मगर हंसते-हंसाते दो साल का कोर्स कब ख़त्म हुआ पता ही नहीं चला और जब-जब पढ़ाई के दौरान किसी प्रोजेक्ट पर काम करते हुए क्लास के बाहर निकलकर मुस्लिम बहुल इलाक़े ओखला, जामिया, बाटला हाउस, नूर नगर, ज़ाकिर नगर में रहने वाले मुस्लिम समुदाय से रूबरू होने का मौका मिला तो पाया कि मुस्लिम समाज के बारे में हमारी पुरानी समझ कितनी कच्ची है।
वह भी हंसता-बोलता, तरह-तरह के संकट और अभाव भी झेलता एक आम समाज ही है- सिवाए इस फर्क के कि उन्हें उनकी ऐतिहासिक स्थिति और उनकी अल्पसंख्यक हैसियत ने उन्हें कुछ असुरक्षित भी बना रखा है और कुछ आक्रामक भी। यही नहीं, यह बात भी समझ में आई कि इस उखड़े हुए समाज के भीतर इतनी गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ापन क्यों हैं? क्यों तमाम राजनीतिक दल सिर्फ़ इन्हें एक वोट बैंक के तौर पर ही देखते आए हैं।
बाद में पढ़ते हुए और अपने समय को पहचानते हुए मैंने यह भी महसूस किया कि बीते वर्षों के दंगे और सामाजिक तनावों ने साझा मुहल्लों की विरासत तोड़ी है और मुसलमान घेटो (बस्ती) में घिरते चले गए हैं। हाल में जब उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने मुस्लिम संगठनों के शीर्ष फोरम 'ऑल इंडिया मजलिए-ए-मशावरत' के स्वर्ण जयंती समारोह में अपने विचार रखते हुए कई बातें कहीं तो मुझे अपना अनुभव याद आया। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि देश में मुसलमानों के समक्ष मौजूद पहचान और सुरक्षा की समस्याओं को हल करने के लिए रणनीतियां बनाने की ज़रूरत है और ‘सबका साथ,सबका विकास’ की नीति पर चल रही सरकार से इस संबंध में ठोस कार्रवाई करने की भी ज़रूरत है।
उन्होंने कहा कि सुरक्षा मुहैया कराने में विफलता और भेदभाव के संदर्भ में शासन द्वारा जल्द से जल्द सुधार किया जाए और उसके लिए उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को कहना पड़ा कि राष्ट्र के सामने चुनौती मुसलमानों के सामने मौजूद मुद्दों जैसे सशक्तीकरण, राज्य संपदा में समान हिस्सा हासिल करना और निर्णय की प्रक्रिया में उचित हिस्सेदारी जैसे का समाधान करने के लिए रणनीतियां विकसित करना भी है।
संकट ये है कि देश के सबसे अहम ओहदों में से एक से उठी ये आवाज़ संजीदगी से सुनने की जगह सरकार और उससे जुड़े संगठनों ने उपराष्ट्रपति पर ही सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। जबकि उपराष्ट्रपति ने जो कुछ कहा- बाद में उन्होंने इसकी सफ़ाई भी दी- वह राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का हवाला भर है। मार्च 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुस्लिम समाज की सामाजिक-आर्थिक,शैक्षणिक स्थिति जानने के लिए जस्टिस राजिंदर सच्चर के नेतृत्व में सात सदस्यीय एक हाई लेवल कमेटी का गठन किया जिसने अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट नवंबर 2006 में सौंपी और जिसे नवंबर 2006 में ही संसद में रखा भी गया। इस रिपोर्ट के ज़रिए भी समझा जा सकता है कि उपराष्ट्रपति को ये बात आखिर क्यों कहनी पड़ी होंगी।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक (2006) विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमानों की भागीदारी कुछ इस तरह रही-
-3.8% आईएएस
-1.8% आईएफएस
-4% आईपीएस/ सुरक्षा एजेंसियां
-23.7% सरकारी नौकरी
-6.5 निजी क्षेत्र
-4.5 रेलवे विभाग
-4.5 स्वास्थ्य विभाग
इसी रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि 2001 में मुसलमानों की साक्षरता दर 59.1% थी जो राष्ट्रीय अनुपात 64.8% से भी कम थी। सवाल ये है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में मुस्लिम भागीदारी को अगर बढ़ाया जाए तो शायद सच्चर कमेटी में दिए इन आंकड़ों में सुधार की गुंजाइश थोड़ी बढ़ जाए। मौजूदा लोकसभा में पूरे देश से मात्र 22 मुस्लिम सांसद ही चुनकर संसद तक पहुंचे हैं। ज़ाहिर है, राजनीतिक तौर पर भी मुसलमान कमज़ोर पड़े हैं। यही नहीं, उपराष्ट्रपति का उदाहरण बताता है कि अपने समाज के हक़ की बात उठाने पर उन्हें सांप्रदायिक भी करार दिया जा सकता है।
आखिर उपराष्ट्रपति अंसारी के एक बयान ने सभी में एक खलबली पैदा कर दी और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन ने इसे न सिर्फ़ एक सांप्रदायिक बयान बताते हुए इसकी निंदा की बल्कि इसे एक राजनीतिक बयान कहते हुए उपराष्ट्रपति की पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला तक कह डाला। सवाल ये है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी मुसलमानों को आखिर कब तक अपने आप को इस देश का वफ़ादार नागरिक साबित करते रहना होगा?
ऐसा नहीं है कि हामिद अंसारी इन संगठनों के निशाने पर पहली बार आए हों। कभी उन पर गणतंत्र दिवस पर तिरंगे को सलामी न देने का आरोप लगाया गया तो कभी योग दिवस के मौके पर गैरहाज़िर रहने का। लेकिन दोनों मौकों पर उपराष्ट्रपति सही और संवैधानिक लाइन लेते नज़र आए। उल्टे उन पर आरोप लगाने वालों को अपने आरोप वापस लेने से लेकर माफ़ी मांगने तक की नौबत आई।
मौजूदा सरकार सबका साथ, सबका विकास के नारे के साथ विशाल बहुमत के साथ सत्ता में आई है। लेकिन फिलहाल ये एक नारा भर लग रहा है। मुसलमानों के भीतर ये एहसास है कि न वे सुरक्षित हैं और न ही उन्हें इंसाफ़ मिल रहा है। हाल ही में हाशिमपुरा (1987) में 42 मुस्लिम युवकों की हत्या के मामले में सभी 16 दोषी सबूतों के अभाव में छूट गए। दिल्ली के नज़दीक बल्लभगढ़ के अटाली गांव में एक मस्जिद बनाने की कोशिश करने पर मुसलमानों के साथ मारपीट किया गया, उनके घर लूट लिए गए और उन्हें कई दिन तक थाने में शरण लेनी पड़ी। ये ऐसी घटनाएं हैं जो किसी भी सभ्य समाज को शोभा नहीं देतीं।
आज ज़रूरत है कि 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे को सिर्फ़ मंचों तक न सीमित रखा जाए बल्कि उसे ज़मीनी स्तर पर उतारने की दिशा में सच्चे मन से कोशिश की जाए। इसके लिए मुस्लिम समाज के लोगों, उनसे जुड़ी संस्थाओं और नुमाइंदों को भी मौजूदा हालात में सुधार लाने की शिद्दत से कोशिश करनी होगी क्योंकि फिल्म 'मांझी' के दो फ़ेमस डायलॉग है न - भगवान के भरोसे मत बैठिए, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो..
...और हां जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं.. यानी मुस्लिम समाज को भी अपने प्रति फैले भ्रम और शंकाओं को तोड़ने का प्रयास तब तक करते रहना पड़ेगा जब तक मांझी की तरह शंका रूपी इस पहाड़ को तोड़ विश्वास और विकास का एक सुगम रास्ता नहीं बना लिया जाता।