जहांआरा की जमीन पर... जातियों के जंगल में चुनाव-2

जहांआरा की जमीन पर... जातियों के जंगल में चुनाव-2

वाराणसी.

पत्रकार विजय मनोहर तिवारी की हाल ही में प्रकाशित किताब 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' के चुनिंदा अंशों का दूसरा भाग यहां प्रकाशित किया जा रहा है जो कि उत्तरप्रदेश के चुनावी माहौल पर केंद्रित है.

आजमगढ़ और मऊ आसपास ही हैं. आपराधिक छवि और दबंगई की सियासत के लिए बदनाम एक और नाम मऊ से जुड़ा था. मुख्तार अंसारी. 95 फीसदी मुस्लिम बुनकर आबादी वाले शहर मऊ की बेहद नकारात्मक पहचान मुख्तार की वजह से थी. करीब 15 आपराधिक मामले उन पर थे. गाजीपुर जिले के मोहम्मदाबाद यूसुफपुर के रहने वाला यह शख्स 1996 में पहली बार यहां आया.

यह यूपी और बिहार में ही संभव है कि एक अच्छा खासा क्राइम रिकॉर्ड राजनीति में एक जरूरी काबिलियत भी बन जाए. कभी कम्युनिस्टों के गढ़ रहे मऊ में मुख्तार ने अपनी जड़ें आसानी से जमाईं. उनका एक भाई सांसद और दूसरा विधायक बना. इस बार उसने अपनी ही पार्टी बना ली थी-कौमी एकता दल. पांच साल से आगरा जेल में बंद मुख्तार को सिर्फ एक हफ्ते की मोहलत अपने इलाके में जाने की मिली और कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि वह जेल में रहकर ही चुनाव जीतकर दिखाए.

लोगों को मऊ की सड़कों पर खुली गाडि़यों में हथियार बंद गुर्गों के साथ मुख्तार अंसारी को देखे अरसा हो चुका था. आतंक, हत्या और लूट की फिल्मों जैसी दास्तानें लोगों की जुबान पर थीं. अफसरों और वोटरों में पैसा बांटने के किस्से भी तमाम. पिछला चुनाव जेल में रहकर जीते मुख्तार की पांच साल की विधायकी जेल में रहकर ही कटी. इस इलाके में तीन अंसारी उम्मीदवारों को मुकाबले में देख मुख्तार ने दो सीटों से परचा भरा. लोग कह रहे थे, 'डॉन डर गया है.'

मुख्तार की शिकस्त बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए खास मायने रखती थी. 1996 से लगातार एमएलए रहे मुख्तार ने पिछला चुनाव निर्दलीय लड़कर बसपा से ही जीता था. तब सपा ने उसके समर्थन में अपना कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया. मुख्तार की पार्टी को चुनाव चिन्ह मिला 'कांच का गिलास', जिसे फोड़ने के लिए जोरदार घेराबंदी बसपा ने की. 2010 में मायावती ने यहीं से सालिम अंसारी को राज्यसभा सांसद बनाकर मुख्तार को शक्तिहीन करने की कोशिश की थी. इनका एक किस्सा बड़ा दिलचस्प है. सांसद बनते ही सालिम ने अपनी ताकत दिखाने के लिए लाउड स्पीकर पर बाकायदा मुनादी पिटवाई, 'अब सालिम भाई की कोशिश से मऊ को 20 घंटे बिजली मिलेगी.' एक स्थानीय व्यवसायी ने बताया कि जिस दिन मुनादी पिटती उसी दिन बिजली पहले से कम मिलती. सरकारी दफ्तरों में बैठे मुख्तार के हितैषी कोई न कोई गड़बड़ कर ही देते. ऐसा अक्सर हुआ. सरकारी दफ्तरों में मुख्तार ने सबकी जेबें भरी थीं.

मुख्तार की पूरी राजनीति उसके भाई-भतीजे संभाले हुए थे. पूर्व सपा सांसद अफजाल अंसारी और विधायक सिगबतुल्ला अंसारी अपनी घरेलू पार्टी कौमी एकता दल के चलाएदार थे. मुख्तार का 1996 के पहले मऊ से कोई लेना-देना नहीं था. वह तो यहां का रहने वाला भी नहीं था. एक स्थानीय वकील ने बताया कि गाजीपुर के पास मऊ से करीब 50 किलोमीटर दूर यूसुफपुर मोहम्मदाबाद के रहने वाले मुख्तार ने यहां सिर्फ बंदूक के जोर पर राजनीति की. मऊ में कौमी एकता दल के सूने दफ्तर की तुलना में गाजीपुर का दफ्तर ज्यादा रौनकदार था, जो मुख्तार के ही होटल गजल में खोला गया. लोग बताते हैं कि मालदार अंसारी भाइयों ने यह होटल भी कब्रिस्तान की जमीन पर खड़ा किया. प्रचार के लिए पैरोल पर बाहर आने की खबर आते ही इलाके के ठेकेदारों ने आतिशबाजी व मिठाई बांटकर रात भर जश्न मनाया.

इस इलाके के एक वरिष्ठ लेखक सतानंद उपाध्याय पुराने मऊ के ब्राह्मण टोला दक्खिन में रहते थे. राजनीति की इस चकल्लस से सदियों दूर डेढ़ हजार साल पहले गुप्त राजाओं के समय से लेकर अंग्रेजों के आने तक का इतिहास उन्हें कई दिलचस्प घटनाओं के साथ रटा हुआ था. गुप्त काल में इस इलाके का नाम था-कुंडधानी विषय. मऊ का पूरा नाम था, मऊ नट भज्जन. यह एक जंगली इलाका था. गाजीपुर से दोहरीघाट तक घने जंगल. यहां मूलत: दो जातियां पाई जाती थीं-नट और कतुआ. कतुआ जाति पशु पालन और सुतली कातने का काम करती थी. मऊ में आज भी एक मोहल्ले का नाम कतुआपुरा है. ये लोग बाद में वाराणसी जा बसे.

मुगलों के दौर में औरंगजेब का फोकस यहां था. उसके समय नटों का सरदार भज्जन नट था. उस पर औरंगजेब की फौज के तीन हमले हुए. पहले हमले में फौज ने मुंह की खाई तो औरंगजेब ने दिल्ली में सेनानायक का सिर कलम करा दिया. दूसरी दफा फिर मुगल हारे. तीसरी बार उनका सिपहसालार था मलिक ताहिर. हार के बाद उसके भीतर का सूफी जागा. हारा हुआ मुंह लेकर औरंगजेब के सामने जाकर सिर कलम कराने की बजाए एक फकीर के वेश में बैठना फायदे का काम था. वह सूफी की शक्ल में मशहूर हो गया. रौजा ताहिर मलिक आज भी उसकी याद दिलाता है.
 
ताकतवर नटों के हाथों तीन बार की लगातार हार से औरंगजेब जैसे जिद के पक्के बादशाह का बौखलाना लाजिमी था. संकरी गलियों में पुरानी इमारतों की दीवारों से झांकती झरती पतली लखौरी ईंटें सदियों की कहानियां सुनाती हैं. उपाध्याय ने बताया, 'औरंगजेब ने अपनी फितरत के मुताबिक कूटनीति से काम लिया. उसने देवरिया के पड़रौना के मल्ल बुलाए. टौंस-तमसा नदी के किनारे दो मल्ल पहलवानों से भज्जन नट का मुकाबला कराया. इस भीषण मुकाबले में तीनों मारे गए. मुगल जीते. इसके बाद व्यापक धर्म परिवर्तन हुआ. नट और कतुए मुसलमान बनाए गए. कुछ जनेऊ पहनकर बच निकले. यहां आज भी कतुआ समाज के लोग जनेऊ धारण करते हैं. पूर्णिमा पर घरों में सत्यनारायण की कथा की प्रथा पुरानी है.'
 
 उपाध्याय भाषा विज्ञानी भी थे. वे भाषा की डोर के सहारे कुछ सूत्रों तक पहुंचने में मदद करते हैं. जैसे जुलाहे का मतलब बुनकरों से होता है. लेकिन वे बताएंगे कि जुलाहा शब्द जाहिल की उपज है. जाहिल का बहुवचन है जोलहा, जो आजादी के बाद जुलाहा हो गया. सूत कातने से पुराना ताल्लुक है. इस तरह वे बुनकर कहलाए. इस्लाम में बराबरी की बातें राजनीतिक दलों के मेनीफेस्टो की तरह किताबों में लिखी होंगी मगर आज भी किसी मुस्लिम जुलाहे की बेटी से कोई पठान या सैयद अपने बेटे का निकाह कुबूल नहीं करता. भोजपुरी कहावत है-नया जुलाहा प्याज ही प्याज. जुलाहे अब पढ़ लिख गए हैं. कबीर भी जुलाहे थे, लेकिन नए निजाम में जुलाहा कहना तक गुनाह है. जैसे किसी को उसकी जाति के नाम से बुलाकर बेइज्जत करना. खासकर तब जब वह निचली जाति से हो.

 एक मजेदार किस्सा सुना. यह 1987 के आसपास की बात है. डिग्री कॉलेज में हिंदी विभाग के प्रमुख थे उमाशंकर तिवारी. पूर्वांचल संदेश के शुभारंभ समारोह में गवर्नर आए हुए थे, जो उडि़या थे. उनके सम्मान में तिवारी ने एक कविता लिखी. खैरुल बशर अंसारी तब एमएलए हुआ करते थे. कविता में मऊ के जिक्र में जुलाहा शब्द आया. अंसारी मंच पर पहुंचे. जुलाहा शब्द पर लाल-पीले हुए. कहा, माफी के साथ यह शब्द वापस होना चाहिए. कुछ लोगों ने कहा कि अंसारी साब, तब कबीर और तुलसी के समूचे साहित्य से जुलाहा शब्द हटवाइए. दरअसल जुलाहों को पहले जुलाहा अंसार लिखा जाता था. अब सिर्फ अंसारी लिखा जाता है. जुलाहा गायब है. उन्होंने बताया, कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अंसारी लिखते हैं मगर हैं नहीं. जैसे-मुख्तार अंसारी. वे मिल्की हैं. ऊंची जाति के धर्मांतरित हिंदू. उनकी रिश्तेदारियां भी इन्हीं में हैं. ठेठ जुलाहों में नहीं. उपाध्याय बताते हैं कि इस हकीकत से इलाके के कई लोग वाकिफ हैं.
 
मुगलों के समय रवायत थी कि वे अनुपजाऊ इलाकों को अपने ही परिजनों को ‘महू’ घोषित करके दे देते थे. अरबी में महू का मतलब उन्होंने बताया, मट्ठा, मथानी, तलवार की धार, साजिश की जगह, माफी का इलाका. मुगल जीती हुई ऐसी जगहों को, जिसे कोई लेता नहीं था, माफी का इलाका घोषित करके शाही खानदान के लोगों को दे दिया करते थे. यह औरंगजेब के समय उसकी बहन जहांआरा को दिया गया था. जहांआरा यहां आईं भी. कुछ समय रहीं. शाही कटरा जहांआरा के समय ही बसाया गया. भीतर बैरकें हैं. लेकिन अब कोई शाही निशान नहीं है. जहांआरा ने एक घर और एक मस्जिद भी बनवाई. सदियों पुरानी इमारतों में दिखाई देने वाली लखौरी ईंटों के ये निर्माण पूरे यूपी और बिहार में कई जगह नजर आते हैं. खास किस्म की छोटे आकार की बेहद पतली और चपटी ईंटें. जहांआरा ने जौनपुर की रानी दंदेई कुंवर को यह इलाका सौंप दिया और खुद आगरा चली गईं.
 
जहांआरा के उस ठिकाने पर अब एक मदरसा सिफ्ताहुल-उलूम है. मऊ में होने वाले सांप्रदायिक दंगों का केंद्र. उपाध्याय याद करते हैं कि जिस साल 1935 में उनकी पैदाइश हुई तब एक बड़ा दंगा यहां हुआ था. रामनवमी पर एक दिलचस्प परंपरा की जड़ें यहां जमी हैं और शायद ही ऐसा कोई दूसरा उदाहरण कहीं और हो. भरत मिलाप का प्रसंग जब आता है तो राम नवमी का जुलूस यहां आकर मदरसे के दरवाजे पर तीन ठोकरें मारता है. फिर सामने ही राम और भरत का मिलाप होता है. दूसरी तरफ मोहर्रम के जुलूस में शामिल मुस्लिम पास ही संस्कृत की एक पाठशाला की सीढि़यां लांघते हैं. हजारों लोगों की मौजूदगी इन परंपराओं के दौरान धार्मिक उन्माद की स्थिति पैदा करने में मददगार साबित होती है.

 औरंगजेब के काबिज होने और जहांआरा को यह इलाका मिलने के बाद यहां का जातिगत-सामाजिक-सांस्कृतिक नक्शा तेजी से बदलता है. अपनी रियासतों पर कब्जा बरकरार रखने के लिए स्थानीय हिंदू राजे-रजवाड़ों का धर्मांतरण आज की सियासत में पार्टी बदल जैसी घटनाएं ही थीं. जहां दम, वहां हम. महू वक्त के साथ मऊ नटभंजन हो जाता है. ब्रिटिश काल के साइन बोर्डों पर मऊ नटभंजन ही लिखा जाता रहा. हिंदू-मुस्लिम आबादी के बीच विभाजन की गहरी रेखाएं साफ हैं. खिरीबाग मोहल्ले में हिंदू बढ़ई और सुनार जाति की अच्छी खासी आबादी हुआ करती थी. पिछले 40 साल में धीरे-धीरे सब छोड़कर रेलवे क्रॉसिंग की दूसरी तरफ चले गए, जो नए बसे हिंदू बहुल इलाके की शक्ल में सामने आया है. यहां के लोगों को रेल पटरी के उस पार के पुराने इलाके को पाकिस्तान कहते हुए कुछ भी अटपटा नहीं लगता!

 इंदिरा गांधी के समय युवा तुर्क कहे गए पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर बिहार की सीमा से सटे बलिया के रहने वाले थे, जो मऊ से सटा है. एक और भीड़ भरे बदहाल से शहर की एकमात्र पहचान भी वे ही थे. बलिया के नेताओं की वर्तमान पीढ़ी में कोई भी चंद्रशेखर के आगे पासंग नहीं था. चंद्रशेखर को यहां लोग बहुत इज्जत देते हैं. उनका संपर्क और लगाव भी कभी कम नहीं हुआ था. सबसे बड़ा सबूत था-शहीद स्मारक. चंद्रशेखर के जीवन का सबसे बड़ा सपना, जो बलिया के लिए उन्होंने देखा.

 बलिया की बदकिस्मती थी कि उनका यह ख्वाब हकीकत बनने के पहले ही उजड़ चुका था. बलिया से दस किलोमीटर दूर है बसंतपुर. करीब दो किलोमीटर लंबी बाउंड्रीवाल के भीतर 80 एकड़ जमीन पर दस करोड़ रुपये की लागत से बनी इमारतें बनते ही ढहने के लिए छोड़ दी गई थीं. चंद्रशेखर ने यहां हिस्ट्री म्यूजियम, कृषि सूचना तकनीक केंद्र, भोजपुरी संस्कृति केंद्र और वृद्धाश्रम बनवाए. ढाई सौ सीटों वाले थिएटर की धूलजमी कुर्सियों की पॉलीथिन भी नहीं हटी थी. पिछड़े पूर्वांचल में वे इसे एक पर्यटनस्थल के रूप में देखना चाहते थे. 2003 में शिलान्यास हुआ. 2006 में काफी कुछ बनकर तैयार हो चुका था. 2008 में चंद्रशेखर की मृत्यु होते ही काम भी तुरंत रुका. फिर यहां कोई पलटकर आया तक नहीं.
 
तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत, मंत्री जगमोहन व रविशंकर प्रसाद, मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के नाम वाले पांच शिलालेख यहां के धूल भरे कमरों में पड़े थे. छह साल से नियुक्त अलग-अलग सरकारी विभागों के करीब 15 कर्मचारियों में से एक सुरेंद्रनाथ वर्मा ने कहा कि इस परिसर के विकसित होते समय पूरे इलाके में उम्मीद जागी थी. चंद्रशेखर के निधन के बाद किसी ने कोई रुचि ही नहीं ली. उनके सांसद सुपुत्र नीरज शेखर दो दफा ही देखे गए. मुलायम सिंह यादव ने सपा से उन्हें सांसद बनवाकर चंद्रशेखर के साथ अपने रिश्ते तो निभा दिए मगर 'युवा तुर्क' की समाजवादी जनता पार्टी का कोई नामलेवा भी नहीं बचा. नीरज इस चुनाव में शहीद स्मारक को चमन करने का वादा करते घूम रहे थे! उनकी छवि अच्छी है बस. न जुझारू तेवर किसी के पास हैं, न राजनीतिक दूरदृष्टि. चंद्रशेखर के सबसे करीब रहे नाती पप्पूसिंह बसपा से एमएलसी हैं. पांच साल से बसपा ही सरकार में है. सो उनके पास कहने को भी कुछ नहीं था.

 

गाजीपुर.

 
राही मासूम रजा के जरिेये मैं बिना आए ही गाजीपुर से पहले से वाकिफ था. बहुत पहले उनके मशहूर उपन्यास 'आधा गांव' को पूरा पढ़ा था. मैंने यहीं दो दिन पड़ाव किया. मेरे कॉलेज के जमाने के मित्र अजय श्रीवास्तव 1996 में यहीं आकर बस गए थे. एक अरसे के बाद उनसे मुलाकात हुई. वे मुझे लॉर्ड कार्नवालिस के मकबरे तक ले गए. कार्नवालिस 1786 से 1793 तक यहां रहे थे. गवर्नर जनरल बनकर वे 1805 में फिर आए. जुलाई में आए. अक्टूबर में देहांत हो गया

 ब्रिटिश हुकूमत की यादगार इस मकबरे से ज्यादा महत्वपूर्ण पवहारी बाबा का आश्रम है. गंगा के किनारे. इसकी प्रसिद्धि स्वामी विवेकानंद की वजह से थी, जो यहां 2 फरवरी 1890 को आए थे. बाबा से भेंट के लिए वे तीन महीने रुके. कर्मयोग में उन्होंने बाबा के बारे में लिखा भी. पवहारी बाबा कभी रामकृष्ण परमहंस से कलकत्ता में मिले थे. परमहंस ने ही विवेकानंद को बाबा के बारे में बताया था और उन्हें हिदायत दी थी कि जब कभी मौका मिले, इनसे जरूर मिलना.

 विवेकानंद आए. दो महीने इंतजार किया. बाबा समाधि में थे. जब जाने को हुए तो बाबा ने समाधि से संदेश दिया कि नरेंद्र ठहरे. फिर वे 29 दिन और रुके. यहां से लिखे गए उनके पत्र अब तक सुरक्षित हैं. यह उनके शिकागो जाने से पहले की बात है. विवेकानंद, अमेरिका से लौटने के बाद जब अलमोड़ा में थे, तब उन्हें बाबा के देवलोकगमन की सूचना मिली. उन्होंने तभी बाबा की जीवनी लिखी. पवहारी बाबा एक सिद्ध संत थे. माना जाता है कि वे अपने समय के गिने-चुने सिद्ध महात्माओं में से थे. उन्होंने 28 साल तक भारत का भ्रमण किया था और आखिर यहां अपना आश्रम बनाया. यहीं 1898 में उन्होंने अंतिम सांस ली. बाबा के अनुज गंगाधर तिवारी की पांचवी पीढ़ी के अमरनाथ तिवारी आज समाधि मंदिर की देखभाल करते हैं. वे मुझे उस जगह ले गए, जहां बाबा की देह अग्नि में तब्दील हो गई थी और जहां वे समाधि लिया करते थे. बाबा की पवित्र चरण पादुकाएं और हस्तलिखित ग्रंथ आज भी यहां सहेजकर रखे गए हैं. उनकी हेंड राइटिंग बहुत खूबसूरत थी.

 इलाहाबाद में अतीक अहमद के चुनावी दफ्तर में मेरी मुलाकात उनके कुछ कार्यकर्ताओं से हुई. माफिया की इमेज के बावजूद शहर की पश्चिम सीट से पांच दफा विधायक रहा अतीक उस फूलपुर सीट से सांसद रह चुका था, जहां से कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू चुनकर जाते थे. उनके चुनावी दफ्तर की इमारत को प्रशासन ने तोड़ दिया था. इसका कुछ हिस्सा गैरकानूनी तौर पर बना था. मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने विरोधियों की अक्ल ठिकाने लगा दी थी. चंद बड़े ताकतवरों को निशाने पर लिया तो छुटभैये यूं ही रास्ते पर आ गए थे. इस तरह पिछले पांच साल कानून और व्यवस्था ठीक-ठाक रही थी. अतीक को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया था. वह हफ्ते भर पहले ही जमानत पर रिहा होकर आया था.

 बसपा विधायक राजू पाल की हत्या समेत कई आपराधिक मामलों में लिप्त अतीक का अतीत स्याह पन्नों की एक कहानी थी. इस बार वह अपना दल और पीस पार्टी से मिलकर बीवी के नाम पर मैदान में था. बसपा से राजू पाल की पत्नी पूजा और सपा उम्मीदवार ज्योति यादव के बीच मुख्य मुकाबले को उसने सात दिनों में त्रिकोणीय बना दिया था. यह उसके वजूद की लड़ाई थी. अतिक्रमण में मायावती सरकार द्वारा तोड़े गए आलीशान घर के बेसमेंट में उसका चुनाव कार्यालय सबसे रौनकदार था. 12 में से सात सीटों पर मुस्लिम वोटों की ताकत थी, जहां वे 50 से 80 हजार की संख्या में थे. अतीक का जलवा इन्हीं के भरोसे था.
 
अतीक के समर्थकों से मैंने  सलमान खुर्शीद पर बात शुरू की. वे खुर्शीद को मुस्लिमों का नेता मानने को राजी नहीं थे. इतना ही नहीं वे उन्हें एक मुसलमान के तौर पर भी कुबूल नहीं कर रहे थे और उनसे सख्त नाराज थे. उनका कहना था कि सलमान से ज्यादा लोकप्रियता और जनाधार तो अतीक अहमद का है.

 मैंने सलमान खुर्शीद की खामियों के बारे में जानना चाहा. आखिर वे पढ़े-लिखे हैं, वकील हैं, बोली-वाणी बेहतर है, केंद्र में मंत्री हैं, जाकिर हुसैन के नाती हैं, सांसद हैं, मंत्री हैं, इमेज अच्छी है. किसी कौम को अपना अच्छा लीडर चुनने के लिए और क्या चाहिए? अब जरा खुर्शीद की खामियों के बारे में सुन लीजिए. पुराने इलाहाबाद के मोहम्मद अयाज ने गुस्से से भरकर कहा, ‘खुर्शीद का भी क्या ईमान है? उनकी बीवी ईसाई हैं और घर के नाते-रिश्ते दूसरे मजहबों में किए हैं. वे सिर्फ नाम के मुसलमान हैं. अतीक से उनका क्या मुकाबला?’
 
कौशांबी का नाम कई बार पढ़ा-सुना था. इलाहाबाद के म्‍यूजियम में इसके नाम से एक अलग गैलरी थी, जिसे अलग-अलग मौकों पर मैंने दो बार जाकर देखा. पकी हुई मिट्टी से बनी गजब की चीजें यहां देखी थीं. इनमें घरेलू इस्तेमाल के बर्तन, मूर्तियां, बच्चों के खिलौने और सजावटी सामान था. सब डेढ़ से दो हजार साल पुरानी. एक सुबह इलाहाबाद से करीब पचास किलोमीटर दूर कौशांबी के शानदार खंडहरों पर जाना हुआ. देखकर लगा नहीं कि कोई टूरिस्ट यहां आते होंगे मगर उस ठंडी सुबह कई पुलिसवाले और अफसर वहां चहलकदमी करते दिखे. वे सब एक शख्स को लेकर वहां पहुंचे थे. पता चला कि गुजरात के एक आईएएस अफसर टी. नटराजन, जो चुनावी ड्यूटी पर हैं. इतिहास में दिलचस्पी के कारण कौशांबी देखने आए हुए थे. यह लवाजमा उन्हीं के लिए था. नटराजन तमिलनाडु मूल के थे. मैं तमिलनाडु चुनाव के दौरान एक बड़े हिस्से में जा पाया था, इसलिए उनसे दक्षिण के सुरक्षित स्थापत्य और उत्तर भारत की बरबाद विरासत पर कुछ बात कर पाया.
 
 एक मोड़ पर जब कौशांबी के खंडहरों पर जाने का रास्ता किसी से पूछा था तो मदनलाल नाम के एक शख्स ने साथ चलकर दिखाने का प्रस्ताव रखा. वह मेरे साथ आया. उसकी उम्र करीब 35 साल थी. करने के लिए कोई पक्का काम नहीं था. फुटकर मजदूरी के सिवाय कमाने का उसके पास कोई जरिया नहीं था. जहां तक मुझे याद है वह एक दलित परिवार से था. मगर उसे अपने घर से एक किलोमीटर दूर के दायरे में दूर तक फैले पकी हुई ईंटों के उन खंडहरों के बारे में काफी-कुछ मालूम था और एक-एक जानकारी मुझे देते हुए वह काफी खुश था. उसे अच्छा लग रहा था कि  कौशांबी का नाम सुनकर लोग यहां आ रहे हैं. यह बस्ती उत्तर प्रदेश और बिहार की दूसरी कई पुरानी बस्तियों जैसी ही है, जिसके शानदार अतीत का हमारे वर्तमान से दूर-दूर तक कोई जोड़ नहीं था. आज के पिछड़े और भीड़ भरे कौशांबी को देखकर पुराने वैभव की कोई तस्वीर ही नहीं बनती थी. बल्कि प्राचीन कौशांबी कब खंडहरों में बदल गई और कब ये खंडहर भी जंगलों और खेतों में गुम हो गए, किसी को पता नहीं था.
 
'यह यमुना के किनारे बसा हुआ एक व्यापारिक शहर था. यहां जलमार्ग से कारोबारी आते थे. बड़े-बड़े जलपोतों से रोजमर्रा के इस्तेमाल का माल यहां आया करता था. यहां गौतम बुद्ध भी कई बार आए थे. एक बार वे तीन महीने ठहरे थे. यह ढाई हजार साल पहले एक बड़ा शहर था.'खेतों की मिट्टी से निकलते हुए मदनलाल मुझे एक ऐसी जगह ले गया, जहां कभी जलपोत आकर रुकते होंगे और जहां तरह-तरह का माल घाटों पर उतरता होगा. ईंट और पत्थरों के बने रिवर पोर्ट के ढांचे अब मिट्टी के टीलों में से कहीं-कहीं झांक रहे थे.

 आज 1800 बीघा जमीन पर फैले जो खंडहर उस प्राचीन समृद्ध कौशांबी का परिचय कराते हैं, इन पर मजे से खेती चल रही थी. इन खेतों में 121 पुराने कुएं भी निकलकर सामने आए थे. यह पूरा इलाका किसी समय करीब सात किलोमीटर में फैला हुआ था. सम्राट अशोक का बनवाया हुआ एक चिकने गोल पत्थर का ऊंचा स्तंभ आज भी इन खंडहरों पर मौजूद था. मैं सांची और सारनाथ में ऐसे स्तंभ देख चुका था. मौर्य राजाओं के समय की एक खास तकनीक से बने स्तंभ, जिनकी चिकनाई आग से ढलकर निकली किसी धातु की तरह दूर से चमकती थी. यह हमेशा ही किसी स्तूप के सामने स्थापित किए जाते थे. यहां भी एक पुराना स्तूप था.
 
इतिहास के अवशेषों से मालामाल यह एक ऐसी जगह थी, जहां दो-तीन फुट नीचे ही किसी न किसी पुराने ढांचे के खंडहर निकल आते थे. यहां नया मकान बनाने की इजाजत नहीं थी. यह अलग तरह की जगह थी, जहां चारों तरफ हरे-भरे खेतों में बीच में उभरे चंद खंडहर थे और यह साफतौर पर जाहिर था कि अगर दूसरे खेतों की मिट्टी की ऊपरी परत को भी बारीकी से साफ किया जाए तो यह जमीन दूर-दूर तक कई नए खुलासे कर सकती थी. 1949 में पहली बार यहां इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग ने खुदाई कराई थी.
 
यह प्राचीन भारत के 16 जनपदों में से एक था, जिसके बारे में एक और प्राचीन मान्यता रही है कि इसे राम के बेटे कुश से स्थापित किया था. बुद्ध अपनी यात्राओं के दौरान यहीं कहीं रहे होंगे. मदनलाल ने उस जगह का नाम बताया, 'घोस्तराम संघारम.' बुद्ध के जीवन से जुड़ा होने के कारण ही चीनी यात्री फाहयान और व्हेनसांग भी कौशांबी आए थे. मगर मदनलाल ने कहा कि व्हेनसांग के समय तक कौशांबी पूरी तरह उजड़ चुका था. यह सातवीं सदी की बात है. स्येन चिति यानी चारों तरफ सुरक्षा दीवार से घिरा पत्थर का बना जो किला था, वह राजा उदयन ने बनवाया था. उदयन ने उज्जैन के राजा प्रद्योत की बेटी वासवदत्ता से शादी की थी. उज्जयिनी या अवंतिका एक और महान जनपद था, जहां सम्राट बनने के पहले अशोक कुछ समय तक राज्यपाल रहे थे और विदिशा की ही एक युवती से विवाह किया था.
 
कौशांबी में हूण राजा तोरमाण के हमलों की कहानियां भी हैं, जिसने यहां काफी-कुछ नुकसान पहुंचाया था. पता नहीं यह जानकारी कितनी सच थी मगर मदनलाल को तोरमाण के हमलों के वह साल भी याद थे, सन 500 से 515 के बीच. तोरमाण ने तब विदिशा के आसपास भी हमले किए थे. सागर जिले में एरण नाम के गांव में एक शिलालेख उसके आने की गवाही देता है. आबादियों की उथलपुथल के किस्से हर जगह खूब थे. आगरा अफगान और मुगलों की राजधानी रही थी. उत्तर प्रदेश का यह इलाका सदियों तक इन विदेशी शासकों के बीच सत्ता की छीना झपटी का सबसे नजदीक गवाह और सबसे करीबी शिकार भी रहा. जातियों का जो जंगल आज यहां हमारे सामने पसरा हुआ है, उसकी बुनियाद में भी इसी अतीत का बड़ा योगदान रहा. जैसे पंजाब में सैनिक पहचान के साथ सिखों की एक अलग आबादी, जो सबसे नए धर्म के रूप में उभरी.

सदियों तक लगातार ऐसा कुछ घटता रहा था कि कई जातियां अपनी जगह से उखड़ीं. अपने लिए नए ठिकाने ढूंढे. जानमाल की हिफाजत के लिए लोग लगातार भागते रहे. पुरानी जातियों ने नए इलाकों में पनाह पाई और वक्त के साथ उनकी पहचानें बदली. इस उथलपुथल में नई जातियां उभरकर सामने आईं. कुछ जातियां इतिहास की इस भगदड़ में अपनी पहचान ही खो बैठीं. यह सदियों तक हुए ऐसे बदलाव थे, जो धीमे-धीमे होते रहे. ऐसी ही एक भटकी हुई जाति से मेरा परिचय होने वाला था. एक सुबह इलाहाबाद से फतेहपुर के लिए निकला. हाईवे पर एक कस्बे से एक सज्जन, जिनका नाम रामबाबू शर्मा था, मेरे साथ हुए. फतेहपुर जनपद में गाजीपुर रोड पर फतेहनगर करसूमा गांव के शर्मा भाट जाति के थे. जनपद के 18 गांवों में 45 हजार आबादी है उनकी बिरादरी की. शर्मा, भट्ट और खुनखुनिया जैसे उपनाम उनकी जाति में प्रचलित हैं. परंपरा से इस जाति के लोगों का पेशा रहा है भिक्षावृत्ति. वे अपने जिले में भी मांगने के लिए निकलते हैं. दूसरे जिलों में भी और दूसरे प्रांतों में भी. इलाके आपस में बांटे हुए हैं. भिक्षा मांगने के लिए वे बाकायदा साधु का वेश धारण करके निकलते हैं. दूर इलाकों में वे खुद को इलाहाबाद या हरिद्वार के किसी आश्रम से संबद्ध बताते हैं.

 रामबाबू बीए पास थे. नई पीढ़ी में उन जैसे कई लोग हैं, जिन्होंने इस पुश्तैनी पेशे की बजाए इज्जत से रोटी कमाने की तरफ कदम बढ़ाए. उन्होंने किराने की एक दुकान से शुरुआत की. सारे शिक्षित युवा सब उन जैसे नहीं हैं. 23 साल के विमलकुमार को ही लीजिए. वह बीए फाइनल में है, लेकिन अपने पिता सत्येंद्र कुमार के साथ विदेश यानी दूसरे प्रांतों में भिक्षावृत्ति के लिए जाता है. ये लोग दो-दो महीने तक बाहर रहते हैं. पांच-छह हजार रुपये जमा करके लौट आते हैं. इस जाति वालों को नहीं मालूम कि फतेहपुर के बाहर भी उनकी बिरादरी के लोग हैं या नहीं. हरियाणा और राजस्थान के भाटों से वे किसी किस्म के ताल्लुक से इंकार करते हैं. ये लोग अरसे से कोशिश कर रहे हैं कि इन्हें भी आरक्षण के दायरे में लाया जाए. इन्हें नहीं मालूम कि इनकी जाति यहां आई कहां से? अपनी जाति की उत्पत्ति के बारे में रामबाबू पूर्वजों से सुने किसी किस्से का एक अंश बताते हैं, जो गीतों में इनके यहां गाया जाता रहा है. उन्होंने बताया कि हम मुगलों के समय कहीं से भागकर सुरक्षित ठिकानों की तलाश में यहां आए थे. हाथों में कोई काम नहीं था सो सबसे आसान काम भिक्षावृत्ति का ही पकड़ लिया. पीढि़यां गुजर गईं. मुगल कब्रों में जा सोए. आजादी आ गई. रामबाबू उत्तर प्रदेश के जातियों के जंगल में 18 गांवों के टापुओं पर अपनी जाति के साथ मौजूद हैं. पढ़-लिखकर क्या कोई सरकारी नौकरी में भी गया?  रामबाबू को सिर्फ एक नाम याद आया, रामस्नेही शर्मा का. बिंदकी रोड पर 40 किमी दूर वे स्कूल टीचर थे.
 
फतेहपुर की पहचान विश्वनाथप्रताप सिंह से थी, जो कांग्रेस से बगावत के बाद दो बार वे यहां से सांसद रहे. प्रधानमंत्री बने. 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है....' देश भर में गूंजा था यह नारा. वे बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर राजीव गांधी के खिलाफ सड़कों पर निकले थे. कांग्रेस जड़मूल से ऐसी साफ हुई कि फिर कभी खड़ी नहीं हो सकी. मगर वीपी सिंह यहां घोर अवसरवादी व चालाक नेता के रूप में याद किए जाते हैं. उनके जन मोर्चा का नामलेवा भी कोई नहीं है. बेटे अजेयप्रताप सिंह पिता के नाम पर 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रकट हुए. पूर्व प्रधानमंत्री पिता की कुलजमा कमाई के तौर पर सिर्फ दस हजार वोटों का नजराना उन्हें मिला था. वे अपनी जमानत जब्त होने से नहीं बचा सके थे. सिंह सुपुत्र दबे पांव कांग्रेस में शामिल हो गए. कोई कौडि़यों के भाव नहीं पूछ रहा था. वीपी सिंह शौकिया कवि और पेंटर भी थे. न तो उनकी राजनीति फतेहपुर के किसी काम आई. न ही रचनात्मकता. फतेहपुर पहले जैसा ही फटेहाल रहा. न उद्योग, न रोजगार, न बेहतर रेल नेटवर्क. प्रधानमंत्री के रूप में याद करने लायक कुछ नहीं था. बलिया में फिर भी चंद्रशेखर को इज्जत से याद करने वाले लोग थे मगर फतेहपुर में राजा मांडा का जिक्र तक लोगों को चिढ़ाने के लिए काफी था.

 मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग कांग्रेसी से हुई. पेशे से वकील 75 वर्षीय प्रेमदत्त तिवारी का ब्लड प्रेशर उस दिन बढ़ा हुआ था. वे दिन भर गांवों में प्रचार के बाद लौटकर लेटे ही थे. दो बार विधायक रहे तिवारी को उम्मीद थी कि इस बार जरूर कांग्रेस की कोंपले फूटेंगी. चालीस साल तक एकछत्र कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहे फतेहपुर में बसपा के हाथी का कब्जा था. छह विधानसभा सीटें में से चार पर बसपा काबिज थी, दो पर भाजपा. सांसद सपा के थे. कांग्रेस कहीं नहीं.

 ब्राह्मण बहुल इस इलाके में बुजुर्ग ब्राह्मण उस सुनहरे दौर को याद करते हैं, जब एक के बाद एक कई ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुए. यह जातिवादी राजनीति के उभार के पहले की बात थी. कांग्रेस से किसी समय गोविंद वल्लभ पंत, कमलापति त्रिपाठी, सुंदरलाल बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी और श्रीपति मिश्रा ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुए. 'अब किसी पार्टी में यह मुमकिन नहीं है.' प्रेमदत्त तिवारी कह रहे थे.
 
फतेहपुर समेत पूरा उत्तरप्रदेश जातिवादी राजनीति की प्रयोगशाला बना हुआ था. लोग इसका दोष भी वीपी सिंह के सिर मढ़ते हैं. वजह थी-मंडल कमीशन की रिपोर्ट. सपा के चुनाव प्रभारी प्रभातकुमार सिंह का कहना था कि मंडल का बटन दबाकर वीपीसिंह ने बसपा के वोट बैंक की मजबूत बुनियाद बना दी. दलित बसपा में गए. मंडल का जवाब भाजपा ने मंदिर से दिया तो सवर्ण भाजपा से जुड़ गए. डरे हुए मुसलमानों को सपा में पनाह मिली. जातिवादी दलों का बोलबाला हो गया. कांग्रेस दिवालिया हो गई.

 फतेहपुर में विधायकों की एक खास पहचान का पता चला, अपने ही स्कूल-कॉलेजों को सरकारी खजाने से दिल खोलकर दान. सरकारी खजाने इनके लिए अब भी माले-गनीमत की तरह थे, जिनमें सबके हिस्से तय थे. एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि विधायक निधि से अपनी या अपने रिश्तेदारों की शिक्षण संस्थाओं को मालामाल करने में वे सबसे आगे थे. मायावती के खेलमंत्री अयोध्या पाल ने दो स्कूलों को एक करोड़ 40 लाख, बसपा विधायक आदित्य पांडे ने एक करोड़ 35 लाख, भाजपा विधायक राधेश्याम गुप्ता ने डेढ़ करोड़ और भाजपा के ही रणवेंद्रप्रताप सिंह ने 70 लाख रुपये दिए. ये स्कूल-कॉलेज इनके बेटे, पत्नी या खुद के नाम पर हैं. रणवेंद्र अपने स्कूल के चेयरमैन भी थे. अयोध्या पाल पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे थे. लोकायुक्त में मामले दर्ज हुए. लेकिन मैदान में थे. आदित्य पांडे का टिकट कटा तो वे अमरसिंह की पार्टी से मैदान में आ गए.

 प्रेमदत्त तिवारी ने मुझे खजुआ होकर आगे बढ़ने की सलाह दी. फतेहपुर के पास यह औरंगजेब के समय एक सैनिक छावनी थी. यहीं औरंगजेब और उसके भाई शाह शुजा के बीच जंग हुई थी. कई पुरानी कब्रें यहां थी, लेकिन उनसे पुराने मंदिर भी. सबसे मशहूर औरंगजेब पवेलियन और बाग बादशाही को देखकर आप बहुत आसानी से यह अंदाजा लगा सकते हैं कि यह किसी हिंदू राजपूत की मूल रियासत का हिस्सा रहा होगा. 52 बीघा का तालाब और इसके किनारे बादशाहों की अस्थाई सैरगाह. इस पवेलियन की सुरक्षा दीवार और वॉच टॉवर मुगल शैली के नहीं थे.  दीवार कई जगहों से ढह रही थी. बाहर दो पुराने मंदिरों में भी गया. इन बदहाल मंदिरों के भीतर सदियों पुरानी शानदार रंगीन पेंटिंग अब भी मन मोह लेती हैं. इस राजाओं की शानदार सैरगाह रहे इस ऐतिहासिक परिसर में खजुआ के कुछ आवारा लडक़े शराबनोशी का शौक दोपहर में फरमा रहे थे.

  एक रोंगटे खड़े करने वाला स्मारक खजुआ की एक और बड़ी पहचान थी. यहां 28 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने 52 लोगों को एक साथ फांसी पर टांग दिया था. यह 52 इमली के नाम से मशहूर था. इमली का एक घना सा पेड़, जिस पर ठाकुर जोधासिंह गौतम समेत उनके 52 सहयोगियों को मौत के घाट उतारा गया था. कर्नल क्रिस्टाइज की सेना ने इन्हें पकड़ा था. फांसी पर टांगने के कई दिनों बाद तक उनकी लाशें पेड़ से लटकी रही थीं. रामपुर के राजा ठाकुर महाराज सिंह ने 3-4 मई की रात शवों को उतारा और उन सबका सम्मान से क्रियाकर्म किया. उन्हें जिस आदमी ने इसकी खबर दी थी, उसका नाम था विपाती. वह एक दलित था.

 और अब कानपुर, जहां मोती झील मैदान में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की चुनावी सभा एक सुपर फ्लाप शो थी. लोग सरदारजी को सुनने के लिए हर्गिज तैयार नहीं थे. सभा शुरू होने के आधे घंटे पहले तक खाली मैदान पर ताबड़तोड़ तीन-चार हजार लोग जुटाए गए. कानपुर के करीब डेढ़ लाख सिख मतदाताओं को लुभाने के लिए वे यहां आए थे. 1984 के दंगों में दिल्ली के बाद सर्वाधिक प्रभावित सिख यहीं के थे. डॉ. सिंह 2009 के लोकसभा चुनाव में भी सभा कर चुके थे. प्रधानमंत्री बनने के पहले 2004 में भी वे आए थे. यहां आकर उन्होंने एक ही बात बार-बार दोहराई. वे बात-बात पर राहुल का ही जिक्र करते रहे. उनके भाषण से लग रहा था कि देश में जो कुछ बेहतर हो रहा था, वह सिर्फ राहुल गांधी की बदौलत हो रहा था. जैसे-17 सौ करोड़ रुपये के बुंदेलखंड पैकेज में राहुल की अहम भूमिका रही. राहुल कई सालों से गांव-गांव घूमकर उत्तर प्रदेश की तरक्की के लिए फिक्रमंद हैं.

 कोयला घोटाले की काली सुर्खियों में चमके केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल और दस साल के राज के बावजूद मध्य प्रदेश में कांग्रेस का कीमा बनाने वाले पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने इस उजाड़ सभा में अपने बूते कांग्रेस की सरकार बनने के मजेदार दावे किए, लेकिन प्रधानमंत्री ने जमीनी सच्चाई के मद्देनजर ही शब्दों का इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा कि 'यदि' कांग्रेस की सरकार बनती है  'तो' हम विजन-2020 के मुताबिक काम करेंगे. मगर लग रहा था कि यूपी उनकी बजाए किसी और के झांसे में आने को तैयार था.

 कानपुर के बाद मैं कन्नौज रवाना हुआ. कन्नौज की यह मेरी दूसरी यात्रा थी. फूलों से तैयार इत्र के लिए दुनिया भर में मशहूर कन्नौज राजा जयचंद की राजधानी थी. उसके पहले हर्षवर्धन ने भी यहीं से काबुल और कंधार को कंट्रोल किया था. कन्नौज में प्रसिद्ध कवि डॉ. जीवन शुक्ल से मेरी दो मुलाकातें हुईं. वे खजुआ मूल के निकले, जहां से होकर मैं आया था. यहां कन्नौज के कुछ पुराने स्मारकों को मैं पहले देख चुका था. इस बार इनके बारे में कुछ जानना चाहता था.
 
उनसे मिली यह नई जानकारी थी कि पृथ्वीराज चौहान और जयचंद सगी बहनों के बेटे थे. डॉ. शुक्ल मानते हैं कि चंदबरदाई की कविता एक काल्पनिक कहानी है. वे यह भी नहीं मानते कि जयचंद गद्दार थे. उन्होंने संयोगिता के साथ पृथ्वीराज के स्वयंवर को भी कवि के दिमाग की उपज बताया. 'कन्नौज ने इतिहास की कई उथल पुथल को बहुत निकट से देखा. मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद कन्नौज में भारी तबाही मचाई थी. उसने यहीं से अपने उस्ताद को लिखा था कि कन्नौज की इमारतें इतनी पुख्ता हैं, जितना हमारा इस्लाम पर अकीदा. लेकिन हमने उन्हें जमींदोज कर दिया है.'

 'शेरशाह सूरी और हुमायूं के बीच वह जंग भी यहीं हुई, जिसमें हुमायूं को बुरी हालत में भागना पड़ा था. उफनती गंगा में जान बचाकर किसी भिश्ती की मदद से भागे हुमायूं ने उसे एक दिन की बादशाही का वादा भी किया था. चमड़े के सिक्के चलाने की घटना इसी प्रसंग का अगला हिस्सा है. फिर यह इलाका सूरी के कब्जे में रहा. सिंहद्वार शीर्षक से डॉ. शुक्ल ने एक लंबी कविता मुस्लिम हमलावरों को लेकर भारतीय मुस्लिमों की वर्तमान पीढ़ी को संबोधित की है.'
 
उन्होंने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया. फ्रांस से कोई मार्शल कर्थेड तीन-चार साल पहले उनके पास आए थे. वे पेरिस यूनिवर्सिटी में भाषा विज्ञानी थे और रोमन भाषा पर काम कर रहे थे. उनका कहना था कि यूरोप और अमेरिका में करीब 20 लाख लोग यह भाषा बोलते हैं. इस भाषा के लोगों के पूर्वजों को कन्नौज से ही मोहम्मद गोरी कैद करके ले गया था. रोमनी भाषी उनके ही वंशज हैं. गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने चंद्रावर की लड़ाई में जयचंद को मारा था. यह इटावा जिले में है. जयचंद की आंख में तीर लगा था. वह हाथी से गिर गए थे. उनके शव को पहचाना नहीं गया था. लेकिन सोने के एक दांत से उनकी पहचान हुई थी. गोरी के साथ तो एक शुरुआत थी. इसके बाद सदियों तक यह इलाका गौरियों से लेकर खिलजी, तुगलक, सूरी, मुगल और अंग्रेजों के हाथों में डोलता रहा. मगर इतिहास के अंधड़ों के निशान कन्नौज की पुरानी गलियों में खूब झांकते हैं.
 
और अब वाराणसी. इलाहाबाद से हारकर आए और वाराणसी से पिछला लोकसभा चुनाव जीते भाजपा के एक और दिग्गज नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी से तीन साल में पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ वोटरों का मोह भी भंग था. वाराणसी वालों की नजर में उनका एकमात्र प्लस पाइंट दिलचस्प लगा, 'वे विद्वान हैं. बस.' लोग कटाक्ष कर रहे थे, 'बाबा विश्वनाथ से भेंट मुश्किल नहीं है, मुरली मनोहर से मिलना ज्यादा कठिन है. विद्वता के नाते वे राज्यसभा के लिए ही ठीक थे.' 
 

 तीन बार से भाजपा विधायक अजय राय 2009 के लोकसभा चुनाव में टिकट के प्रबल दावेदार थे. लेकिन टिकट मिला डॉ. जोशी को, जो 2004 में पूर्व केंद्रीय मंत्री सपा नेता रेवतीरमण सिंह के मुकाबले अपने ही गृहनगर इलाहाबाद में हारने के बाद सुरक्षित ठिकाने की तलाश में थे. नाराज अजय राय सपा के टिकट पर डॉ. जोशी के खिलाफ खड़े हुए. हारे. हारने के बाद कांग्रेस में चले गए. महज 15 हजार वोटों से जीते डॉ. जोशी सांसद बनते ही जनता के लिए दुर्लभ हो गए. उनका एक संवाद कार्यकर्ता मजे से दोहराते हैं, 'मेरे पास राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसले हैं. सड़क-नाली ठीक कराना सांसद का काम नहीं है.'  बात सही थी. मगर भारतीय जनता का मिजाज अलग है. काम कराओ या मत कराओ. प्यार से मिलो. मिलते रहो. हालचाल पूछते रहो. नजर आते रहो. एक विद्वान को भी यह मामूली बात समझ में नहीं आ रही थी!
 
वाराणसी की एक शाम मैं विश्वनाथ मंदिर में गया. इम्तियाज घाट की तरफ निकल गया. जब मैं मंदिर से बाहर आया तो भीड़ भरी संकरी मेनरोड पर देखता हूं  कि इम्तियाज मियां मजे से हाथों में फूलपत्‍ती और प्रसाद लिए चले आ रहे हैं. उसके माथे पर चंदन का टीका चमक रहा था. मैंने मजाक में पूछा, 'कहां से चले आ रहे हैं साहब? तबियत तो ठीक है.' मासूमियत से वह बोला, 'आप मंदिर में गए तो मैंने गंगा में जाकर डुबकी लगाई. एक पुजारी से अपनी मरहूम अम्मी की आत्मिक शांति के लिए पाठ कराया. प्रसाद लेकर आ रहा हूं.'
 
वाराणसी में कांग्रेस के पास राहुल गांधी जैसा ही एक और आकर्षक नौजवान था. फर्क यह था कि राहुल खुद चुनाव नहीं लड़ रहे थे और यह युवा खुद जीतने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा था. राहुल और उसमें कुछ समानताएं थीं. कुछ फर्क भी थे. राहुल उम्दा हिंदी बोल लेते हैं, लेकिन ये महाशय हिंदी के बजाए अंग्रेजी में ज्यादा कम्फर्टेबल थे. गुलाबी गौरवर्ण एक जैसा. चेहरे पर वैसी ही हल्की दाढ़ी. दोनों विदेश में पढ़े. पिता भारतीय. मां इटली कीं. दोनों की राजनीतिक विरासत तीन पीढ़ी पुरानी. फिलहाल दोनों ही अपनी पार्टी सहित सड़क पर थे.

ये थे 35 साल के मजबूत कद काठी के ललितेशपति त्रिपाठी. इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे स्व. कमलापति त्रिपाठी के पड़पोते. स्व. लोकपति त्रिपाठी के पोते. राजेशपति त्रिपाठी के बेटे. कनाडा में पढ़े. दिल्ली आकर मैनेजमेंट की डिग्री ली. उन्होंने इस चुनाव के लिए 2007 से तैयारी की थी. पहली दफा मौका अब मिला. मिर्जापुर जनपद की मडि़हान सीट से. राहुल कांग्रेस के जीर्णोद्धार के लिए दौड़ धूप कर रहे थे तो ललितेश भी दादा-परदादा के जमाने की धुधली पड़ चुकी चमक को लौटाने के लिए बेसब्र थे. कांग्रेस की बढ़त में मडि़हान सीट के इजाफे की खातिर राहुल ललितेश के क्षेत्र में भी आए.
 
राहुल राष्ट्रीय राजनीति में थे. राज्य की पाठशाला में यह ललितेश का पहला इम्तहान था. वे भाषण हिंदी में करते हैं, लेकिन मोबाइल पर ज्यादातर बातचीत हिंदी से ज्यादा धाराप्रवाह अंग्रेजी में सुनी. राहुल के विपरीत उनकी 'बॉडी-लेंग्वेज' और चेहरे के हाव-भाव व्यक्तित्व को 'फॉरेन टच' देते हैं. मंच से मीठी बातें करेंगे, लेकिन भीड़ में 'अन्कम्फर्टेबल' लगेंगे.

 वे एक सभा में भाषण देने जा रहे थे. मैं उनके साथ ही उनकी गाड़ी में था. यह भी एक मुस्लिम बहुल इलाका था. इसका अहसास मुझे सभा में जाकर नहीं गाड़ी में ही हो गया, जब ललितेश ने गांव में दाखिल होने से पहले जेब से निकालकर गोल सफेद जालीदार टोपी लगाई. जैसा देश, वैसा भेष. जहां उनकी जद्दोजहद चल रही थी, वाराणसी-मिर्जापुर की इस जमीन पर सभी 12 सीटें पिछली दफा कांग्रेस हारकर बैठी थी. खासतौर से यही इलाका कमलापति-लोकपति की राजनीति का सक्रिय केंद्र का रहा था. दस किताबों के लेखक विद्वान राजनीतिज्ञ कमलापति अखंड यूपी के ताकतवर मुख्यमंत्री रहे. केंद्र में दो बार रेल मंत्री बने. लोकपति तक फिर भी कुछ ठीक-ठाक चला. राजेशपति तक आते-आते त्रिपाठी परिवार के किले पर काई जमने लगी. कांग्रेस के उतार के दौर में त्रिपाठी परिवार ने यहां तक असर खोया कि राजेशपति एकमात्र चुनाव जीतने को भी मोहताज हो गए थे.
 
कमलापति के समय वाराणसी का औरंगाबाद-हाऊस परिवार की राजनीतिक शक्तिपीठ रहा, लेकिन भाजपा के धुआंधार मंदिर आंदोलन और बसपा-सपा के जातीय जाल में सब कुछ बीते जमाने की सुनहरी कहानियों में समा गया. ललितेश ने दादा-परदादा के किस्से जमीनी राजनीति में नाकाम अपने पिता से सुने होंगे. कांग्रेस के लिए राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी सब जुटे थे. ललितेश के लिए सिर्फ राजेशपति सक्रिय थे. ज्यादा समय दिल्ली में रहीं 'मॉम' की कोई दिलचस्पी राजनीति में नहीं थी. मैंने उनसे पूछा कि मम्मी प्रचार में नहीं आईं. ललितेश ने सिर हिलाकर मना कर दिया, इस बारे में ज्यादा बात नहीं की.
 
वाराणसी से मैं राबट्र्सगंज जाने के लिए बेसब्र था, जहां शायर मुनीर बख्श आलम के यहां कई दिन बाद घर की बनी दाल-रोटी का लुत्फ लेने वाला था. वे मिर्जापुर के प्रसिद्ध संत स्वामी अडगड़ानंद के शिष्य हैं. उनकी लिखी यथार्थ गीता का ऊर्दू अनुवाद हकीकी गीता के नाम से करके चर्चाओं में आए थे.
 

रास्ते में ऐतिहासिक चुनारगढ़ का किला था. गंगा के एकदम किनारे पहाड़ी ऊंचाई पर खड़ा एक शानदार किला. इसे देखकर मुझे मध्यप्रदेश-महाराष्ट्र की सीमा के पास स्थित असीरगढ़ के किले की याद आई. चुनार कभी पृथ्वीराज चौहान के राज्य में था. उन्होंने किले के भीतर पांच सौ फुट गहरे एक कुएं का निर्माण कराया था. इसमें गंगा का पानी आता था. अब किले का एक छोटा सा हिस्सा ही सैलानियों के लिए उपलब्ध है. बड़ा हिस्सा पुलिस के कब्जे में है. स्कूली बच्चे खाली समय में गाइड का काम करते हैं. वे सुनी-सुनाई बातों को एक तहखाने, एक मंदिर, कुएं और छत पर आकर दोहराते हुए चंद किस्से-कहानियों में ही यहां के सदियों के इतिहास को आधे घंटे में रफा-दफा कर देते हैं.
 
जब मैं चुनार पहुंचा तो एक बच्चे ने मुझे घेर लिया. वह एक गाइड था. मैंने देखा कि एक बुजुर्ग गाइड कुछ किन्नरों के साथ था. किन्नर इतिहास की हर बात को गहरी दिलचस्पी से सुन रहे थे. एक किन्नर बाकायदा डायरी में कुछ नोट कर रहा था. मेरा नन्हा गाइड सबसे पहले नीचे एक तहखाने में लेकर गया. मुझे बताया कि पहले यह एक कैदखाना था. इसमें बंद कैदी कोई आम अपराधी नहीं, बल्कि शाही परिवारों के लोग होते थे, जिन्हें जंग में हारने के बाद विजेता की शर्त न मानने के लिए जिंदगी के बचे हुए दिन यहां काटने होते थे. मोबाइल की तेज रोशनी में मैंने अंधेरे तहखाने का मुआयना किया. किसी पुराने मंदिर के टुकड़े वहां पड़े हुए दिखाई दिए.
 
गाइड ने बताया कि पहले यहां राजा भर्तहरि का मंदिर था. लेकिन मुस्लिम काल में उसे ध्वस्त कर दिया गया. टूटी-फूटी हजारों मूर्तियां अब भी किले में पीएसी के कब्जे वाले हिस्से के एक बड़े हॉल में भरी पड़ी हैं. इसी कैदखाने के ऊपर एक मंदिर भी था. पीढि़यों से इसकी देखभाल का जिम्मा कल्लूनाथ गोस्वामी के परिवारवालों के पास रहा. गोस्वामी ने मुझे औरंगजेब के एक लेख के बारे में बताया. मूल मंदिर भर्तहरि की समाधि पर था. इसे तुड़वाया गया था.
 
भोजपत्र पर नौ पंक्तियों के फारसी का एक फरमान शाही मुहर सहित गोस्वामी के पूर्वजों को दिया गया था. इसमें आदेश है कि भर्तहरि की समाधि पर आने वाला हर शख्स चाहे वह किसी भी धर्म का हो, समाधि की इज्जत करेगा. गोस्वामी ने बताया कि आखिरी बार औरंगजेब ने यह मंदिर तुड़वाया था. यह एक सिद्ध स्थान था. लेकिन गलती का अहसास होने पर उसने यह फरमान जारी किया. बाबर के बेटे हुमायूं को हराने वाले एक मामूली सिपाही शेरशाह सूरी ने चुनार को कब्जे में लिया था.
 
राबट्र्सगंज में आलम साहब मेरा इंतजार कर रहे थे. उन्होंने बहुत ही प्यार से खाना बनवाया था. मैंने और इम्तियाज ने पेट भरकर खाया. आलम साहब से सियासत के किस्से सुने. हम लंबे समय से फोन पर चर्चा करते थे. वे होली, दिवाली, ईद पर मुझे अच्छे शेर एसएमएस किया करते थे. कभी आशीर्वाद के लिए फोन करते तो शुरुआत किसी शेर से ही करते. हकीकी गीता के अनुवाद पर मैंने कभी उनके बारे में कुछ लिखा था, जिसके बाद वे एक सम्मान समारोह में भोपाल के भारत भवन में बुलाए गए थे. यहां आने का मैंने उनसे वादा किया था मगर यह नहीं जानता था कि झारखंड के पास उत्तर प्रदेश के एक सीमांत शहर में मेरा जाना क्यों होगा? चुनावों ने यह मौका दे दिया था.
 
मैंने उनसे विदा लेकर मिर्जापुर में डेरा डाला, जहां अगले दिन मायावती की सभा थी. भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और बुलंद आवाज की खास पहचान रखने वाले राजनाथ सिंह की कर्मभूमि रहा था मिर्जापुर. पीतल उद्योग के लिए मशहूर गंगा किनारे बसा एक पुराना शहर. राजनाथ यहीं के केवी कॉलेज में पढ़े. बीस साल तक फिजिक्स के लेक्चरर रहे. चार विधानसभा चुनाव लड़े. जीते सिर्फ एक बार. एक बार लोकसभा चुनाव में उतरे. हार गए.
 
मामला कुछ गड़बड़ था इसलिए इस चुनाव में वे मिर्जापुर एक दफा भी नहीं आए थे. पांच विधानसभा सीटों में तीन पर बसपा का कब्जा था. एक पर सपा का. इकलौती चुनार सीट भाजपा के खाते में थी, जहां से पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह अपनी दम पर चुने जाते थे. राजनाथ सिंह से उनकी पटरी भी कभी नहीं बैठी.
 
उत्तरप्रदेश में ज्यादातर दिग्गज नेताओं के अपने इलाकों में लगभग यही हाल थे. खासतौर से कांग्रेस और भाजपा में. कोई अपने बूते पूरा प्रदेश तो दूर अपने ही क्षेत्र में चंद सीटें जिताने की हैसियत में नहीं था. राजनाथसिंह यहां क्यों नहीं आए थे?  एक पार्टी पदाधिकारी ने कहा, 'जिनकी डिमांड है, वे प्रचार के लिए बराबर आए.'
 
राजनाथ उत्तरप्रदेश के शिक्षा मंत्री रहे. फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन परीक्षाओं में नकल पर सख्त रोक के सिवा मिर्जापुर वालों के पास उन्हें याद करने लायक कुछ खास नहीं था. ठाकुरवादी माने जाने वाले राजनाथ विधानसभा चुनाव लड़े बगैर मंत्री बने. मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन मिर्जापुर से सीट तक नहीं मिली. हैदरगढ़ से चुने गए. एनडीए सरकार में मंत्री रहे, लेकिन राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचकर.
 
उत्तर प्रदेश और मिर्जापुर में पार्टी के जमीनी हालात जो भी रहे हों, लेकिन संगठन और सत्ता के शिखरों तक का राजनाथ का चमकदार सफरनामा मिर्जापुर के लोग चटखारे लेकर सुना रहे थे, 'अगर हम दोनों के ग्राफ को देखें तो पार्टी की पराजय में ही उनकी विजय सुनिश्चित रही. प्रदेश से पार्टी पटरी से उतरी, वे राष्ट्रीय क्षितिज पर चमके. 2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हुआ. 2005 में वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए. वे इसी तरह के करिश्माई हैं.'
 
मिर्जापुर सीट सबसे अहम थी, जहां से 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद राजनाथ चुनाव लड़ना चाहते थे. एक भाजपा नेता ने बताया कि तत्कालीन पार्टी विधायक डॉ. सरजीत सिंह डंग ने सीट छोड़ने से इनकार कर दिया था. मजबूर होकर राजनाथ हैदरगढ़ गए. इसके बाद सबक सीखने की बारी मिर्जापुर की थी, जो लगातार उपेक्षित रहा. फिर तो चार बार से चुनाव जीतते आ रहे डंग का भी टिकना मुश्किल हो गया. वे 2002 में हार गए. अब पार्टी तक में नहीं थे. मिर्जापुर सपा के कब्जे में था.
 बसपा के रंगनाथ मिश्र यहां से मैदान में थे. वे कभी भाजपा में ही थे. रंगनाथ मिश्र मायावती सरकार में शिक्षा मंत्री थे. वे उन मंत्रियों में शामिल थे, जिन्हें मायावती ने चुनाव से पहले हटाया. टिकट भी काटा. लेकिन वे अकेले ऐसे मंत्री भी थे, जिन्हें मायावती ने टिकट लौटाया भी. भाजपा में रहते राजनाथ सिंह से रंगनाथ का भी 36 का आंकड़ा रहा. भाजपा क्यों छोड़नी पड़ी? मायावती की एक धुआंधार सभा के बाद उत्साहित रंगनाथ ने कहा, ' यह भाजपा वाले बेहतर बताएंगे.'
 
मिर्जापुर का किस्सा मैं डकैतों पर खत्म करता हूं. इस इलाके की पहचान दस्यु सुंदरी फूलन देवी से भी थी. सपा के टिकट पर 1991 और 1999 में फूलन यहीं से चुनकर लोकसभा में गई थी. 2001 में फूलन की हत्या के बाद एक और दस्यु सुंदरी सीमा परिहार ने भी चुनाव लड़ा. फूलन की दो बहनों-मुन्नी देवी ने 2004 में और रुकमणिदेवी ने 2007 में चुनाव लड़ा. लेकिन जीता कोई नहीं. मुलायम सिंह यादव की सपा का रिश्ता भी डकैतों से खूब निभा. दो बार फूलन को जिताया, 2009 में ददुआ डकैत के भाई बाल कुमार पटेल को ले आई, जो इस समय सांसद थे. लेकिन इन चुनावों में अवैध वसूली के आरोपों से घिरे दस्यु भ्राता बालकुमार हाशिए पर चल रहे थे. एक सभा में मुलायम सिंह यादव ने न उन्हें मंच पर कुर्सी दी, न भाषण में जिक्र किया.
 
बहरहाल, खुर्शीद फर्रुखाबाद में वाकई मुश्किल में थे. पिछला चुनाव बसपा से हार चुकीं उनकी पत्नी लुई खुर्शीद सपा, बसपा या भाजपा से नहीं, दो निर्दलीय उम्मीदवारों से भी पीछे थीं. नौकरियों में मुसलमानों को नौ फीसदी आरक्षण की हिमायत खुर्शीद के किसी काम नहीं आ रही थी. मुसलमान सलमान को जमीनी नेता तक नहीं मानते थे. लोकसभा चुनाव में जिताने का अफसोस जरूर उन्हें था.
 
फर्रुखाबाद के खटकपुरा में यामीन-सलीम की कपड़ों की दुकान महीने भर से बंद थी. इसमें कांग्रेस का कार्यालय खोला गया. 2009 में खुर्शीद का प्रचार भी यहीं से चला. स्थानीय निवासी मुजाहिद जमां खां को याद था कि खुर्शीद ने तब क्या कहा था? अपनों के बीच उनके शब्द थे, 'इस बार हमाए पैरों में घुंघरू बांध देओ.' मुजाहिद कहते हैं कि उनकी इस गुजारिश पर हिंदू-मुस्लिम सबने सलमान के पांव में जीत के घुंघरू बांधे थे. तीन साल में उनकी चाल भी देख ली. वे न तो यहां लोगों से मिले, न एक धेले का काम कराया.
 
खुर्शीद पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन के नाती हैं. कानूनविद् हैं. सुप्रीम कोर्ट में सिमी की वकालत तक की. ज्यादातर अशिक्षित मजदूर-कारीगर मुसलमानों व उनके बीच एक किस्म का फासला शुरू से रहा. मंत्री बनने के बाद दूरी और बढ़ी. कायमगंज सीट से पिछली बार लुई बसपा से हारीं. सीट सुरक्षित हुई तो मजबूरी फर्रुखाबाद ले आई. यहां उनकी फतह नामुमकिन नजर आ रही थी. कहावत मशहूर है-‘खुला खेल फर्रुखाबादी.’ लोग यहां खुलकर कहते हैं कि जो गलियों में घूमता है, वह इज्जत पाता है. उनका इशारा निर्दलीय उम्मीदवार विजयसिंह की तरफ है, जो इस मामले में सब पर भारी दिख रहे थे.
 
फर्रुखाबाद से मैनपुरी के रास्ते में एक जगह किसी प्राचीन बौद्ध स्मारक का साइन बोर्ड देखा. मैंने प्लान बदला. हम एक उबड-खाबड़ रास्ते से होकर उस जगह पर पहुंचे. यह संकिया नाम का एक पुराना गांव था, जहां कभी शानदार बौद्ध स्तूप रहा था. अब भी मौर्य युग की कुछ मूर्तियां और एक बहुत ही बदहाल टीला बचा हुआ था, जिसमें सदियों पुरानी ईंटों का ढांचा भीतर से अपने होने की गवाही दे रहा था. जब यह एक भव्य बौद्ध मठ रहा होगा, उन दिनों चीनी यात्री व्हेनसांग भी यहां आ चुका था.
 
नेता सेर तो बाबा रामदेव सवा सेर. आठ-दस हजार की भीड़ बड़े नेताओं की सभाओं में थी. बीस हजार से कम बाबा के सामने भी नहीं थे और वो भी मुलायम सिंह यादव के इलाके मैनपुरी शहर में. अपने भाषण में किसी पार्टी का नाम नहीं लिया. बरसे जमकर. चुनाव की गरमागरम अंगीठी पर योग के साथ राजनीति का तडक़ा लगाते हुए. काले धन पर खूब खरी-खोटी. कपाल भाती. अनुलोम-विलोम. आसान आयुर्वेदिक उपचार. चुटकी. चुटकुले. चुनौती.

एकदम तरोताजा. निराशा नाममात्र की नहीं. भयमुक्त. आक्रमण की मुद्रा. अब तक दो दर्जन सभाएं ले चुके थे. हर जगह शरीर की तुलना देश से. बीमारी की जड़ भ्रष्टाचार. यूपी के नेता पिछड़ों की राजनीति के आदी हैं. बाबा का दर्शन है, 'उत्तर प्रदेश भगवान शिव, राम और कृष्ण की जन्मभूमि है. पिछड़ा कहने वाले दिशाहीन व दिमागी तौर पर दरिद्र हैं.' योग के गुण बताते हुए वे योगीराज कृष्ण से होकर वोटिंग मशीन पर आ जाते, 'कृष्ण ने एक उंगली पर गोवर्धन उठाया. सुदर्शन चक्र चलाया. मतदान के दिन अपनी अंगुली सोच-समझकर सही बटन पर रखिए. लुटेरों को मत चुनिए.'
 
राजनीति से होकर फिर योग का रुख. तनाव पर बात. आज के दौर की बड़ी समस्या. छोटी-मोटी परेशानियां. तनाव बड़े भारी. रामदेव कहते, मैं तो देश के सबसे ताकतवर लोगों से पंगा ले रहा हूं, फिर भी कोई तनाव नहीं है. रात को चैन से नींद लेता हूं. 15 साल से भोजन त्यागा. हीमोग्लोबिन 17 है. यह योग का कमाल है. इसलिए सज्जनो, सही को वोट दीजिए पर योग भी कीजिए.

 सवा घंटे का प्रवचन. आखिर में बीमारियों के उपचार की आसान विधियां. लौकी का जूस. एलोवेरा. तुलसी. कच्चे दूध में नींबू का रस. नशा मुक्ति का संकल्प. मंच से उतरते ही मीडिया के घेरे में. कैमरे. कलम. सवाल. बाबा दुगनी ऊर्जा से मुखातिब. कहते, 'किसी के विरोध या पैरवी में नहीं निकला हूं. 121 करोड़ लोगों की बात कर रहा हूं. देश को लूटकर हम पर गुस्सा दिखाते हैं. मैंने क्या किया सारा हिंदुस्तान जानता है. इंटरनेशनल फकीर हूं. दो सौ देशों में गया. भारत माता का मान बढ़ाया. जिंदगी में कोई गलत काम नहीं किया. बेईमानों के आरोप रामदेव को अपराधी साबित नहीं कर सकते.' तालियां की गूंज. जिंदाबाद के नारे. खड़ाऊं की खट-खट. रामदेव मतदाता जागरण के अगले पड़ाव की ओर रवाना हुए.
 
भारतीय राजनीति में रिश्तों की परिभाषा मौके और वक्त के मुताबिक होती है. न कोई हमेशा का दोस्त और न कोई दुश्मन. दर्शन सिंह यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति के एक ऐसे ही दिलचस्प किरदार थे. उम्र करीब 70 साल. मैनपुरी से तीन बार सांसद और तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव के साथ उनकी जानी दुश्मनी दो दशक तक चली. मगर हवा अब बदली हुई थी. दर्शन सिंह के हाथ में मुलायम सिंह की पार्टी का परचम था. नेताजी के नाम से मशहूर मुलायम उनकी नजर में सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री रहे थे. दर्शन अकेले नहीं थे. मैनपुरी में मुलायम के आगे कोई यादव टिका ही नहीं. या तो उसकी राजनीति खत्म हुई या हारकर मुलायम की शरण में आया! 27 फीसदी यादव बहुल इस इलाके में यादवों के नाम पर सिर्फ मुलायम का सिक्का चलता है. दर्शन सिंह अकेले थे, जो दुश्मनी को इतना लंबा खींच पाए. मुख्यमंत्री बनने के बाद जब मुलायम ने 1991 में जसवंत नगर से चुनाव लड़ा तो दर्शन ने ही कांग्रेस से उन्हें चुनौती दी थी. खून-खराबा तक हुआ. नौ बार चुनाव लड़ा. मुलायम ने कभी जीतने नहीं दिया. 2007 में दर्शन को अपना राजनीतिक-दर्शन उलटना पड़ा. सपा से सुलह कर ली. कभी कहते थे कि मुलायम तो बिजली का नंगा तार हैं. अब कह रहे थे, 'हम यू-टर्न ले चुके हैं. दुश्मनी कब तक निभाते. नेताजी बहुत अच्छे हैं.'
 
हिंदी के मशहूर कथाकार कमलेश्वर के शहर मैनपुरी की पुरातन पहचान च्यवन ऋषि से भी है. मान्यता है कि महर्षि ने यहीं च्यवनप्राश की ईजाद की थी. मगर आज कहानी दूसरी ही चल रही थी. मैनपुरी की ताजा पहचान एक खास किस्म की बेहद घातक तंबाकू से है. यह मुंह के कैंसर की बड़ी वजह बन चुकी थी. मैनपुरी में इस कैंसर के मरीजों की तादाद देश में सबसे ज्यादा बताई जा रही थी. पान वालों ने बताया कि यहां की तंबाकू की सप्लाई पाकिस्तान तक रही, जहां इसे प्रतिबंधित किया गया. 2006 में दस करोड़ की लागत से एक कैंसर यूनिट स्थापित हुई थी, लेकिन मरीजों के लिए इसकी सुविधाएं अब तक नसीब नहीं थी. अच्छे कामों में अड़चनें हजार थीं.
 
मैनपुरी पार करते ही शुरू होता है एटा और अलीगढ़ का इलाका. इस जंगल की सीमाओं में एक और बूढ़े शेर ने अपनी गंध छोड़ी हुई है. बाबरी ढांचा ढहाए जाते वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याणसिंह का इलाका है यह. राम राज्य लाने को आमादा भाजपा के बड़े नेता थे वह. अब उनका एक सूत्रीय अभियान था-भाजपा का भट्टा बैठाना. भाजपा की हार मतलब उनकी जीत. वे दो बार भाजपा छोड़ चुके थे. दोनों बार अपनी पार्टियां बनाईं. पहले राष्ट्रीय क्रांति पार्टी. अब जनक्रांति पार्टी. 2010 में 'जनक्रांति' लाते वक्त कल्पना नहीं की होगी कि दूसरी क्रांति अपने ही इलाके में सियासी समीकरणों में उलझ जाएगी. लोधी वोट के भरोसे यह चुनाव उनके लिए अस्तित्व की लड़ाई थी.
 

उमा भारती को चुनाव में उतारकर भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के 80 वर्षीय नायक को संकेत दे दिए थे कि पार्टी में अब उनके लिए गुंजाइश नहीं है. अच्छे-बुरे वक्त में कल्याण के करीबी रहे पूर्व विधायक नेतरामसिंह और उनके सुपुत्र डॉ. बीडी राणा साथ छोड़ चुके थे. टिकट बटवारे को लेकर ये रिश्ते टूटे. कल्याण सिंह के साथ कोई पुराना नेता नहीं बचा था. अपने इस बुरे राजनीतिक हश्र के लिए भाजपा, कल्याण सिंह के लिए दुश्मन नंबर एक  थी.
 
मगर दलों की दलदल हर तरफ थी. जम्हूरियत के जंगल में संख्या का पशुबल मायने रखता था. इसलिए दूसरी कमजोर जातियां भी दम भर रही थीं. जैसे यहां 'महान दल'  की उभरती ताकत बसपा के साथ कल्याणसिंह व भाजपा को भी खासा नुकसान पहुंचा रही थी. केशवदेव मौर्य की इस पार्टी ने कांशीराम की तर्ज पर ग्राउंड वर्क किया था. उसने शाक्य, मौर्य और कुशवाहा समाज के बीच मजबूत कैडर खड़ा किया और इन जातियों को बटोरकर अब चुनाव मैदान में आ धमकी. नई जातियों में नया-नया उभार जबर्दस्त था. मौर्य की सभाओं में राहुल गांधी के बराबर जुटी भीड़ ने कल्याण के साथ बाकी दलों की भी नींद हराम कर दी थी.
 
सपा सरकार में कल्याण सिंह के सुपुत्र राजू भैया यानी राजवीर सिंह स्वास्थ्य मंत्री रह चुके थे. राजवीर का अपना कोई असर नहीं था. उनकी नैया पितृ-प्रभाव में ही हिचकोले खा रही थी. जहां तक चल जाए, चल जाए. लोग मानकर चल रहे थे कि राजवीर सिंह की जड़ें जमाने के लिए ही कल्याण ने जनक्रांति का दाव खेला. इस तरह यह चुनाव पिता-पुत्र के लिए अब तक  की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा की तरह था. कल्याण सिंह के इलाके की सीमाएं ज्यादा बड़ी नहीं हैं. फिर छोटे-मोटे और भी कई इलाके हैं, जहां अपनी ताकत के हिसाब से दूसरों की दहाड़ें सुनी जाती हैं. जैसे दबंग कारोबारी और बाहुबली नेता डीपी यादव को कम लोग ही धर्म पालसिंह यादव के नाम से जानते होंगे. वे डीपी यादव के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं. बंदायू के आसपास उनकी धमक है.
 
सहसवान नाम की सीट पर उनके मुकाबले पर सबकी नजर इसलिए थी कि इस सीट से भाजपा ने अपने एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार शकील आलम को उतारा था. जबकि सपा, बसपा और कांग्रेस ने मिलकर करीब सवा दो सौ टिकट मुसलमानों को दिए थे. सहसवान जैसा हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण शायद ही किसी दूसरी सीट पर देखने को मिले. हिंदुओं का दिल डीपी यादव ने जीता हुआ था. मुस्लिम शकील से छिटके हुए थे.
 
जैसा कि हम कह चुके हैं उत्तर प्रदेश के नेताओं के लिए एक पार्टी कभी स्थाई पता नहीं रही. डीपी यादव भी जनता दल, सपा व बसपा में रह चुके थे. जब सब तरफ से दरवाजे बंद दिखे तो अपनी पार्टी बनाने में क्या हर्ज था? उनकी पार्टी का नाम था-राष्ट्रीय परिवर्तन पार्टी. वे कोई नए खिलाड़ी तो थे नहीं. चार दफा विधायक, मंत्री बने, दो बार सांसद रहे. सहसवान से दूसरी दफा मैदान में थे.
 
भाजपा के बजाए हिंदू समाज के लोग यादव के पक्ष में खुलकर बोल रहे थे. इनमें यादव, वैश्य, शाक्य व मौर्य सब मिलाकर सवा लाख से ज्यादा थे. यादव के क्रेज की वजह भी जान लीजिए. बूचडख़ानों में कटने वाले मवेशियों की तस्करी के लिए यह क्षेत्र बदनाम था. अवैध रूप से गोवंश की हत्या व मांस की सप्लाई धड़ल्ले से चलती रही थी. 2007 में जीतने के बाद यादव ने इस कारोबार को सख्ती से बंद कराया. ज्यादातर मुस्लिम पांचों वक्त इनके हारने की दुआ कर रहे थे और उन्हें अल्लाह के इंसाफ पर भरोसा था. एक हिंदू व्यवसायी ने कहा, 'यादव ने जो किया, वह आरएसएस और सरकारें भी नहीं कर सकीं. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद यहां यह अवैध कारोबार बड़े पैमाने पर जारी था.'
 
अब सवाल यह कि 80 हजार मुस्लिम वोट किस तरफ जा रहे थे? भाजपा के इकलौते चेहरे शकील आलम सामने थे. इनकी मुश्किल भी अजब थी. पार्टी ने शकील को टिकट तो दिया लेकिन डीपी से नाराजगी के बावजूद मुस्लिम वोटर शकील के आगे लहराने वाले भाजपा के झंडे को ही देखकर बिदक रहे थे.
 
इस छोटे से इलाके में असरदार यादव अकेले नहीं थे. राजनीति में एक से भले दो. दो से भले चार. उनकी पत्नी उर्मिलेश बिसौली से विधायक रहीं. साले भारतसिंह की पत्नी पूनम यादव जिला पंचायत अध्यक्ष. भतीजा जितेंद्र यादव एमएलसी. पूरे परिवार ने मिलकर सहसवान को चमन बनाने की भरसक कोशिश की. डिग्री कॉलेज की कमी खुद यादव ने अपने पैसे से पूरी की. सरकारी पॉलीटेक्निक कॉलेज लाए. शुगर मिल लगाकर गन्ना किसानों के बीच गए. यदु शुगर मिल के चेयरमैन की हैसियत से नए साल के शुभकामना संदेश अपने मोबाइल नंबर छापकर बांटे. सपा-बसपा का नाम लिए बिना यादव के बयान आ रहे थे, 'मेरी जान को खतरा है. एक ने साथ देकर धोखा दिया तो दूसरे ने घर बुलाकर अपमान किया. मुझे जिंदा रहना चाहिए या बेईमानों के हाथों मर जाना चाहिए, यह सहसवान के लोग तय करेंगे.'

वैसे इस चुनाव से पहले उनका सपा में लौटना लगभग तय माना जा रहा था. मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव, भतीजे व बदायूं के सांसद धर्मेंद्र यादव और आजम खां साथ थे. लेकिन बेटे अखिलेश यादव के आगे उनकी नहीं चली. इसे डीपी अपनी बेइज्जती मानकर दिल से लगाकर बैठ गए. उनके समर्थक यहां खुलकर यह बात फैला रहे थे कि मुलायम सिंह परिवार में समाजवादी पार्टी दो गुटों में बट चुकी है. अखिलेश को डर है कि चाचा-भतीजे ताकतवर डीपी के साथ मिलकर उसके लिए खतरा हो सकते हैं. वर्ना डीपी को दूर रखने वाले अखिलेश ने ददुआ डकैत के भाई और बेटे को गले क्यों लगाया?

ददुआ का वंश राजनीति में खूब फलफूल रहा था. रामायण काल से प्रसिद्ध चित्रकूट में वीर सिंह नाम का एक शर्मीला सा नौजवान जनसंपर्क के लिए निकला हुआ था. उम्र करीब तीस साल. उससे भी छोटी उम्र के युवाओं व स्कूली बच्चों का जत्था शोर मचाते हुए आगे-पीछे भाग रहा था. जिसने जिस गली में खींचा, वह वहीं दौड़ लगा देता. घर-घर दस्तक. जो सामने आया विनम्रता से नमस्कार. बुजुर्ग हुआ तो सादर चरण स्पर्श में एक सेकंड की देर नहीं. दो-तीन वाक्यों का ही संवाद-'भैया ध्यान रखना, दादा मैं भी हूं मैदान में....' लोग खुश होकर उसे बेफिक्र करते. युवाओं का हुजूम आगे बताता चलता है-'वीरसिंह आए हैं.'

 मैं इस उजाड़ से इलाके की बेहद खराब सडक़ों से होकर चित्रकूट तक पहुंचा था. अंधेरा हो चुका था. वीरसिंह गलियों में भाग-भाग कर संपर्क कर रहे थे. रास्ता चलते ही मेरी दुआ-सलाम उनसे हुई. हत्या, लूट व डकैती के चार सौ आपराधिक मामलों में दर्ज ददुआ का जिक्र करते ही वह संकोच से हाथ जोड़कर कहने लगे, 'मुझे ददुआ का लड़का  मत कहिए. मैं आप ही के बीच का हूं.' वीरसिंह समाजवादी पार्टी से कर्वी के प्रत्याशी थे. कर्वी यानी चित्रकूट का जिला मुख्यालय. सफेद पेंट-शर्ट पर बैंगनी जैकेट पहने ठिगने कद के इस इंटरपास उम्मीदवार का समाजवादी पार्टी से भी बड़ा परिचय यह था कि वे इस इलाके में आतंक के पर्याय रहे कुख्यात डकैत ददुआ के बेटे थे.  1978 में सिर्फ एक दफा गिरफ्तार हुआ ददुआ 2007 में एनकाउंटर में मारा गया. दस विधानसभा सीटों के पांच सौ गांवों में उसकी आवाज पर वोट पड़ते थे. राजनीति में दिलचस्पी इतनी थी कि उसकी ख्वाहिश थी कि कोई उसके परिवार से भी सियासत में सक्रिय हो. वीरसिंह ने पिता की अंतिम इच्छा पूरी की. वे 2006 में जिला पंचायत के निर्विरोध अध्यक्ष रह चुके थे. ददुआ की छवि से एकदम उलट वीरसिंह मृदुल व्यवहार के लिए ही मशहूर हुए.
 
मुझे उनकी यह सौम्यता वोटों की खातिर उनकी मजबूरी या बनावटी नहीं बल्कि स्वाभाविक ज्यादा लगी. कर्वी में सब उनके बोल-व्यवहार की तारीफ करते ही मिले, 'बेटा बाप की तरह नहीं है. भला लडक़ा है. व्यवहार कुशल.' कुर्मी वोट बहुल इस इलाके में अच्छी छवि के एक कुर्मी केंडिडेट की चाह किसे नहीं होगी? वीरसिंह इस समाज के सबसे युवा नेता भी थे, जिन्हें सब जानते थे. लेकिन सपा में उन्हें अखिलेश यादव ने टिकट नहीं दिया. वे मुलायम सिंह की मेरिट लिस्ट में थे. वीरसिंह ने बताया, 'मुझे अप्रैल में ही नेताजी ने कह दिया था कि तैयारी करो.'

 राजनीति वीरसिंह के लिए नई नहीं थी. उनके चाचा राजकुमार पटेल मिर्जापुर से सांसद थे और भतीजा रामसिंह  प्रतापगढ़ से विधायक. सभी समाजवादी पार्टी से. खुद ददुआ भी चुनावों के वक्त अपने पसंदीदा उम्मीदवार को वोट देने का फरमान जंगलों से जारी करता था. कम्युनिस्ट पार्टी से सांसद रहे राम सजीवन और मौजूदा सांसद आरके पटेल को जिताने के संदेश गांव के लोगों को अब तक याद थे. ददुआ का संदेश आते ही किसी की मजाल नहीं थी कि विरोधी उम्मीदवार को वोट मिल जाएं.
 
दिलचस्प यह था कि इस चुनावी संपर्क में वीरसिंह उनके घरों में भी बेधड़क जा रहे थे, जो अपहरण और फिरौती की घटनाओं में ददुआ की चपेट में आए और लाखों रुपयों से जेब ढीली करने के बाद ही अपनी जान छुड़ाई. लेकिन वे कड़वी यादें सालों पुरानी थीं. लोग अब रॉबिनहुड की छवि वाले ददुआ के उजले पक्ष की चर्चा ही ज्यादा करने लगे थे. एक वरिष्ठ व्यापारी ने कहा, 'ददुआ ने कभी गरीबों को नहीं सताया. वह उनका मददगार था. महिलाओं की हमेशा इज्जत की. उसका टारगेट धनाढ्य लोग थे. वह इधर लूटता था, उधर बांटता था. उसने कई गरीब बच्चियों की शादियां कराईं. पूंजी के समान वितरण का यह उसका तरीका था.'

मध्यप्रदेश की सीमा से सटा चित्रकूट पुराण प्रसिद्ध तीर्थ है. नानाजी देशमुख के ग्रामोदय के प्रयोगों के लिए भी देश भर में मशहूर. लाखों तीर्थयात्री और सामाजिक कार्यकर्ता यहां देश-दुनिया से आते हैं. जबकि यह इलाका बेहद पिछड़ा और बदहाल है. इस दिशा में क्या करेंगे? वीरसिंह के लिए यह सवाल कुछ कठिन लगा. वह हाथ जोड़ते हुए रटारटाया सा जवाब देकर हुजूम के साथ फौरन आगे बढ़ गए, 'नेताजी की सरकार बनी तो हम सिंचाई के लिए बिजली और पानी का इंतजाम करेंगे. युवाओं को रोजगार देंगे.'

 कर्वी आने के पहले मैं पूर्वांचल होकर इलाहाबाद के रास्ते बांदा पहुंचा था. यह रीतिकाल के महाकवि पद्माकर का शहर है. उत्तर प्रदेश की सबसे बदहाल सड़कों के लिए बदनाम भी. कहीं भी चलिए. कार की रफ्तार बमुश्किल बीस किलोमीटर प्रति घंटा. कई-कई किलोमीटर तक सड़क गायब. दीया तले अंधेरे का यह लाजवाब नमूना था. यह मायावती सरकार में लोक निर्माण मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी का इलाका था. वे मायावती के सबसे भरोसेमंद मंत्री थे, जिनकी लोक निर्माण से ज्यादा चर्चा लोकायुक्त में हुईं शिकायतों की थी. लोकनिर्माण ही नहीं आबकारी, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य समेत करीब 15 विभाग सिद्दीकी को मिले. ठेकेदारी करते-करते बसपा से जुड़े. चुनाव लड़े बिना मंत्री बने. विधान परिषद के रास्ते सदन में आए. बांदा के लोग कहते, चूंकि वे कभी चुनाव में उतरे ही नहीं इसलिए कोई वादे भी नहीं किए. भला वे क्यों सड़कें बनाएंगे? 18.5 फीसदी मुस्लिम वोट वाले राज्य में सिद्दीकी बसपा के शो-केस में इकलौते मुस्लिम चेहरे थे. भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद उनका बाल बांका नहीं हुआ. जबकि एनआरएचएम घोटाले में बांदा के ही बाबूसिंह कुशवाहा को दफा होते देर नहीं लगी.  

नसीमुद्दीन से बांदा के ही मुसलमान सबसे ज्यादा खफा थे. ढाई हजार बदहाल मुस्लिम बुनकर परिवारों में से एक रमजान खां ने पूछा, 'बसपा बताए कि मुसलमानों के नाम पर नसीमुद्दीन के कुनबे के अलावा दलितों की पार्टी ने और किसका भला किया?' आठ भाइयों के सिद्दीकी के भरे-पूरे कुनबे में एक भाई हसनुद्दीन रेलवे में टीटी थे. राजनीति के आगे केंद्र सरकार की नौकरी की क्या औकात थी? भाई के मंत्री बनते ही नौकरी छोड़ी. चार साल साथ रहे. अब सपा में हैं. प्राइमरी स्कूल से रिटायर्ड एक भाई जमीरुद्दीन करोड़ों की प्रेस के मालिक बने. बेटे वजाउद्दीन को कांग्रेस में दाखिल कराया. साक्षी भाव से सब देख रहे बांदा वाले क्या कर सकते थे?
 
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभाओं में राहुल गांधी के निशाने पर मायावती के अलावा सबसे ज्यादा सिद्दीकी ही थे. खासतौर से सूखा पीडि़तों के लिए मिले बुंदेलखंड पैकेज को लेकर. आरोप था कि सिद्दीकी ने इस पैकेज से 26 ट्रैक्टर अपने कुनबे और करीबियों में बांटे. मंत्री रहते बांदा के कॉलेज से एलएलबी करने वाले नसीमुद्दीन को लेकर ताजा विवाद उनकी सरकारी नौकरी का है. होमगार्ड में सहायक कंपनी कमांडर के पद पर वे 1982 में नियुक्त हुए थे. इस्तीफा दिए बगैर राजनीति में रम गए. सामाजिक कार्यकर्ता अशोक निगम ने आरटीआई के तहत जिला कमांडेंट के दफ्तर से यह जानकारी सार्वजनिक कर बुंदेलखंड की 19 में से 15 सीटों पर काबिज बसपा की मुश्किलें और बढ़ा दी थीं.
 
चित्रकूट के आसपास सड़क एकदम जानलेवा हो गई. कबरई गांव के लोगों ने कहा कि पिछली बार डामर-गिट्टी 17 साल पहले देखी थी. 24 वर्षीय रियाज ने कहा कि मुझे याद नहीं यह सड़कें कभी ठीक हुई हों. अलबत्ता नसीमुद्दीन को लेकर होने वाली चर्चाओं में उनकी शाही जिंदगी, महंगी कारों, जमीनों, खदानों, आलीशान घरों जैसे फर्श से अर्श तक उठने के चमत्कारी किस्से हर वोटर की जुबान पर थे.
 
अब एक और मंत्री का किस्सा सुनिए. रतनलाल अहिरवार को मायावती ने हाल ही में मंत्रिमंडल से बाहर किया था. वे आंबेडकर ग्राम सभा विकास मंत्री थे. बबीना के पास दोन गांव में कभी सरकारी स्कूल में टीचर रहे रतनलाल ने नौकरी छोड़कर पहला चुनाव भाजपा से लड़ा था. कल्याण सिंह उन्हें राजनीति में लेकर आए थे. वे दो बार विधायक रहे. फिर पलटी मारकर सपा से विधायक बने. सपा की सरकार गई तो दूसरी पलटी मारी और बसपा का दामन थाम लिया. जीते. पहली दफा मंत्री बने.
 
वे मायावती मंत्रिमंडल में बुंदेलखंड के आठ मंत्रियों में और चार निकाले गए मंत्रियों में शामिल थे. इन सबको भ्रष्टाचार की वजह से हटाया गया. मंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने बेटों को बसपा से जोड़ा, पत्नी को भी चुनाव लड़ाया. सरकारी फंड के 90 लाख रुपये एक बेटे के स्कूल को देना उन्हें भारी पड़ गया. अहिरवार सत्ता केंद्रित राजनीति का एक प्रतिनिधि चेहरा थे, जिन्हें पार्टी या विचारधारा कोई मायने नहीं रखती. उन्हें अपने पिछड़े समुदाय की बेहतरी से भी कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन 45 फीसदी साक्षरता वाले बुंदेलखंड में वे अकेले नहीं थे. एक और मंत्री थे बादशाह सिंह. अकूत संपत्ति के मालिक बादशाह पहले भाजपा में थे. अब बसपा में हैं. उनसे भी मंत्री पद छीना गया था. एनआरएचएम घोटाले में शामिल बांदा के बाबूसिंह कुशवाहा भी हटाए गए मंत्रियों में शामिल थे, जो जेल गए. अकेले नसीमुद्दीन सिद्दीकी घोटालों के तमाम आरोपों के बावजूद बचे हुए थे.
 
मुलायम सिंह यादव के समय इस इलाके से छह मंत्री थे. मंत्रियों की यह कतार बढ़ती गई थी मगर इस इलाके की तस्वीर नहीं बदल सकी. जबकि इसी दरम्यान 1100 से ज्यादा किसान बेमौत मरे. इनमें सवा सौ मामले खुदकुशी के थे. सात जिलों के करीब 57 लाख वोटरों में सबसे ज्यादा अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के हैं. बांदा के युवा सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने कहा, 'बुंदेलखंड सभी दलों के लिए सिर्फ एक बड़ा वोट बैंक रहा है. किसी निर्वाचित नुमांइदे के पास यहां के हालात सुधारने का कोई विजन कभी नहीं रहा.'
 हालत का अंदाजा सूखे के बाद मिले बुंदेलखंड पैकेज से लगाइए. 7606 करोड़ रुपये के इस बहुप्रचारित पैकेज में उत्तर प्रदेश का हिस्सा था 3606 करोड़ रुपये. पहली किश्त में मिले 806 करोड़ रुपये. इसका इस्तेमाल मार्च 2012 तक होना था. लेकिन सिर्फ 280 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए. इसमें जमकर घपले हुए. राहुल गांधी हर सभा में पैकेज को कांग्रेस की उपलब्धि और घपलों को बसपा सरकार पर हमलों के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे.
 
उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड में सात जिले हैं. अस्सी फीसदी आबादी खेती पर निर्भर. सूखे के समय हालात सबसे भयावह थे. इनके लिए पैकेज की पहली किश्त में से 280 करोड़ रुपये नहरों और कुओं के नाम पर खर्च किए गए. लेकिन जल्दबाजी में दिखावे के निर्माण कार्यों पर पैसा स्वाहा कर दिया गया. पैकेज मॉनीटरिंग कमेटी के सदस्य भानू सहाय ने कहा, 'सरकार के दस विभागों ने मिलकर सिर्फ 33 फीसदी राशि खर्च की और इसका भी सौ फीसदी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया.' योजना आयोग के उपाध्यक्ष सरदार मोंटेक सिंह अहलुवालिया इन घटिया निर्माण कार्यों को खुद देख चुके थे.
 
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम दुनिया जानती है. इसी बुंदेलखंड के जालौन जिले से पहले विश्व युद्ध में सर्वाधिक 283 लोग ब्रिटिश सेना में गए थे. अकेले एक गांव से 66 लोग. आज देश में जालौन अकेला ऐसा जिला है, जहां से 15 हजार लोग सेना में हैं. कांशीराम की बसपा को 1984 में पहली कामयाबी यहीं की कौंच सीट से मिली थी. हमीरपुर का मंगरोद गांव अकेला ऐसा गांव है, जहां के लोगों ने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में सौ फीसदी जमीन दान कर दी थी. उरई में परमार्थ संस्था के कार्यकर्ता संजय सिंह का कहना था, 'यह क्षेत्र हर लिहाज से मालामाल रहा है. लेकिन पिछले 20 सालों में बदहाली लगातार बढ़ी है. 80 फीसदी जंगल घटकर छह फीसदी रह गए. राजनीतिक प्रश्रय प्राप्त माफिया इसके लिए जिम्मेदार है.'
 
बुंदेलखंड की अनजानी और बेहद खूबसूरत चरखारी पर मैं उत्तर प्रदेश का सियासी सफरनामा खत्म करता हूं. एक जमाने में भाजपा की फायर ब्रांड नेता रहीं उमा भारती चरखारी से चुनाव लड़ रही थीं. उनकी उतार-चढ़ाव भरी राजनीति के कई सालों के बाद यह पड़ाव एक बड़ी परीक्षा थी. जैसा कि हम देख चुके हैं प्रदेश में भाजपा के सारे नेता फ्लाप शो थे. वे सब चुके हुए थे. आधारहीन अजूबे. आपसी फूट ने पार्टी का बेड़ा गर्क कर डाला था. उमा भारती को यहां लाने के पीछे भाजपा ने दो मकसद साधे. एक तो मध्य प्रदेश से उन्हें दूर रखना और दूसरा उत्तर प्रदेश में एक नया चेहरा. दोनों के पास खोने के लिए कुछ था नहीं. न भाजपा के पास. न उमाजी के पास.

  उत्तर प्रदेश के बदहाली से भरे शहरों से गुजरने के बाद जब मैं महोबा होकर चरखारी पहुंचा तो यह सचमुच ही स्वर्ग का अहसास था. प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पं. गोविंदवल्लभ पंत ने चरखारी की खूबसूरती देखकर इसे उत्तर प्रदेश का कश्‍मीर कहा था. महाराजा छत्रसाल के वंशजों के बनवाए ऐतिहासिक किलों, तालाबों, मंदिरों से होकर यहां की गलियों से गुजरना जैसे चार सौ साल पुराने दौर में दाखिल होना था. पहाड़ी किले की गोद में बसी बस्ती के घरों की पुराने लुक की मोटी दीवारें और लकड़ी के मजबूत किलेनुमा कलात्मक दरवाजे वाकई लाजवाब थे. झील के किनारे पुराने मंदिर जैसे किसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की फिल्म के सेट की तरह लग रहे थे. देश के नक्शे पर एक खोई हुई विरासत है चरखारी.

 उमा भारती 51 साल की उम्र में नए सिरे से खुद को साबित कर रही थीं. मध्य प्रदेश की सीमा से सटी उत्तर प्रदेश की यह गुमनाम सीट अचानक सुर्खियों में आ गई थी. उनके डे-प्लान में हर दो दिन में चरखारी शामिल था. हर भाषण में वे कहतीं, 'बुंदेलखंडी अब मजदूरी के लिए नहीं, प्रधानमंत्री बनने के लिए दिल्ली जाएगा.' उनका यह डायलॉग मशहूर हो रहा था कि वे चरखारी से उत्तर प्रदेश की चौकीदारी करेंगी.

 उमा भारती पर 51 सीटों के मौजूदा स्कोर को बढ़ाने का दारोमदार था. चरखारी से चुनाव जीतने की चुनौती तो थी ही. इसीलिए वे यहां आकर कह रही थीं, 'आधी उम्र उस बुंदेलखंड में कटी. आधी इधर कट जाएगी. चरखारी से अब जनम-मरण का साथ है.' थका देने वाली यात्राओं में वे ढाई सौ से ज्यादा कार्यकर्ता सम्मेलन और सवा सौ से ज्यादा सभाएं ले चुकी थीं. उनके सामने भीड़ की कमी कहीं नहीं थी. महोबा के लोगों को यह भी याद था कि बचपन में वे यहां प्रवचन करने खूब आती थीं. यह उनके राजनीति में आने के पहले का रूप था. वे पार्टी के लचर हो चुके कैडर में 20 साल पुराने करंट को जगाने की कोशिश कर रही थीं. भाजपा के दूसरे नेताओं की तुलना में उनकी सभाओं में राम मंदिर, राम राज्य और जय-जयश्रीराम के भुलाए जा चुके उद्घोषों का स्वर सबसे तेज था.
 
उमा के लिए यह 2003 का मध्य प्रदेश नहीं था, जब तीन चौथाई बहुमत से दिग्विजय सिंह को सत्ता से बाहर किया था. यह 2012 का उत्तर प्रदेश था. संयोग देखिए कि उनके हाथों मध्य प्रदेश की सत्ता से बेदखल दिग्विजय सिंह भी यहीं कांग्रेस के लिए धूल फांक रहे थे और 2004 में अपनों के ही हाथों सत्ता से बेदखल उमा भारती भी पुनर्वास की तलाश में यहां भटक रही थीं. एक ही राज्य की दो अलग-अलग पार्टियों की शिखर हस्तियों को नियति एक ही मोड़ तक ले आई थी.

 मगर अब तक मध्य प्रदेश से निकलकर उत्तर प्रदेश की यमुना में मिलने वाली बेतवा नदी में काफी पानी बह चुका था. उनके घोर विरोधी माने जाते रहे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपनी 'प्रिय छोटी बहन' उमाजी के लिए वोट मांगने प्रकट हुए. उस दिन मैं संयोग से ही यहां था, जब भाजपा का भरत मिलाप देखने हजारों लोग चरखारी में जुटे थे. शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती के लिए वोट मांगने आए. दोनों कड़वाहट भरे छह सालों के बाद एक मंच पर थे. उनके बीच झिझक साफ दिख रही थी. यह दिल से दिल का नहीं, एक सियासी मेल भर था. हालांकि दिल जीतने में माहिर शिवराज ने संजीदगी से स्वीकार किया कि मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार की नींव उमाजी ने ही डाली थी, जिस पर हम विकास का महल खड़ा कर रहे हैं. उमा की तारीफों के पुल बांधते हुए उन्होंने कहा कि वे एक तेजस्वी नेता हैं.

 दोपहर बाद हम झांसी लौट रहे थे, जहां से डेढ़ महीने पहले हमने यह सफर शुरू किया था. जैसा कि मैंने शुरू में बताया, मेरा ड्राइवर इम्तियाज एक सीधा-साधा नौजवान था. आठवीं पास. घर की मजबूरियों ने उसे आगे पढ़ने नहीं दिया था. बांदा में नसीमुद्दीन की कामयाबियों के किस्से सुनकर वह भी हैरान था. अपनी बिरादरी के इतने ताकतवर मंत्री के बारे में उसने मासूमियत से पूछा, 'मायावतीजी ने इनकी कौन सी काबिलियत पर इतना एतबार किया कि 15 बड़े महकमे सौंप दिए?' उसे जवाब देने की बजाए बड़े-बड़े गड्ढों में गुम किसी जमाने में बनी और अब नाममात्र की बची-खुची जानलेवा सड़क पर गुजरती कार के बाहर मैं बुंदेलखंड की वीरानी को देख रहा था.

मेरे भीतर कुछ चुभ रहा था. थकान जमकर थी. मैंने आंखें बंद कर लीं और अपनी अगली यात्राओं के बारे में सोचने लगा. कुछ ही दिनों में मैं एक अलग दुनिया का नजारा देखने वाला था. देश के प्रसिद्ध मंदिरों और धार्मिक ऊर्जा से भरे जलसों का, जहां भारत अपने बिल्कुल असली रंग में धड़क रहा है.

किताब :भारत की खोज में मेरे पांच साल
लेखक : विजय मनोहर तिवारी
किताब की कीमत : 550 रुपये
प्रकाशक : IRA (इरा प्रकाशन)

                                                                                                   

(विजय मनोहर तिवारी वरिष्‍ठ पत्रकार और लेखक हैं )

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