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This Article is From Mar 28, 2018

‘शीतयुद्ध‘ के नये संस्करण का आगाज

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 28, 2018 16:33 pm IST
    • Published On मार्च 28, 2018 14:52 pm IST
    • Last Updated On मार्च 28, 2018 16:33 pm IST
अमेरिका ने सन् 2016 में 'अमेरिका फर्स्ट' का नारा देने वाले ट्रम्प को अपना राष्ट्रपति चुनकर दुनिया को साफ-साफ बता दिया था कि ''विश्‍व का नेतृत्व करने में अब उसकी कोई रुचि नहीं रह गई है.'' अमेरिका का यह संदेश चीन को वाकओवर मिलने जैसा था. उसने इसे अमेरिका के द्वारा खाली किये गये सिंहासन को भरने का सर्वाधिक सही समय मानते हुए दौड़ लगानी शुरू कर दी. चीन इस इकलौती दौड़ में इतना अधिक मशगूल हुआ कि उसने अपने राष्ट्रपति को ‘आजीवन राष्ट्रपति‘ तक बना देने में तनिक भी हिचक नहीं दिखाई, बावजूद इसके कि उसे जिनका नेतृत्व करना होगा, वे अधिकांशतः लोकतांत्रिक देश हैं. चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशियेटिव को इसी चश्मे से देखा जाना चाहिए.‘

साथ ही यह भी कि भले ही रूस में बहुदलीय व्यवस्था हो, लेकिन अभी-अभी वहां के राष्ट्रपति चुनाव बताते हैं कि वस्तुतः ऐसा है नहीं. रूस के वर्तमान राष्ट्रपति पुतिन में चीन के राष्ट्रपति शी की थोड़ी सी उदार चेष्टाओं की मौजूदगी भले मिले. वस्तुतः दोनों में कोई बहुत बड़ा फर्क है नहीं. दोनों की नींव मूलतः साम्यवादी है, जो अपनी तरह की एक अलग किस्म की तानाशाही में तब्दील हो चुकी है.

यहां इन दोनों देशों के हाल के इन वक्तव्यों को जानना रोचक होगा. कुछ दिनों पहले के अपने राष्ट्रपति के चुनाव-प्रचार के दौरान पुतिन ने खुलेआम यह घोषणा की कि “रूस ऐसे अजेय परमाणु अस्त्र विकसित करने के बारे में सोच रहा है, जो फ्लोरिडा तक मार कर सकें.'' और पुतिन चुनाव जीत गये. हांलाकि उन्हें वैसे भी जीतना ही था.

कुछ इसी की तर्ज पर चीन के राष्ट्रपति शी ने भी खुलेआम कहा है कि - “वे चीन की सम्प्रभुता और उसकी एक-एक इंच जमीन की हर हाल में रक्षा करेंगे.” यहां चीन और रूस एक साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं. और कम से कम अमेरिका के मामले में तो यह है ही.

यह स्थिति सचमुच में उस देश के लिए बहुत दुखदायी कही जायेगी, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के ऊपर दादागिरी की हो. हांलाकि कोई भी देश इस तरह की दादागिरी को केवल मजबूरी में ही बर्दाश्त करता रहता है. फिर भी यदि इन्हें चयन का अधिकार दिया जाये, तो ये चीन की बजाय अमेरिका की दादागिरी को चुनना चाहेंगे. लेकिन अब साफ हो गया है कि अमेरीका अब क्रमश: इन विकल्पों से खुद के नाम को वापस लेता जा रहा है.

लेकिन अमेरिका दुविधा में भी है. एक ओर उसकी पुरानी स्मृति है, तो दूसरी ओर उसकी अपनी अर्थव्यवस्था से उत्पन्न चुनौतियां. इसीलिए राष्ट्रपति ट्रम्प को यह कहने में तनिक भी झिझक नहीं होती कि दुनिया ने मिलकर अमेरिका का खूब दोहन किया है. और अब वे ऐसा नहीं होने देंगे.

इसके फलस्वरूप अब अमेरिका धड़ल्ले से ऐसे कदम उठाने में कोई भी संकोच और विलम्ब नहीं कर रहा है, जो उसके ही द्वारा शुरू किये गये वैश्वीकरण के बिल्कुल विरोध में हैं. अभी-अभी स्टील और एल्युमिनियम के आयात पर लगाया गया शुल्क एक ऐसा ही कदम है. साथ ही ट्रम्प के हाथों में एक हजार चीनी वस्तुओं की एक लम्बी सूची है, जिन पर वे शीघ्र ही कर लगाने वाले हैं.

इसके जवाब में चीन ने भी तीन सौ अमेरिकी वस्तुओं की लिस्ट तैयार कर ली है. चीन ने भी आयात शुल्क की नीति पर अमल करना शुरू कर दिया है. इन दोनों की देखा-देखी विकसित राष्ट्र भी अपनी-अपनी तैयारियों में लग गए हैं.

अमेरिका को यह समझ में आ चुका है कि विश्‍व के वर्तमान दौर में पिछली शताब्दी के आठवें दशक तक की ‘शीत युद्ध‘ की नीति कामयाब नहीं हो सकती. इसलिए उसने इस ‘शीत युद्ध‘ को अब ‘व्यापारिक युद्ध‘ (ट्रेड वार) में तब्दील करने का फैसला कर लिया है. और इसका बिगुल बज चुका है. वैश्वीकरण अब अपने-अपने देषों की दहलीजों पर ठिठककर इस युद्ध का जायजा ले रहा हैं. निःसंदेह रूप से जीत राष्ट्रवाद की ही होनी है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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