डोनाल्ड ट्रंप की बदौलत बेनकाब होता अमेरिकी चेहरा

पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति यह सब लोकतंत्र तथा विश्वशांति एवं सुरक्षा का मुखौटा लगाकर करते थे, और दुनिया इसके छद्म चेहरे की सच्चाई भांप नहीं पाती थी...

डोनाल्ड ट्रंप की बदौलत बेनकाब होता अमेरिकी चेहरा

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक तरीका समझौतों से मुकरना है, जो बेहद चिंताजनक है...

डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद मेरे पास न्यूजर्सी में रह रहे मेरे एक दोस्त का जो व्हॉट्सऐप मैसेज आया था, उसमें उनके अपराधबोध को आसानी से महसूस किया जा सकता था. अंग्रेज़ी में लिखी उनकी आत्मस्वीकृति का हिन्दी भाव था, "अमेरिकी इससे अधिक योग्य राष्ट्रपति पाने की पात्रता रखते हैं..." उस समय तो ऐसा कुछ नहीं लग रहा था, लेकिन इस घटना के लगभग डेढ़ साल के बाद लग रहा है कि पिछले तीन दशकों से अमेरिका में रह रहा मेरा वह भारतीय मित्र सही था. क्या सचमुच अमेरिकी इतने अविश्वसनीय एवं अप्रत्याशित एवं स्वकेंद्रित हैं, जितना डोनाल्ड ट्रंप सिद्ध कर रहे हैं.

इसे जानने के लिए आइए, थोड़ा पीछे चलते हैं. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही, विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका की धाक पूरी दुनिया पर तेज़ी से जमती चली गई. वियतनाम के साथ उसका युद्ध उसके राजनीतिक माथे पर ही नहीं, मानवता के माथे पर भी लगा एक अमिट कलंक है. इराक और अफगानिस्तान के मामले इससे बस थोड़े ही अलग हैं. पेट्रोलियम संसाधनों पर प्रभुत्व की अमेरिकी लालसा ने मध्य-पूर्व एशिया को एक प्रकार से स्थायी कुरुक्षेत्र में तब्दील कर दिया है.

लेकिन महत्वपूर्ण अंतर यह है कि इससे पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति यह सब लोकतंत्र तथा विश्वशांति एवं सुरक्षा का मुखौटा लगाकर करते थे, और दुनिया इसके छद्म चेहरे की सच्चाई भांप नहीं पाती थी. हालांकि बीच-बीच में सच्चाई के स्वर उभरते तो थे, लेकिन उनकी अहमियत नक्करखाने में तूती की आवाज़ से अधिक नहीं होती थी. जय-जयकार के उद्दाम जयघोष में छोटे-छोटे राष्ट्रों की सिसकियां घुट-घुटकर दम तोड़ देती थीं.

डोनाल्ड ट्रंप की अब तक की इस तरह की गई एक लम्बी अप्रत्याशित घटनाओं वाली सूची को हम मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं. इसका पहला भाग अमेरिका के उस अहमन्यता वाले चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें ये अन्य देशों को कुछ समझते ही नहीं हैं. दूसरों को नीचा दिखाने से इन्हें आत्मगौरव की अनुभूति होती है. तभी तो डोनाल्ड ट्रंप कनाडा के राष्ट्रपति टूड्रो को 'दब्बू' कहते हुए उन पर व्यापारिक मामलों में 'बेईमान' होने का आरोप थोप देते हैं. जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल को 'रूस की बंधुआ' घोषित करने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता, जबकि सच्चाई यह है कि जब रूस ने क्रीमिया पर जबरन कब्जा किया था, तो उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की रूपरेखा तैयार करने वालों में मर्केल अग्रणी थीं.

इस बारे में उनकी सबसे ताज़ा हरकत ब्रिटेन की महारानी के साथ चर्चित रही. उन्होंने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान विंडसर कैसल में महारानी को मुलाकात के लिए न केवल इंतज़ार करवाया, बल्कि जब वह उनसे मिलने पहुंचे, तो 'गार्ड ऑफ ऑनर' के बाद पहले ही महारानी से आगे निकलकर चलने लगे. यह ब्रिटेन के रॉयल प्रोटोकॉल के विरुद्ध था.

इसका दूसरा पक्ष समझौतों से मुकरने का है, जो बेहद चिंताजनक है. राष्ट्रपति बनने के मात्र चार महीने बाद उन्होंने स्वयं को पेरिस जलवायु समझौते से अलग कर लिया, और वह भी भारत जैसे विकासशील देशों पर 'दगाबाज़ी' का आरोप लगाते हुए. 'ट्रांस-प्रशांत पार्टनरशिप' से बाहर आ गए, और हाल ही में उन्होंने ईरान परमाणु संधि को 'अब तक का सबसे घटिया समझौता' करार देते हुए खुद को मुक्त कर लिया. इसे लेकर पूरी दुनिया में उनकी तीखी आलोचना हुई. लेकिन ट्रंप के चेहरे पर कभी भी उतार-चढ़ाव के भाव नहीं आते, आम अमेरिकियों की तरह, क्योंकि वह जानते हैं कि 'शक्ति ही सर्वोच्च होती है...'

ज़ाहिर है, डोनाल्ड ट्रंप के बचे हुए ढाई साल दुनिया के सामने अमेरिका के चेहरे को बेनकाब कर देंगे. इससे विश्व का नेतृत्व करने का उसका अब तक का दावा ध्वस्त होगा, और एक नई विश्व-व्यवस्था का आकार उभरेगा, जिसे डोनाल्ड ट्रंप की विश्व को देन के रूप में लिया जाना चाहिए.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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