टिकट कटने पर या पार्टी के हारने पर वह सबसे पहला फैसला जो करेगा, वह बेहतर संभावनाओं वाले दूसरे दल की शाख पर प्रकट होने का ही होगा. पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह हैं, जिनके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में खानदान के सदस्यों, दूर-दराज के नाते-रिश्तेदारों और अपने चहेते चाटुकारों के अलावा बची पीछे की कुर्सियों पर दुम हिलाने की गारंटी के साथ चंद वफादार ही दिखाई देंगे. फैमिली प्रोडक्शन की इन फिल्मों में सारे लीड रोल बाप, बेटा, बहन, बहू, भाई, भतीजे, भांजों के हिस्से में हैं. बचे हुए टुकड़ों पर दूसरे मौकापरस्त पलते हैं.

किसी मंत्री या सांसद को ले लीजिए, इसकी संभावना 90 फीसदी है कि उसके पिता, भाई, पत्नी, बेटे-बेटी, साले-बहनोई कोई न कोई एमएलए, एमएलसी, जिला या जनपद पंचायत अध्यक्ष और कुछ नहीं तो संगठन में ही कोई पदाधिकारी निकलें. बहुत मुमकिन हैं कि सब के सब किसी न किसी कुर्सी पर धरे हों और यह भी कि कुछ अंडे-बच्चे एक पार्टी में हों और कुछ दूसरे दलों में भी. भारत की तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी सिद्धांत और विचारधारा एक बोगस अवधारणा है. वे किसी कुशल वैज्ञानिक की तरह यह अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें कब किसी दल के निकट आना है, कब कितनी दूरी बनाए रखनी है और टिकट या पद का सही सौदा किस समीकरण से होगा?
राजनीति का दूसरा पाठ है, 'अवसर अहम है, विचार नहीं.'

 उत्तर प्रदेश में नेताओं की खराब छवि, भ्रष्टाचार, आपराधिक पृष्ठभूमि, दबंगई, माफिया, रईसी रहन-सहन को लेकर कोई खास बेचैन नहीं मिलेगा. गोंडा जाएंगे तो आम मतदाता बसपा नेता अजय प्रताप सिंह उर्फ लल्ला भैया की तारीफ में कसीदे गजब के काढ़ेंगे. इन साहब की खासियत बताई जाएगी-हमेशा साथ रहने वाली वीआईपी नंबरों की महंगी बड़ी गाडिय़ों की आकर्षक कतार और एक ब्रीफकेस सहित परछाईं की तरह साथ चलने वाला एक चम्पू. इस ब्रीफकेस में होते हैं वीआईपी नंबरों वाले महंगे और लेटेस्ट मॉडल के ढेर सारे मोबाइल फोन, जो लल्ला भैया कभी नहीं उठाते. वे कॉलबैक कराते हैं. घरवालों के लिए अलग नंबर, बस्तीवालों के लिए अलग, दोस्त-यारों के लिए अलग, पार्टी वालों के लिए अलग, लखनऊवालों के लिए अलग, दिल्लीवालों के लिए अलग.
 राजनीति का तीसरा पाठ, ‘रसूखदारी में सादगी फिजूल है.’

तीन दफा एमएलए रहे लल्ला भैया राजनीति की असल कसौटियों पर खरे हैं. इन्होंने सियासत के ऊपर वर्णित सारे पाठ अव्वल दर्जे में पास किए हैं. मुलाहिजा फरमाइए-पिछले चुनाव में वे मतदाताओं के बीच मौजूद ही नहीं थे. ड्राइवर की हत्या के मामले में जेल में बंद थे. वे तब बसपा में भी नहीं थे. जेल की हवा खाते हुए ही कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीता था. लेकिन सबसे पहले वे निर्दलीय जीते थे. ताकत दिखी तो उनके लिए पार्टियों के दरवाजों पर वंदनवार सजने ही थे. वे भाजपा में गए.

2008 में बसपा उन्हें बेहतर लगी और बहनजी की जय-जयकार करने लगे. राजनीति में वे अकेले क्या करते? एक से भले दो. सो उनकी बहन कर्नलगंज से बसपा की एमएलए हैं. यह वही गोंडा है, जहां के मशहूर कवि अदम गोंडवी ने चंद महीनों पहले ही मुफलिसी के बीच दम तोड़ा. सरकार क्या खाक करती? लल्ला भैया ने एक लाख की मदद हाथों-हाथ दी और हर महीने तीन हजार रुपये अदम के घरवालों को देने का फैसला सुनाया.
 राजनीति का चौथा पाठ, 'सियासत बेरहम है पर नेता में रहम दिखना जरूर चाहिए.'   

लखनऊ में उस दिन समाजवादी पार्टी के मुख्यालय पर भारी हलचल थी. यह एक खास दिन था. लखनऊ के पुराने तजुर्बेकार पत्रकार और नेशनल न्यूजरूम में मेरे एडिटर शरद गुप्ता मुझे खचाखच भरे उस सभागार में लेकर गए, जहां मुलायम सिंह यादव अपने किसी भाई-बंधु के साथ पार्टी का घोषणापत्र जारी कर रहे थे. यह एक लंबा और बेहद उबाऊ सत्र था, जिसमें वे संविधान के हर अनुच्छेद की तरह एक-एक घोषणाएं पढक़र सुनाते हुए वेदों की ऋचाओं की तरह उनके अर्थ भी समझा रहे थे. उस सभागार में मौजूद उत्तर प्रदेश के मीडियावालों के लिए शायद यह अटपटा न लगा हो लेकिन जैसे ही मैंने सुना कि अगर सपा सत्ता में आई तो वह कब्रिस्‍तानों की हिफाजत भी करेगी, मेरा दिमाग ठनका.

अंदर जाने के लिए दबाव बना रही नेताओं की भीड़ सत्ता में संभावित बदलाव का ही इशारा कर रही थी. राम मनोहर लोहिया का अनुयायी एक बुजुर्ग समाजवादी अपनी खस्ताहाल सेहत और पकी उम्र में लगातार दूसरी चुनावी हार का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. उसके लिए जरूरी था कि वह हर मुमकिन और नामुमकिन दांव खेले. मुलायम सिंह यादव यही कर रहे थे. कब्रिस्‍तानों की हिफाजत से लेकर, आतंकी घटनाओं में गिरफ्तार उत्तर प्रदेश के मुस्लिम युवाओं को बाइज्जत जेल से बाहर लाने और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को 18 फीसदी आरक्षण के खतरनाक लतीफे सुनकर मैं उस भीड़ भरे हॉल से बाहर निकला.

जिन मुस्लिमों के लिए सपा लुभावने वादों का नया पुलिंदा लेकर आई थी, इस्लाम ने उनके पुरखों को सामाजिक बराबरी की हैसियत के वादे पर ही बीती सदियों में बड़े जोश से गले लगाया था. मुल्क के तीन टुकड़े होने के बाद वे सवा सौ करोड़ की आबादी में 18 फीसदी थे. यह देखना अजीब था कि सदियों बाद वे अपनी उसी मूल दलित पहचान के साथ नौकरियों में आरक्षण की उम्मीद लिए सपा जैसी पार्टियों के दरिद्र मोहरे बनकर सामने थे. जिस ऊंच-नीच और भेदभाव से निजात पाने के लिए सूफियों की संगत (तलवार का जोर न सही) उन्हें एक ऐसी आक्रामक विचारधारा में उड़ा ले गई थी, जहां इंसानों को बराबरी का दर्जा था. जहां कोई छोटा-बड़ा नहीं था. सब एक ईश्वर के बंदे थे.

सदियों बाद भी बराबरी का ख्वाब हकीकत से उतना ही दूर था. घोषणापत्र सिर्फ आज के जमाने में राजनीतिक दलों का ही शिगूफा नहीं थे. बहरहाल, सपा का घोषणापत्र भी ऐसे ही वादों से भरा पड़ा था और कोई ताज्जुब नहीं कि मुस्लिम इन पर फिदा होने के लिए थोक में तैयार बैठे थे. आतंकी घटनाओं की जांच-पड़ताल में सामने आए उत्तर प्रदेश के मुस्लिम नौजवानों के मामलों में अदालती फैसले का इंतजार किए बगैर मुलायम का मानना था कि वे सब बेकसूर हैं और उन्हें जबरन फंसाया गया है.
 राजनीति का पांचवां अहम पाठ, 'सत्ता सर्वोपरि है. शक्ति का अंतिम केंद्र. इसके लिए सब कुछ दांव पर लगा दीजिए.'

गरीबी, बेरोजगारी, सामंतशाही, भ्रष्टाचार की भयावह चपेट वाले इस प्रदेश में दो बड़ी पार्टियों में से एक के पास इस बीमार राज्य को सेहतमंद बनाने की कोई और बेहतर तरकीब नहीं थी. दरअसल वे हमसे बेहतर जानते थे कि उनके वोटर क्या पसंद करते हैं? क्या चीज उन्हें ईवीएम पर साइि‍कल के सामने वाले बटन को दबाने के लिए मजबूर कर देगी. बेशक इसमें विकास की बड़ी योजनाएं, शिक्षा के प्रसार और शहरों में उबलती आबादी को काबू में लाने जैसी जरूरी बातें करना खतरे से खाली नहीं था.
 राजनीति का एक कटु सबक यह भी है, 'जैसी जनता, वैसे नेता.'

बहनजी की बहुजन समाज नाम की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने ऐसा कोई लतीफा सुनने का मौका दिया ही नहीं. पिछले चुनाव की तरह इस बार भी वे चुटकुलों की किताब यानी पार्टी मेनीफेस्टो लेकर नहीं आईं. लेकिन मैं उस पार्टी के दफ्तर को जरूर देखना चाहता था, जिसकी सुप्रीमो ने लाल पत्थरों से बने मेगा पार्कों का सल्तनत कालीन करिश्मा लोकतंत्र में कर दिखाया था. वो भी सिर्फ पांच साल के कम वक्त में.

मायावती 39 साल की उम्र में 1995 में उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं थी. वे देश के सबसे बड़े राज्य की सबसे युवा मुख्यमंत्री थीं. पिछले चुनाव यानी 2007 में दो तिहाई बहुमत उन्हें मिला था. चौथी बार शपथ के बाद मायावती ने वाकई राज ही किया था. पूरी ताकत से एकछत्र राज. पार्टी मुख्यालय का रुख करने से पहले लखनऊ में मैं बहुजन समाज प्रेरणा केंद्र के एक परिसर में गया. जीता-जागता मायावती का भव्य मंदिर. 4370 वर्गमीटर में खड़ी मिर्जापुर के लाल पत्थरों की शानदार इमारत.
 

प्राचीन शिलालेखों की तर्ज पर एक भारी-भरकम शिलालेख पर लिखा था, 'बहन कु. मायावती की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में निर्मित यह इमारत आने वाले समय में इतिहास के पन्नों पर अपनी गौरवशाली उपस्थिति दर्ज कराती रहेगी.' डॉ. आंबेडकर और कांशीराम के साथ मायावती की विशाल मूर्तियां. धातु के म्युरल्स. एक संग्रहालय, जिसमें मायावती की जिंदगी से जुड़े कई प्रसंगों को उकेर दिया गया था. आजाद भारत के इतिहास में अमर होने की उन जैसी जल्दबाजी शायद ही किसी और चुने हुए नेता ने खुद कहीं दिखाई हो. यह कुछ ऐसा ही था जैसे मायावती खुद अपने हाथों से अपने गले में मालाएं पहनें. अपने कंठ से अपनी ही स्तुति गाएं. मान्यवर कांशीराम के कारण जाग चुकी एक सोती हुई कौम इतने में ही खुश थी कि उसे तालियां पीटने का जरूरी काम मिल गया था.

एक विशालकाय फ्रेम में दर्ज किया गया कि मान्यवर कांशीराम ने 2001 में कु. मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया. बिल्कुल पुरानी सदियों के किसी महान राजवंश के पुरातात्विक शिलालेख की तरह. इस केंद्र के अलावा उनके घर उनकी पार्टी के दफ्तर और गोमती के किनारे बने आलीशान पार्क देखकर मुझे मौर्य सम्राट अशोक के सांची-सारनाथ, मुगल बादशाह अकबर के फतेहपुर सीकरी और शाहजहां के ताजमहल जैसे मेगा प्रोजेक्ट याद आए. वे अपना जन्मदिन जनकल्याणकारी दिवस के नाम से मना रहीं थीं. इस मौके पर उनके गले में पहनाई जाने वाली हजार-पांच सौ रुपये के कड़क नोटों की वजनदार मालाएं लोगों ने देश भर में देखीं. सैंडिलों में झुकने वाले बिना रीढ़ के अफसर भी उनकी ताकत का अहसास कराते थे.

पार्टी दफ्तर पहुंचकर मैंने खुद को किलेनुमा एक विशाल दरवाजे के सामने पाया. 15 फुट ऊंची चमचमाती सुरक्षा दीवारों से घिरा एक रहस्यमय परिसर. गेट पर मिले गिनती के तीन लोग. अंदर हर तरफ सन्नाटा पसरा था. चंद लोगों की खामोश चहल-पहल. सत्ता से बुरी तरह सफाए के बाद दिखाई देने वाले पार्टी दफ्तरों की तरह मायूस. बिल्कुल बे-रौनक. यह बहुजन समाज पार्टी का मुख्यालय है-12, माल एवेन्यू, लखनऊ. पता चला कि प्रदेशाध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य तक कभी-कभार ही यहां आते हैं. मायावती उससे भी कम. इस वक्त कोई नहीं था. बाहरी लोगों के लिए घुसना तक मना था.

देश के सबसे प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव वाले सूबे में सत्ता में बैठे सबसे ताकतवर दल ने क्या हार मान ली थी? आखिर ऐसा मातम यहां क्यों छाया हुआ था? भले ही चुनाव के नतीजे उलट रहे हों मगर सत्तारूढ़ पार्टियों के मुख्यालय और नेताओं के घरों के आसपास रौनक हमेशा ही सबसे ज्यादा रहती है. बुझने के पहले दीए की लौ भी आखिरी बार तेजी से भडक़ती है. मगर बसपा का चुनावी अंदाज हमेशा से यही रहा है. आप उनके पार्टी दफ्तरों की चहल-पहल से कोई अंदाजा नहीं लगा सकते. यहां दूसरी पार्टियां पसीना बहा रही थीं. जितना बहा रही थीं, उससे ज्यादा बता रही थीं. बसपा में क्या चल रहा था, कोई नहीं जानता था. बैठकें, रैली, सभा, संपर्क, प्रचार, घोषणापत्र कुछ नहीं. मीडिया से परहेज. दफ्तर के गेट पर मौजूद कार्यकर्ता राजा गौतम ने कहा, 'आप 6, कालिदास मार्ग पर मौर्य साब से मिलने की कोशिश कीजिए. वे वहीं रहते हैं. यहां किसी को कुछ नहीं पता.'

मौर्य भले ही प्रदेश प्रमुख हों, लेकिन मायावती के इशारे के बिना बसपा में पत्ता नहीं हिलता. मौर्य भी मिलने को राजी नहीं थे. आप जो चाहें लिखें. पिछली बार दो तिहाई बहुमत मिला तो मायावती पहले से भी ज्यादा दुर्लभ हो गईं थीं. न सिर्फ जनता से बल्कि पार्टी पदाधिकारियों व आला अफसरों से भी. एक वरिष्ठ अफसर ने बताया, 'वे अपनी सुरक्षा को लेकर कुछ ज्यादा ही सजग हैं. मंत्रियों और प्रमुख सचिवों तक का मिलना भी मुश्किल है.' मायावती के निकट सिर्फ कै‍बिनेट सेक्रेटरी  शशांक शेखर सिंह और मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे चंद लोग ही जा पाते थे. तीसरे, बाबूसिंह कुशवाहा थे, जिनके जरिए दूर-दराज से लखनऊ आए पार्टी पदाधिकारी बहनजी के दर्शन की गुहार लगाया करते थे. घोटालों के चलते कुशवाहा बाहर हुए तो गंभीर आरोपों से घिरे नसीमुद्दीन भी दहशत में आ गए.

पार्टी की एक बैठक की एक दिलचस्प खबर पढ़ने में आई. एक अखबार में छपा कि नसीमुद्दीन इतने भावुक हुए कि आंसू छलक आए. वफादारी दिखाने के लिए अपने बेटे को भी साथ लाए. सौगंध खाकर कहा कि मैं ही नहीं-मेरी औलाद भी बहनजी की खिदमत में ताजिंदगी बने रहेंगे. बुंदेलखंड में बांदा मूल के नसीमुद्दीन बसपा में बचे रहे. इसे सियासत के एक और जरूरी सबक की तरह लिया जाए कि दमदारों के साथ दुमदार वफादारों की जरूरत भी हर किसी बड़े नेता को होती ही है.

नसीमुद्दीन की दहशत बेवजह नहीं थी. यह मायावती का अंदाज है कि उनके आगे सबकी औकात ठेठ सुल्‍तानों और बादशाहों के बेरहम दरबार में कुत्तों से बदतर काफिरों जैसी हो. बहनजी ने हाल ही में एक झटके में 110 विधायकों के टिकट काटे थे. 20 मंत्रियों को कुर्सियों से उतारकर चलता कर दिया था. टिकट से वंचित किए गए एक मंत्री अवधेश वर्मा को रोते-बिलखते एक तरह से मातम मनाते हुए पूरे देश ने कुछ ही दिनों पहले टीवी स्क्रीन पर देखा था.
 पार्टी मुख्यालय के पीछे 20 फुट ऊंची चारदीवारी के भीतर बहनजी के निजी निवास तक फटकने की हिम्मत न नेताओं की थी, न अफसरों की. वे प्रेस से मिलती थीं पर खुद तय किए मौके और वक्त पर. उन्हें सवाल तो सख्त नापसंद थे. लिखे हुए बयान से आगे-पीछे एक शब्द नहीं. उन्होंने सालों पहले गिने-चुने इंटरव्यू ही दिए.

लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार जगदंबा प्रसाद शुक्ला को जून 1995 का वह साक्षात्कार याद था, जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं. शुक्ला ने कहा, ‘बीते पांच सालों में वे पहली ऐसी भी मुख्यमंत्री बनीं, जो जनता से बिल्कुल कट गईं. उन तक किसी की पहुंच आसान नहीं रही.’ जिस उम्र में लोग एक अदद बेहतर नौकरी और मजे से घर बसाने के बारे में फिक्रमंद होते हैं, उस उम्र में मायावती कांशीराम से जुड़ीं. सामाजिक बदलाव का जोशीला नारा. मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ तीखे तेवर. दलितों के हक में बेहद आक्रामक. आरंभिक उद्घोष-‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.’

सत्ता हासिल करने के बाद पर्वतों से भी ऊंचा अहंकार. सामाजिक असमानता को खत्म करने के लिए कुछ खास कोशिश नहीं. सिर्फ भावनात्मक उभार से वोट बैंक खड़ा किया. एक दलित घर में पैदा होने का दंश दौलत की अंतहीन चाहत मिटा सकती है बशर्ते आप ऐसा कुछ करने की हैसियत में हों. मायावती के लिए अब कुछ भी नाममुकिन नहीं था. इसका सबूत है, उनकी निजी मिल्कियत जिसका आंकड़ा उनके ही बताए अनुसार 87 करोड़ रुपये है. 2007-08 में वे देश के 20 बड़े आयकरदाताओं में शुमार थीं. सिर्फ तीन साल में 52 करोड़ की संपत्ति 87 करोड़ की हो गई. राजनीति एक ऐसा कारोबार है, जिसमें बगैर किसी आर्थिक निवेश के अपना सिक्का नहीं, अपनी टकसाल चलाने के भरपूर मौके हैं.

मायावती बचपन में शैतान थीं. स्कूल में पढ़ती थीं. सामने की पहली ही सीट पर बैठती थीं. एक बार देर से स्कूल पहुंची. देखा कि कोई और लडक़ी उनकी सीट पर बैठी है. उसे हटाया. स्लेट मारी. खून निकला. डर के मारे भाग गईं. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि जब वे दिल्ली के इंद्रपुरी में रहती थीं. उनके घर में बाथरूम नहीं था. घर में भैंस पाली हुई थीं. उनके दादा सेना से सेवानिवृत्त हो चुके थे. मोतियाबिंद के कारण देख नहीं सकते थे. दादाजी के दिशा मैदान के लिए सारे भाई-बहनों की ड्यूटी लगती. माया भी उन्हें मैदान तक ले जातीं. एक बार मायावती की स्थाई तैनाती दादाजी की सेवा में हो गई. बाकी भाई-बहन मुक्त हो गए. माया को यह बात बेहद नागवार गुजरी. गुस्सा दादाजी पर उतरा. वे एक दिन उन्हें लेकर गईं और जंगल में छोडक़र चली आईं.

शुक्ला मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के दलितों की हालत में ज्यादा सुधार बहुजन समाज पार्टी की बदौलत नहीं आया. न ही पार्टी के सत्ता में आने से या मायावती के मुख्यमंत्री बनने से ही उनका कल्याण हुआ. दलितों को सबसे ज्यादा फायदा तो 1975 के बाद ही हो गया था, जब उन्हें जमीन के पट्टे मिले. इससे भूमिहीन दलित न के बराबर रह गए. कम से कम घर बनाने लायक जमीन का टुकड़ा सबके हिस्से में आया.

बसपा के उभार से बड़ा बदलाव यही आया कि समाज में विभाजन हो गया. वे राजनीतिक रूप से जागरूक एक बड़े वर्ग के रूप में सामने आए, जो सरकार बनाने और गिराने की हैसियत रखता है. मायावती के राज में दलित अफसरों की जरूर चांदी कटने लगी. कांशीराम ने कभी सरकारी तंत्र के दलित कारिंदों के बीच ही अपनी मुहिम शुरू की थी. मायावती के एकछत्र राज में कांशीराम के जमाने के बसपा के कई पुराने साथी या तो दरकिनार हो चुके हैं या कहीं अपनी अलग पार्टी बनाकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराए हुए हैं. जैसे-आरके चौधरी. पुराने वकील. पासी समाज के नुमाइंदे. अपनी अलग पार्टी बनाकर सक्रिय हैं.

लखनऊ की सियासी गहमागहमी से होकर मेरा चुनावी सफर भी शुरू हुआ, जो करीब डेढ़ महीनों तक चलने वाला था. इस दौरान मुझे करीब 25 शहरों में रुकना था और सौ-सवा सौ सीटों से होकर गुजरना था. खास मुकाबले, विवादास्पद या नामी नेताओं के इलाके देखने थे. लखनऊ होकर मैंने मुस्लिम वोट बहुल पूर्वांचल की तरफ कूच किया.

सीतापुर से बहराइच के रास्ते में मुझे बचपन में पढ़े इतिहास का कोई पन्ना याद आया. एक शब्द पर ध्यान अटका-‘गंजे शहीदां.’ सालों पहले मैंने अयोध्या की किसी यात्रा में इसकी तलाश वहां की थी लेकिन वहां इस नाम की जगह के बारे में कोई नहीं जानता था. यह जगह थी यहां बहराइच में, जहां मैं दो-एक दिन बिताने वाला था.

यह इतिहास की एक बड़ी लड़ाई का मैदान रहा था. सालार मसूद गाजी यहीं मारा गया था. महमूद गजनवी का भांजा. महमूद ने भारत पर 17 हमले किए थे. शुरुआती हमलों में यही इलाका कई सालों तक लुटता-पिटता और तहस-नहस होता रहा था. यह एक ऐसी आसान शिकारगाह थी, जहां उसकी फौजें अक्सर बेफिक्री से आया करती थीं. यहां के संपन्न शहरों और सोने-चांदी से लदे मंदिरों ने हमलावरों की दाढ़ में जैसे खून लगा दिया था.

ऐसे ही एक सालाना शिकार के लिए सालार मसूद भी यहां आया. श्रावस्ती के राजा सुहैलदेव ने 17 हिंदू राजाओं की संयुक्त सेना के साथ पूरी तैयारी से उसका मुकाबला किया. किन्हीं शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती ने 1682 में ‘मीरअत-ए-मूसदी’ नाम का एक दस्तावेज लिखा था. इसका जिक्र इतिहासकार ठाकुर प्रसाद वर्मा और स्वराज प्रकाश गुप्त की उस किताब में था, जो उन्होंने अयोध्या के इतिहास और पुरातत्व पर लिखी थी.

शेख के मुताबिक मसूद महमूद गजनवी की बहन मौला का बेटा था. ईरान मूल के उसके बाप का नाम सालार साहू था. सोमनाथ पर हमले के वक्त 12 साल का मसूद भी साथ में था. सोमनाथ की जीत के पांच साल बाद मसूद ने अपने पिता की फौज के साथ हिंदुस्तान का रुख किया था. मसूद ने ही मुलतान के हिंदू राजा अनंगपाल को हराया. फिर दिल्ली के महिपाल से लड़ता हुआ मेरठ और कन्नौज की तरफ बढ़ा. मेरठ और कन्नौज के राजाओं ने उससे समझौते किए. अयोध्या पर कब्जा करते हुए 14 जून 1033 के दिन बहराइच के सूर्य मंदिर तक जा पहुंचा. सीधी लड़ाई में मसूद की मौत सुहैलदेव के ही हाथों हुई.

ढाई हजार साल पहले श्रावस्ती की गिनती बौद्ध इतिहास में बड़े और संपन्न शहरों में थी, जहां गौतम बुद्ध ने सबसे ज्यादा वक्त बिताया था. उनके सबसे ज्यादा प्रवचन यहीं हुए. बहराइच और श्रावस्ती आसपास हैं. तुर्की, अफगान और मुगल शासकों के खिलाफ हुई भारतीयों की तमाम लड़ाइयों में बहराइच की जंग इतिहास में एक अलग और चमकदार जगह रखती है, जिसके बारे में आम भारतीयों को न के बराबर जानकारी है. आरपार और सबक सिखाने की लड़ाई के लिए पहले से तैयार सुहैलदेव के मुकाबले में सालार मसूद की आदतन बेफिक्र फौज टिक नहीं सकी. उसके साथ उसके सारे प्रमुख सरदार यहां मारे गए. कहते हैं कि एक भी आदमी नहीं बचा था, जो गजनी जाकर यह बुरी खबर महमूद को सुनाए कि सब मारे गए. सारे ही मारे गए.

जिस जगह इनकी कब्रें बनीं वह गंजे-शहीदां कहलाती है. शहीदों का गंज. इस्लाम के लिए लड़ते हुए मारे गए गाजियों की कब्रगाह. अब यह किसी हमलावर लुटेरे की बदनाम कब्र नहीं बल्कि एक सूफी संत की दरगाह की शक्ल में सामने थी. मैंने इब्नबतूता की डायरी में पढ़ा था कि वर्तमान उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, अमरोहा और कन्नौज की यात्रा के दौरान इब्नबतूता भी इस कब्र को देखने आया था. गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में भी इसका जिक्र किया.
 

 यह चहल-पहल से भरी एक दरगाह थी, जहां हर साल लाखों लोग आते हैं. जेठ के महीने में एक मेले की पुरानी पंरपरा थी. दूर-दूर से लोग यहां आकर शिरकत करते हैं. मुझे बताया गया कि इन श्रद्धालुओं में 80 फीसदी हिंदू होते हैं. मैं जिस सुबह दरगाह पर पहुंचा, मैंने देखा कि कई हिंदू परिवार अपने बच्चों के मुंडन यहां करा रहे थे. ये गांवों के लोग थे. मन्नत पूरी होने पर लोग हिंदू तीर्थों की तरह यहां भी मुंडन कराने आते थे. खुर्शीद अनवर रिजवी 20 साल से दरगाह के प्रबंधक हैं. इंतजामिया कमेटी के मातहत करीब सवा सौ कर्मचारी इस दरगाह की देखभाल के लिए तैनात हैं. उनसे मेरी मुलाकात कमेटी के दफ्तर में हुई.

रिजवी ने बताया, ‘सालार मसूद के खिलाफ एक ही बात थी और वो ये कि वे महमूद गजनवी के भांजे थे. उन्होंने दलील दी कि यह तो आधी हकीकत थी कि वह महमूद के रिश्ते में था. दूसरा सच यह भी था कि वह महमूद के दरबार से बेदखल था, क्योंकि महमूद की नीतियों से वह सहमत नहीं थे. अहमद हसन महमंदी, महमूद के वजीर थे और मसूद के मुखालिफ थे, क्योंकि मसूद स्पष्ट वक्ता थे. यह बात उनके खिलाफ जाती थी. अब उनके सामने विकल्प थे कि या तो मक्का-मदीना चले जाएं या अपने लिए कोई और ठिकाना तलाश करें. चूंकि अजमेर उनका जन्म स्थान था. इसलिए वे हिंदुस्तान से मुहब्बत करते थे. उन्होंने अपने लिए यही इलाका चुना.’ रिजवी के पास इस सवाल का कोई तार्किक जवाब नहीं था कि अविवाहित सालार मसूद भारी-भरकम फौज के साथ यहां क्या करने आए थे?

उस जंग के करीब चार सौ साल बाद मसूद की मूल कब्र की पहचान फिरोजशाह तुगलक ने कराई और उसे दरगाह की शक्ल दे दी. इस्लामिक प्रभाव में आने के पहले इस इलाके पर सदियों से बौद्ध धर्म का बोलबाला था. रिजवी के मुताबिक यहां समाज का निचला तबका बेहद दबी-कुचली हालत में था. ऊंची कौम के लोग उन पर जुल्म करते थे. उन्हें इंसानियत का दरजा तक नहीं था. मेरठ से कन्नौज तक के ठाकुर यहां टैक्स वसूलते थे. तुर्कदंड के नाम से यह टैक्स कुल कमाई का आधा हिस्सा हुआ करता था. रिजवी ने बताया कि इन्हीं ठाकुर जागीरदारों ने सैयद सालार मसूद के लिए हुकूमत ऑफर की. मसूद के पिता बाराबंकी में रुक गए. उनकी कब्र वहीं है. गजनी से सिंध, कश्मीर, मेरठ, मुरादाबाद, पीलीभीत होकर वह इस तरफ आए थे. सुहैलदेव ने महमूद के नाम पर मसूद के खिलाफ इस इलाके के ठाकुर जागीरदारों को इकट्ठा किया. इस जंग में मसूद यहां ‘शहीद’ हुए.

हैरत की बात है कि यहां आने वालों को इस इतिहास का कोई इल्म तक नहीं था. न हिंदुओं को, न मुसलमानों. उनके लिए यह सिर्फ मन्नत मांगने और मन्नत पूरी होने की जगह है. कौन यहां दफन है, कहां से और क्यों यहां आया था, इसकी जानकारी एक फीसदी लोगों को भी नहीं है. उनके लिए यह गाजी मियां की दरगाह है. गाजी, जो इस्लाम के लिए लड़े. शहीद, जो इस्लाम की बुलंदी की खातिर लड़ता हुआ मारा जाए (जन्नत की गारंटी के साथ). रिजवी के साथ मुलाकात के बाद मैं दरगाह के भीतर गया. दो मौलवी वहां थे. कब्र के पास जाते ही वे आगंतुकों से उनका नाम पूछते और कब्र की तरफ मुखातिब होकर दुआ मांगते. यह बिल्कुल हिंदू मंदिरों की उस प्राचीन परंपरा जैसा था, जहां पुरोहित आपसे पूजा-अभिषेक के पहले नाम और गोत्र पूछते हैं. भारत के लचीले सामाजिक और समावेशी परिवेश में सब ऐसे ही चलता है.

प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. एसके भट्ट ने बताया, ‘श्रावस्ती-बहराइच बौद्ध प्रभाव वाला इलाका रहा था. इस्लाम भले ही यहां गजनवी और मसूद जैसे अनगिनत हमलावरों के साथ दाखिल हुआ, लेकिन बाद में इस्लाम पर बौद्ध धर्म का असर भी गहरा रहा. सालार मसूद की कब्र पर सालाना उर्स की परंपरा इसका सबूत थी, जिसे इस्लाम विरोधी होने की दलील पर सिकंदर लोदी ने सख्त रोक लगा दी थी. वह इस परंपरा में हिंदुओं की मूर्तिपूजा के प्रभाव से नाखुश था.’ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से प्रकाशित किताब ‘स्टडी इन इस्लामिक कल्चर इन इंडियन एनवायरमेंट’ में अजीज अहमद ने भी इस बात की पुष्टि की है कि सालार मसूद की दरगाह पर होने वाले जलसों पर सिकंदर लोदी ने प्रतिबंध लगा दिया था. राजा सुहैलदेव की ऐतिहासिक जीत इतिहास के हाशिए पर थी. चौबीस कैरेट की ऐसी कई चमकदार चीजें भारत के इतिहास के कूड़े-कबाड़ में थीं.

 बहराइच से निकलकर मैं श्रावस्ती की तरफ बढ़ा. रास्ते में एक प्राचीन मंदिर के खंडहर देखे. वहां लगे पुरातत्व विभाग के एक साइन बोर्ड से पता चला कि यह जैन तीर्थंकर संभवनाथ का जन्म स्थान है. पकी हुई ईंटों से बने शानदार स्मारकों में से एक. लेकिन यहां सदियों पुराने वाकए हैं. तब से यह इलाका इतिहास की अनगिनत सुनामियों के धक्के झेलते हुए बाहर निकला था. इसकी शक्लें कई बार बदली थीं. पहचान की कई परतें थीं. भूली-बिसरी असल पहचान इन्हीं परतों में कहीं छिपी थी.

मेरा अगला पड़ाव आजमगढ़ बदली हुई ऐसी ही एक और शक्ल का एक नमूना था. बदकिस्मती से देश में पिछले कुछ सालों में हुई आतंकी घटनाओं में पहचाने और पकड़े गए कई मुस्लिम युवा इसी इलाके के थे और जांच-एजेंसियों द्वारा सामने लाए गए तथ्यों ने मीडिया को इसका नया नाम गढ़ने का मौका दे दिया था-आजमगढ़ यानी आतंक की नर्सरी. किसी भी शहर के लिए एक शर्मनाक तोहमत. मुझे आजमगढ़ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के हालात पर कुछ लिखना था. मगर इस शहर की कुछ उजली पहचानें भी थीं. यायावर रचनाकार राहुल सांकृत्यायन, जो तिब्बत के दुर्गम इलाकों से कई बेशकीमती किताबें और बौद्ध भिक्षुओं की पारंपरिक पोशाकें खोजकर लाए थे. पटना म्‍यूजियम में इनकी अलग गैलरी है, जो मैं पहले देख चुका था. इस्लाम के विद्वान अल्लामा शिबली नोमानी और मशहूर शायर कैफी आजमी यहीं के थे.

इतिहास ने यहां भी कई कातिल करवटें ली थीं. आजमगढ़ 1665 में किन्हीं आजम शाह द्वारा बसाया गया था. आजम शाह के पिता हिंदू थे. नाम था विक्रमाजीत. उस दौर के आम रिवाज की तरह अपनी रियासत बचाए रखने की सौदेबाजी या जान बचाने की खातिर विक्रमाजीत के परिवार ने इस्लाम कुबूला था. इस इलाके में इस वक्त सामने था आलीशान मस्जिदों, मदरसों और मकबरों का जबर्दस्त नेटवर्क. बेहद पिछड़े इस इलाके के किसी गांव या कस्बे की सबसे शानदार इमारत या तो मस्जिद होगी, दरगाह, मकबरा या फिर कोई मदरसा.

शिबली नोमानी के दादा पास के बिंदवल गांव के थे. पुश्तैनी जमींदार. नाम था शिवराज सिंह. उन्हें भी इस्लाम कुबूल करना पड़ा था. हर बार हमलों और लूट के बाद गले पड़ने वाली गुलामी से ही कोई मजहब नहीं बदलता था. वजहें दूसरी भी हो सकती थीं. मसलन लालच या मजबूरी या कोई अविश्वसनीय सी जिद. जैसे इन शिवराज के बारे में मुझे बताया गया कि वे एक बार रसोई घर में जूते पहनकर दाखिल हो गए थे. उनकी भाभी ने गुस्से में कहा कि तुर्क हो गए हो क्या?

क्षत्रिय आन-बान-शान मायने रखती थी और तुर्क कहलाने से बड़ी बेइज्जती क्या हो सकती थी? शिवराज को यह बात चुभ गई. मुसलमानों के लिए हिंदुओं में तुर्क एक प्रचलित अपमानजनक संबोधन था, जिनके लिए नैतिकता या पवित्रता बेमानी थी. तुर्क, जो कुछ भी खा सकते थे. किसी को भी मार सकते थे. किसी को भी जलील कर सकते थे. गुस्से में आकर वे वाकई तुर्क यानी मुसलमान हो गए.

समाजवादी पार्टी ने इमाम बुखारी को पैरवी के लिए लाकर मुस्लिम वोटों में मची खींचतान बढ़ा दी थी. आजमगढ़ समेत करीब सारे मुस्लिम बहुल इलाके हर जगह बेहद पिछड़े थे, लेकिन उनकी जमीन पर नेताओं और पार्टियों की हरी-भरी फसलें खूब लहलहा रही थीं. इस दफा भाजपा को छोड़कर तीनों प्रमुख पार्टियों ने सवा दो सौ मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट थमाए थे. पहली बार करीब एक दर्जन मुस्लिम पार्टियां अलग से मैदान में थीं. सरकारी नौकरियों में 4.5 से लेकर 18 फीसदी आरक्षण समेत तमाम वादे दोहराए जा रहे थे.

किसी भी सूरत में बसपा को सत्ता से बेदखल करने को बेचैन तीन दफा मुख्यमंत्री रह चुके मुलायम सिंह मुस्लिम बहुल जिलों में कॉलेज खोलने से लेकर कब्रिस्तानों की जमीनों की हिफाजत तक का जिम्मा ले चुके थे. कांग्रेस सच्चर कमेटी की सिफारिशों के नाम पर अपनी पीठ थपथपा रही थी. भाजपा मजहबी आरक्षण के खुलकर खिलाफ थी तो बसपा ने सबसे ज्यादा 84 टिकट देकर चुप्पी साधे रखी थी. मुसलमानों की पार्टियां इन सबकी पोल खोलते हुए अपनी मजहबी जमीन तैयार करने में लगी थीं.

 2007 में 57 मुस्लिम विधायक बने थे. पिछले दस सालों में 16 मंत्री भी बने. मुलायम सिंह सरकार में 11 और मायावती सरकार में 5 मंत्री. मायावती के तीन मंत्री ऐसे भी थे, जो मुलायम के समय भी मंत्री रहे थे. यानी दस साल लगातार लालबत्ती में. लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार हिसाम सिद्दीकी का कहना था कि इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज तो छोडि़ए ये सारे नुमांइदे मिलकर भी पूर्वांचल की मुस्लिम आबादी में एक स्कूल तक नया नहीं खोल पाए. जमीनी हालात हर जगह खराब हैं.
  अब तक के वादों और दावों की हकीकत जानने के लिए ही मैं करीब 40 लाख आबादी वाले जिले आजमगढ़ में आया था. शिबली एकेडमी के सीनियर फेलो उमेर सिद्दीकी ने कहा, ‘मेरे दो बेटे सीए की पढ़ाई के लिए हैदराबाद में हैं. गांवों के गरीब मुसलमान दो हजार मदरसों के भरोसे हैं.’ बहराइच की 16 लाख आबादी में 35 फीसदी मुसलमान हैं. मुसलमानों की साक्षरता 30 फीसदी से भी कम है. देवरिया और बलिया में और भी कम है. नौजवानों के पास रोजगार के लिए महाराष्ट्र, पंजाब और दिल्ली की तरफ हिजरत के सिवा कोई रास्ता नहीं था.

आजमगढ़ के मिश्रित अतीत के किस्से सुनने के बाद मैं जानना चाहता था कि शिवराज के मुस्लिम वंशज और शिवराज के दूसरे भाई-बहनों के हिंदू वंशजों के इस समय क्या हाल हैं? क्या उनके बीच रिश्ते हैं? क्या उन्हें इस ऐतिहासिक सच के बारे में इल्म है? क्या कोई पाकिस्तान गया? एक शाम एकेडमी के कैम्पस में स्थित अपने घर में सिद्दीकी ने बताया कि दोनों खानदानों का खून एक है. उनके बीच ताल्लुक हैं. शिबली साहब के बेटे हुए हामिद नोमानी. इनकी कोई औलाद नहीं थी. शिबली साहब के दो भाई थे महदी हसन और इसहाक नोमानी. इनके बच्चे हुए. शिबली कॉलेज में केमिस्ट्री के रीडर डॉ. सलमान सुलतान शिबली के भाई की बेटी के बेटे हैं.

एकेडमी में गजब का काम हुआ था. इस्लामिक परंपरा से जुड़े बेशकीमती दस्तावेज जमा किए गए थे. किसी समय यहां की 22 एकड़ जमीन शिबली के दादा शिवराज की पुश्तैनी जमीनों में शुमार थी. 1914 में इसे एकेडमी को दे दिया गया. आज अरबी-फारसी की एक लाख किताबों का बेहतरीन जखीरा है. 700 हस्तलिखित पांडुलिपियां सबसे कीमती विरासत हैं. इनमें करीब 300 पांडुलिपियां ऐसी हैं, जो सिर्फ यहीं देखने को मिलेंगी. मसलन मुगल बादशाह शाहजहां की बेटी जहांआरा की लिखी किताब ‘मुनिसअलअरवा.’ इसका मतलब है, आत्माओं का साथी. यह सूफियों की चिश्ती परंपरा के बारे में 300 पेज का दस्तावेज है. ‘यह किताब खुद शिबली ने 1906 में कबाड़ी की एक दुकान से खरीदी थी. सिद्दीकी ने बताया, 1857 की अफरातफरी में भारी लूटपाट मची थी. पहले यह किताब दिल्ली के शाही किले में रही होगी. लेकिन शिबली साहब को मिली लखनऊ के नक्खाश बाजार में. उन्होंने उस जमाने में इसे सौ रुपये में खरीदा था. बाद में 1930 में यह पेरिस की प्रदर्शनी में भी रखी गई.’ सिद्दीकी ने कहा.

जहांआरा का झुकाव शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह की तरफ था, औरंगजेब की तरफ नहीं. वह शाहजहां का उत्तराधिकार दारा को देना चाहती थी. दोनों सूफियाना मिजाज के थे. दारा शिकोह ने उपनिषदों का एक अनुवाद ‘सिर्रेअकबर’ के नाम से कराया था. यह कॉपी भी एकेडमी में थी. अबुल फजल का ‘अकबरनामा’ ईरान दूतावास ने यहीं से लेकर उसे अलग अंदाज में छापा. महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू इस एकेडमी के सदस्य थे. वे आजादी की लड़ाई के दिनों में यहीं ठहरकर योजनाएं बनाते थे. सीरिया के अरबी विद्वान शेख अब्दुल फत्ता अबू गुद्दा 1986 में यहां आए थे. उन्होंने एकेडमी का जिक्र करते हुए लिखा कि मैं मोरक्को से इंडोनेशिया तक गया. कई इस्लामी इदारे देखे. मगर इल्म की स्टेट आजमगढ़ में पाई.

बहराइच से लेकर आजमगढ़ तक मैं अलग-अलग तबके के कई मुस्लिमों से मिला. सब एक सुर में शिकायतों से भरे मिले, ‘सरकारों ने आज तक मुसलमानों की तरक्की के लिए कुछ नहीं किया. बहराइच में आजादी के बाद एक भी कॉलेज नया नहीं खुला. बेहतर तालीम और तरक्की के लिए कोई बड़ा काम नहीं हुआ. नौकरी-रोजगार के लिए युवाओं के पास यूपी से बाहर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’राहुल गांधी ने नौजवानों की इस हालत को एक मुद्दा बनाने की कोशिश की थी. हालांकि उनके भाषणों में ऐसा कोई विजन नजर नहीं आ रहा था कि अगर लोग उन्हें जिता भी दें तो वे करेंगे क्या? बातों के सिवा उनके पास बताने को कुछ नहीं था.

 बिंद्रा बाजार नाम का एक कस्बा है. यहां विनय कटियार की सभा थी. कुर्मी समाज का यह नेता कभी बजरंग दल का मुखिया था. राम मंदिर आंदोलन से निकलकर उन्होंने अपनी राजनीतिक हैसियत कायम की थी. मगर अब वे कई साल पहले चल चुके एक जंग खाए कारतूस थे. एकदम बुझी हुई लालटेन. उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी का सूपड़ा-साफ था. राज्यसभा की सदस्यता और सुरक्षाकर्मियों की एक टुकड़ी के जरिये नेतागिरी बची हुई थी. सिर्फ जेड प्लस की सुरक्षा जैसी दिखावे की चीजें उनके राजनीतिक रूप से जिंदा होने की मेडिकल रिपोर्ट्स थीं. फर्जी और फिजूल.

उनका कितना असर बचा था, इसकी मिसाल बिंद्रा बाजार की चुनावी सभा में ही देखने को मिली. चार घंटे लेट आए कटियार को सुनने के लिए गिनती के चार सौ लोग मौजूद थे. इनमें से हेलीकॉप्टर को देखने के लिए घेरकर खड़े करीब सौ बच्चे सामने के मदरसे से आए थे. तबलीगी पहनावे वाले 14 साल के एक किशोर से मेरी मुलाकात यहीं हुई. उसने बताया कि उनके मदरसे में करीब एक हजार बच्चे हैं. तीन सौ बच्चे बिहार के सिर्फ अररिया जिले के हैं. इनमें से किसी को यह नहीं मालूम था कि यहां इस वक्त चुनाव हो रहे हैं. वे न विनय कटियार को जानते थे, न ही उनके यहां आने का मकसद. जनरल नॉलेज जीरो था. वे साल में बमुश्किल एकाध बार ही अपने घर जा पाते थे. बाकी का वक्त इस्लामी तालीम में कट रहा था और कोई नहीं जानता था कि ये आने वाले वक्त में क्या बनेंगे.

कुछ सवालों के साथ मैंने आजमगढ़ के पास संजरपुर का रुख किया. मैं शादाब अहमद के घर पहुंचा. मिस्टर के नाम से मशहूर शादाब उन दो युवाओं के पिता हैं, जिनके नाम दिल्ली में सितंबर 2008 में हुए बाटला हाउस एनकाउंटर में सामने आए. सैफ और शाहनवाज. आजमगढ़ के जिन 20 मुस्लिम युवाओं के नाम आतंकवादी घटनाओं में सामने आए, उनमें नौ संजरपुर के ही थे. इसके बाद ही मीडिया में इस शहर के नाम पर आतंक की नर्सरी का शर्मनाक जुमला चल निकला था.
 दिसंबर 2008 में शादाब अहमद को कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने हमदर्दी जताने दिल्ली बुलाया था. फरवरी 2010 में दिग्विजय सिंह खुद संजरपुर आए थे.

उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताकर बड़ा बवाल खड़ा कर दिया था. उनकी ही पार्टी की सरकार के समय हुए एनकाउंटर के बारे में उन्हीं के गृहमंत्री पी. चिदंबरम का हमेशा से यह मानना रहा कि मुठभेड़ बिल्कुल सही थी. लेकिन ऐन चुनाव के वक्त दिग्विजय सिंह दोहराते रहे कि फर्जी थी. कोई नहीं जानता था कि कांग्रेस में कौन सच बोल रहा था और कौन बेवकूफ बना रहा था? यह जरूर तय था कि कांग्रेस मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ खींचने के लिए ही यह दोतरफा दाव खेल रही थी और उसके नेता आजमगढ़ के दौरे कर रहे थे. लेकिन मुस्लिम उन पर भरोसा करने की बजाए ‘कब्रिस्‍तानों की हिफाजत’ के लिए सूबे की जिम्मेदारी मुलायम सिंह यादव को सौंपने का मन बना चुके थे.

ऐसी हर घटना में जैसा कि आमतौर पर होता है, शादाब समेत संजरपुर के ज्यादातर मुसलमान अपने लड़कों को बेकसूर ही मानते थे. उनकी दलील थी कि तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल पर दिल्ली ब्लास्ट के चलते भारी दबाव था. इसीलिए बाटला हाउस का एनकाउंटर प्लान किया गया. हालांकि मैं कई पत्रकारों और अफसरों से भी मिला. ज्यादातर जानकारों का मानना था कि बाटला मुठभेड़ से जुड़े सारे मुसलमान युवा कट्टरपंथी मानसिकता के थे. उनके इरादे ठीक नहीं थे. उन्हें लंबे समय से वॉच किया जा रहा था. पुलिस के पास उनके खतरनाक इरादों के कई सबूत मौजूद थे. लखनऊ में इंटेलीजेंस से जुड़े एक अफसर ने कहा, ‘जितने दिखते हैं, हालात उससे कहीं ज्यादा खराब हैं. लेकिन वोटों की राजनीति के कारण जिनकी ज्यादा चर्चा भी गुनाह है.’

संजरपुर में भी मुसलमानों की आम शिकायत यही थी कि सरकारों और राजनीतिक दलों ने उनके लिए कुछ नहीं किया. न स्कूल, न कॉलेज, न कारखाने. शादाब के घर मैं करीब दो घंटे ठहरा. तब तक दो मौलवियों समेत कई और लोग भी वहां जमा हो गए. हमारी बातचीत जोरदार रही. मैंने उनसे कहा, ‘कुछ अपवादों को छोड़कर सरकारें और राजनीतिक  दल पूरे देश में एक जैसे ही रहे हैं. वादा खिलाफ, मतलबपरस्त, बेपरवाह, भ्रष्ट, दोगले और धोखेबाज. यह सिर्फ आजमगढ़ या उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ही नहीं पूरे देश की एक जैसी शर्मनाक हकीकत है.’

‘गांव-गांव में मस्जिदों, मदरसों और मकबरों की मजबूत इमारतें बताती हैं कि कौम के पास कमी कुछ नहीं है. फिर स्कूल, कॉलेज व कारखानों के लिए यह रोना क्यों? इसी इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल बेहतरीन स्कूलों, कॉलेजों और रोजगार पैदा करने वाले तकनीकी प्रशिक्षण केंद्रों में क्यों नहीं किया जा सकता?’ मेरे सवालों पर वे चुप थे.
 उत्तर प्रदेश में पहली दफा सबसे ज्यादा 57 मुसलमान एमएलए विधानसभा में मौजूद थे. यह ताकत मामूली नहीं थी. यह दिल्ली जैसे कुछ छोटे राज्यों के कुल विधायकों की संख्या के लगभग बराबर थी. लेकिन कलफ लगे कुरते-पाजामे पहनकर वे अपनी महंगी गाडि़यों में घूमते हुए कर क्या रहे थे?

‘क्या आजमगढ़ के नाम पर लगे आतंक की नर्सरी के दाग के बावजूद आप सबको और कौम के इन नुमांइदों को रात नींद ठीक से आती है?’ मैंने कहा कि अगर कोई मेरे गांव को गुंडों का गांव या मेरे मोहल्ले को मवालियों का मोहल्ला कहकर बदनाम करे तो मैं खुदकुशी कर लूंगा या अगली ही सुबह कुछ ऐसा करूंगा, जिससे यह दाग धुले या गलत साबित हो. अगर यह सच है तो बात और है. वर्ना, मैंने कहा, ‘मैं सो नहीं सकता. कोई कैसे मेरे गांव या मेरी कौम को ऐसी गाली दे सकता है?’
 मैंने उन्हें बताया, ‘हमारे यहां ब्राह्मणों को इज्जत दी जाती है. धार्मिक अनुष्ठानों में उन्हें बहुत इज्जत से आमंत्रित किया जाता है. दान-दक्षिणा के साथ उनके पैर छुए जाते हैं. लेकिन कोई ब्राह्मण संस्कृत का स्कूल खोलकर समाज से यह उम्मीद करे कि भारत की प्राचीन भाषा के नाम पर लोग बच्चों को वहां पढ़ाने के लिए कतार लगाकर खड़े हो जाएंगे तो वह पागल कहलाया जाएगा. उसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर जाना ही होगा.

शायद ही कोई संस्कृत के नाम पर अपने बच्चों को उसके पास पढ़ाने भेजे. वेदों की भाषा है इसलिए संस्कृत के प्रति आदर है, श्रद्धा है, गर्व है. मगर हम जानते हैं कि संस्कृत के बूते आज के दौर की चुनौतियों का मुकाबला नहीं हो सकता. वह इज्जत से पेट भरने लायक कुछ नहीं दे सकती. दूसरी तरफ, इस्लाम में अरबी, फारसी और ऊर्दू के नाम पर यह शान से चल सकता है कि बिहार के अररिया जिले के तीन सौ बच्चे उत्तर प्रदेश के दूरदराज कस्बे के किसी मदरसे में यतीमों की तरह भर दिए जाएं. इसकी क्या वजह है? क्या सिर्फ मुसलमानों की गरीबी, जो हिंदुओं में भी कहीं कम नहीं है?’
 शादाब के घर के उस बरामदे में बीसेक लोग जमा हो गए थे.

 ‘सरकारी तंत्र के स्कूल-कॉलेजों की हालत सब जगह उन्नीस-बीस ही है. ज्यादातर अच्छे स्कूल-कॉलेज वे संस्थाएं चला रही हैं, जिनकी कमान सामाजिक और व्यावसायिक संगठनों के हाथ में है. इनमें हजारों बच्चों के लिए हर वह कोर्स मुहैया हैं, जिनके बूते वह बेहतर रोजगार और इज्जत की रोटी हासिल कर सकता है. ईसाई मिशनरियों की शिक्षण संस्थाओं में यह पाबंदी नहीं है कि सिर्फ क्रिश्चियन बच्चों को ही दाखिला मिलेगा. निजी या सामूहिक तौर पर संचालित दूसरी संस्थाओं के दरवाजे भी सबके लिए बराबर खुले हैं. सारे जाति-धर्मों के हजारों बच्चे हर साल पास होकर देश-विदेश में इज्जत से अपने पैरों पर खड़े होते हैं. ऐसी संस्थाएं हर सूबे या हर शहर में हैं. लेकिन मुस्लिम संगठनों की ऐसी दो-चार पहल गिना दीजिए. ऐसा क्यों है? कौम के नेता और धनी-मानी साहिबान करते क्या हैं?’

वे क्या करते हैं, यह भी लगे हाथ देख लीजिए. एक एमएलए का नाम सुना-वारिस अली. नेपाल सीमा से सटी नानपारा सीट से बहुजन समाज पार्टी के नुमाइंदे. मैं लखीमपुर से निकलकर जब बहराइच के रास्ते में था तो एक कस्बे के पहले सड़क के दाहिनी तरफ मेरी निगाह एक अधूरी आलीशान इमारत पर टिकी. यह व्हाइट हाऊस नुमा एक बड़ी भारी इमारत थी. आकार-प्रकार से मैंने अंदाजा लगाया कि यह कोई निर्माणाधीन इंजीनियरिंग कॉलेज होना चाहिए. लेकिन वहां के लोगों ने यह बताकर मुझे चौंकाया कि यह वारिस अली साहब की विरासत है. उनकी हवेली.

स्थानीय लोगों ने बताया कि एक रेलवे पाइंट्समेन के शहजादे वारिस बीस साल पहले तक एक बस में क्लिनर हुआ करते थे. तकदीर उन्हें सियासत में ले आई. बसपा से जुड़ गए. विधायक बने. ईंट भट्टों और स्थानीय ठेकों में उनकी तूती बोलने लगी. अब दौलत में उनके मुकाबले का शायद ही बिरादरी में यहां कोई और हो. मगर यह दौलत कौम के किसी काम की नहीं थी. ज्यादा से ज्यादा कम समय में मालामाल हुए वारिस अली जैसे लीडर अपनी कमाई का एक हिस्सा एक और मस्जिद या मकबरे में खर्च कर देंगे ताकि मालदार मौलवियों के जरिए कौम पर पकड़ कायम रहे. वे बच्चों की खातिर एक कॉलेज नहीं बनाएंगे. और मजा यह कि पब्लिक पर इसकी धमक भी रहेगी.

 संजरपुर के सामाजिक कार्यकर्ता मसीहउद्दीन संजरी मेरे साथ आजमगढ़ तक आए. मैंने यही सवाल उनके सामने रखे. उन्होंने मुसलमानों पर मौलवियों के मकड़जाल की दिलचस्प कहानियां सुनाईं, जो हर कहीं मदरसों के नेटवर्क के असली कर्ताधर्ता हैं. उन्होंने बताया कि वे साल भर जन्नत और सवाब के नाम पर जमकर चंदा कबाड़ते हैं. यह पैसा सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही नहीं, विदेशों से भी खूब उगाहा जाता है. वे सऊदी अरब जाकर भी जेबें गरम करके आते हैं, क्योंकि यहां के गांव-गांव के सैकड़ों लोग वहां रोजी-रोटी कमाने गए हैं. जकात का पैसा उनके अपने ऐशो-आराम पर भी खूब खर्च होता है. चंदे की रकम में हुए घपलों को लेकर उनके बीच अक्सर झगड़े होते हैं और यह तू-तू मैं-मैं सरेआम भी होती रहती है. बाटला हाउस एनकाउंटर तक इनके लिए उगाही का एक और मौका था. तब इन्होंने जमकर चंदा वसूली की थी. वे जानते हैं कि मजहब के नाम पर कुछ भी करना-कराना मुमकिन है.

उलेमाओं ने बाकायदा इलाके में अपने मुरीदों का जाल फैला रखा है. ये मुरीद एजेंटों की तरह काम करते हैं और तगड़े आसामियों को घेर-घेरकर हजरत की खिदमत में लाते हैं. ऐसे ही एक हजरत का किस्सा सुना. कोई मौलाना हैं. शायद अब्दुल्ला नाम है. यहां-वहां उनके कई मुरीद हैं. वे उलेमा कौंसिल के चुनाव प्रचार में भी बढ़-चढक़र सक्रिय थे. एक जगह बसपा नेता अकबर अहमद डंपी का आना हुआ. इत्तफाक से हजरत भी वहीं कहीं शिरकत फरमा रहे थे. उन्होंने मुरीदों को दौड़ाया. जैसे भी हो डंपी को लाया जाए. मुरीद गए. डंपी को दुआ के लिए हजरत के दरबार में लाकर ही माने. किसी ने पूछा कि आप उलेमा कौंसिल के उम्मीदवार के लिए प्रचार करने आए हैं. फिर दूसरी पार्टी के नेता को दुआ क्यों दे रहे हैं? हजरत ने फरमाया, ‘दुआ मांगने कोई भी आ सकता है. वह अलग मामला है. उसका सियासत से कोई लेना-देना नहीं है.’

संजरी ने कहा, ‘कौम में इन मजहबी रहनुमाओं की पैठ इतनी गहरी है कि ईमानदार और उम्दा लीडरशिप इन्होंने कभी पनपने ही नहीं दी. मुस्लिमों में से कोई अगर कुछ बेहतर करना चाहे तो उसे इसकी तगड़ी कीमत चुकानी ही होगी. ज्यादा संभावना है कि उसके पैर उखाड़ दिए जाएं. ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी ने सामाजिक स्तर पर कुछ अच्छा करने की शुरुआत की और मौलवियों की एकजुट ताकत के आगे उन्हें शिकस्त ही मिली.’

आजमगढ़ को अलविदा करने के पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस करुणाकांत मिश्रा के घर गया. वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे. सपा-बसपा के मुख्य मुकाबले की इस सीट पर 12 घंटे जनसंपर्क में जुटे 63 वर्षीय पूर्व जज साहब ने कहा, ‘एमएलए बनने से कुछ मिलेगा नहीं. नहीं बने तो कुछ चला नहीं जाएगा. लोगों की शिकायत रहती है कि अच्छे लोग राजनीति में नहीं आते. यही सोचकर चुनाव में उतरा. नतीजा जो भी हो.’

लखनऊ और इलाहाबाद में आठ साल जज रहे मिश्रा ने रिटायर होने के बाद इन बड़े शहरों में बसना मंजूर नहीं किया. वे उत्तर प्रदेश के सबसे बदहाल, बेतरतीब और बदनाम आजमगढ़ के अपने पैतृक घर में लौटे. औपचारिक विदाई समारोह के तीन दिन पहले बंगला-गाड़ी-नौकर चाकर छोड़कर निकले. तीन साल से वे अपनी 22 बीघा जमीन पर खेतीबाड़ी और एक दर्जन गायों की सेवा चाकरी करते देखे गए थे. शैक्षणिक योग्यता, अनुभव, पारिवारिक साख और छवि के हिसाब से उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनके मुकाबले का दूसरा उम्मीदवार शायद ही कहीं हो. उनके परिवार के कई सदस्य आईएएस-आईपीएस अफसर और डॉक्टर-इंजीनियर-वकील थे. प्रदेश के मुख्य सचिव अनूप मिश्रा उनके भतीजे थे. यूपीपीसीएल के महानिदेशक शैलजाकांत मिश्रा भाई.

सिर्फ एमएलए बनना ही मकसद होता तो सपा या बसपा से टिकट मुश्किल नहीं था. पक्की जीत के लिए वे चाहते तो आजमगढ़ से सटी ब्राह्मण बहुल अतरौलिया सीट से भी लड़ सकते थे. लेकिन निजी तौर पर जातिवादी राजनीति के घोर विरोधी मिश्रा को सपा-बसपा एक ही मांजने की पार्टियां लगती हैं. चुनाव लड़ने के लिए उन्हें कांग्रेस अपने ज्यादा अनुकूल लगी. उनकी दलील थी, ‘मायावती का झुकाव दलितों और मुलायम का यादवों की तरफ जग-जाहिर है. कांग्रेस सबको साथ लेकर चलती है. मैं आजमगढ़ में पला-बढ़ा हूं. चुनाव लड़ने बाहर क्यों जाता?’

वैसे कांग्रेस से उनका पारिवारिक नाता पुराना था. उनके दादा स्व. ब्रजबिहारी मिश्रा अतरौलिया सीट से ही 1952 और 62 में दो बार चुने गए. संसदीय सचिव भी रहे थे. मगर पार्टी इस कदर गर्त में थी कि वे अकेले कुछ नहीं कर सकते थे. जस्टिस मिश्रा के दो बेटे हैं-ऋषिकांत और ऋचाकांत. दोनों की नौकरियां मुंबई में थी. प्रचार के लिए ऋषिकांत आए हुए थे. मिश्राजी ने धूप में बाल सफेद नहीं किए थे. उन्हें जमीनी सच्चाई का अंदाजा बखूबी था. उनकी नजर में राजनीति एक जबर्दस्त शो-बिजनेस बन चुकी थी, जिसमें उन जैसों को जगह बना पाना कानून की धाराओं से ज्यादा जटिल काम था. खासतौर से उत्तर प्रदेश में.

वैसे आजमगढ़ से उन्हें टिकट मिलना, टिकट के दूसरे दावेदार कांग्रेसियों को नहीं सुहाया. कांग्रेस के धूल खाते दफ्तर के बाहर न्यूट्रल गियर में चकाचक कुरता-जैकट धारण किए बैठे एक कांग्रेस नेता ने मख्खियां उड़ाते हुए कहा, ‘जज साहब माहौल नहीं बना पा रहे. उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि सादगी और सिद्धांतों का जमाना अब नहीं है.’ दूसरी तरफ देवराहा बाबा के शिष्य रहे जस्टिस मिश्रा आध्यात्मिक भाव से हर दिन जनसंपर्क करने निकलते. कुछ ज्यादा ही विनम्रता से कहते, ‘हार भी प्रभु की कृपा होगी.’

(जारी...)

किताब : भारत की खोज में मेरे पांच साल
लेखक : विजय मनोहर तिवारी

किताब की कीमत : 550 रुपये
प्रकाशक : IRA (इरा प्रकाशन)

                                                                                                   

(विजय मनोहर तिवारी वरिष्‍ठ पत्रकार और लेखक हैं )

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