"मेरे लिए लोकतंत्र का मतलब है, सबसे कमज़ोर व्यक्ति को भी उतने ही अवसर मिलें, जितने सबसे ताकतवर व्यक्ति को..." - ये शब्द उस व्यक्ति के हैं, जो इस देश को आज़ाद कराने के केंद्र में रहा है, तथा उनकी इस भूमिका की स्वीकार्यता के रूप में लोगों ने उन्हें अपने वर्तमान लोकतांत्रिक राष्ट्र का पिता माना. राजनीतिशास्त्र के एक सामान्य विद्यार्थी के रूप में लोकतंत्र की यह परिभाषा मुझे अब्राहम लिंकन की 'लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा' वाली परिभाषा से ज्यादा सटीक मालूम पड़ती है, क्योंकि इसमें लोगों का अर्थ भी निहित हैं - 'सबसे कमजोर व्यक्ति'
आइए, अब एक नज़र कुछ ही दिनों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अचानक घोषित कर दिए गए लोकसभा के उम्मीदवारों के नाम पर डालते हैं...
- कई पार्टियां बदलकर BJP में शामिल होते ही अभिनेत्री जयाप्रदा उम्मीदवार घोषित कर दी जाती हैं...
- शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा राजनीति में आते ही उस पार्टी की उम्मीदवार घोषित होती हैं, जो उनके पति की पार्टी की विरोधी है...
- अभिनेता सन्नी देओल तो सदस्य बनते ही उम्मीदवार बन जाते हैं...
- अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर को उम्मीदवार बनने के लिए कुछ इंतज़ार करना पड़ा...
- तीसरी बार दल बदलने वाले गायक हंसराज हंस इंतज़ार करने से बच गए...
- गौतम गंभीर (क्रिकेट) और विजेंद्र सिंह (मुक्केबाजी) भी अखाड़े में हैं...
- 1996 बैच की IAS भुवनेश्वर से और IAS बृजेंद्र सिंह हिसार से किस्मत आजमा रहे हैं...
अब आप अप्रत्याशित रूप से घोषित किए गए इन प्रत्याशियों की संपत्ति का अंदाज़ा लगाइए. मैं आपको एक क्लू देता हूं कि गौतम गंभीर की सालाना आमदनी 12 करोड़ रुपये है.
अंत में एक तथ्य और - एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म के अनुसार सन् 2014 की लोकसभा के कुल 543 सांसदों में 430 सांसद, यानी लगभग 83 फीसदी सांसद करोड़पति थे. अभी लोकसभा की आधी सीटों के लिए ही मतदान हुआ है, और लगभग 1,500 करोड़ रुपये ज़ब्त किए जा चुके हैं.
भारतीय संविधान की शुरुआत उसकी 'उद्देशिका' से होती है, और इस 'उद्देशिका' की शुरुआत होती है - 'हम भारत के लोग' शब्द से. गौर करने की बात यह भी है कि हम भारत के लोगों ने उस 'उद्देशिका' में कोई संकल्प नही लिया है; बल्कि उसे 'आत्मार्पित' किया है. यानी संविधान के उद्देश्यों को आत्मा से स्वीकार किया है, मस्तिष्क से नहीं.
अब आते हैं अपनी मूल बात पर. लोकसभा चुनाव का जो वर्तमान परिदृश्य दिखाई दे रहा है, क्या इसमें 'हम भारत के लोग' की कोई भूमिका चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के रूप में दिखाई दे रही है, या भविष्य में भी क्या इसकी कोई संभावना नज़र आती है...? आम आदमी की भूमिका एक मतदाता मात्र की हो गई है. किसी राजनीतिक दल का चुनावी उम्मीदवार बनने से लेकर मतदान होने तक धन का जो घृणित प्रभुत्व देखने को मिलता है, उसमें गांधी जी के सबसे कमज़ोर व्यक्ति के लिए किसी भी तरह का अवसर शेष नहीं रह गया है. आज़ादी के बाद के कुछ चुनावों तक तो इसके कुछ चिह्न देखने को मिल जाते हैं, और वे भी विशेषकर आरक्षित सीटों पर, लेकिन अब ये आरक्षित सीटें भी इसी समुदाय के उच्च-धनी लोगों के लिए आरक्षित हो चुकी हैं.
ऐसी स्थिति में लोकतंत्र की गांधी जी की परिभाषा की बात को तो आप छोड़ ही दीजिए, स्वयं लिंकन की परिभाषा में भी कुछ इस तरह का बदलाव किए जाने की ज़रूरत है - 'लोगों का, लोगों के लिए, कुछ लोगों द्वारा...'
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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