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This Article is From Nov 18, 2014

उमाशंकर की कलम से : वोट की चोट, नेहरू का चेहरा, सेक्युलरिज़्म की छतरी

Umashankar Singh
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  • Updated:
    नवंबर 21, 2014 10:48 am IST
    • Published On नवंबर 18, 2014 12:07 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 21, 2014 10:48 am IST

30 अक्टूबर, 2013 को दिल्ली के तालकटोरा इन्डोर स्टेडियम में ली गई तस्वीर और 17 नवंबर, 2014 को विज्ञान भवन की तस्वीर में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं है। तब लेफ्ट के बुलावे पर देश की 17 सियासी पार्टियां एक मंच पर इकठ्ठी हुई थीं, और उसे नाम दिया गया 'जनता की एकता के लिए और सांप्रदायिकता के खिलाफ कन्वेंशन'। उसमें प्रस्ताव का जो मसौदा पेश किया गया, और जिसे बाद में पारित भी किया गया, उसमें बिना किसी पार्टी का नाम लिए 'बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति' को एकजुट होकर रोकने की अभिलाषा जताई गई थी। इसे गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी दलों को लेकर सशक्त तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद के तौर पर देखा गया था।

पूरे एक साल बाद इन पार्टियां में से ज़्यादातर पार्टियां एक बार फिर जुटीं। इस बार कांग्रेस के बुलावे पर, विज्ञान भवन में। जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती का मौका इस मुलाकात का बहाना बना। इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने नेहरू की विश्वदृष्टि और सेक्युलर सोच के उनके पैमाने में यथा-सामर्थ्य डुबकी लगाई।

नेहरू के 'कोट-अनकोट' के हवाले से सभी ने अपने-अपने राजनीतिक हितों के नजरिये से ऐसा संदेश देने की कोशिश की कि सेक्युलरिज़्म खतरे में है। एक 'छोटा-सा' अंतर यह रहा कि इसमें तालकटोरा के समागम के विपरीत समाजवादी पार्टी की लाल टोपी गायब रही, और बसपा के हाथी ने भी पैर नहीं रखा। डीएमके-एआईएडीएमके ने भी न्योते जाने के बावजूद प्रतिनिधि नहीं भेजा। उस वक्त बीजेडी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, लेकिन इस बार शायद उसे 'सेक्युरलिज़्म' के लिए उतना खतरा नहीं लग रहा, इसलिए उसकी तरफ से भी कोई नहीं आया। जम्मू एवं कश्मीर में कांग्रेस से गठबंधन खत्म कर चुकी नेशनल कांफ्रेंस भी नदारद रही।

पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा तब भी आए थे, अब भी आए। नीतीश कुमार बिहार में जनसंपर्क यात्रा कर रहे हैं, सो न आ सके। शरद यादव और केसी त्यागी आए। आरजेडी से जयप्रकाश यादव आए। कांग्रेस से दूर चली गईं ममता बनर्जी को बीजेपी के बढ़ते असर के साथ-साथ पश्चिम बंगाल में 'सेक्युलरिज़्म' ख़तरे में दिख रहा है, सो स्वयं आईं। कांग्रेस ने उनको बुलाया तो प्रदेश कांग्रेस के पेट में दर्द हुआ, लेकिन कांग्रेस 'सांप्रदायिकता के सिरदर्द' को अपनी पार्टी इकाई के पेटदर्द से बड़ी समस्या मानती है। खैर, ममता के ठीक राइट वाली कुर्सी पर लेफ्ट के डी. राजा बैठे थे। दर्जनों कैमरों की मौजूदगी में और कांफ्रेंस के बीच दोनों ने जमकर कनबतियां भी कीं। वैसे, सीताराम येचुरी की कुर्सी भी ममता के पास ही लगाई गई थी।

दूसरी तरफ राहुल गांधी के लेफ्ट में प्रकाश करात की सीट थी। वर्ष 2007 में न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर कांग्रेस से गठबंधन तोड़ लेने वाले लेफ्ट के नेता ने जब सालों बाद राहुल से हाथ मिलाया तो शायद इस एहसास के साथ कि एक-दूसरे के हाथ के सहारे ही आगे की राह है। तुनकमिजाज़ ममता की छांव मिल जाए तो और अच्छा।

सबसे दिलचस्प उदारहण एनसीपी का रहा। एनसीपी को न्योता पहले जा चुका था और महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार को समर्थन उन्होंने बाद में दिया, लेकिन न्योता वापस लिया नहीं जा सकता था और एनसीपी को खुद को सेक्युलर भी साबित करते रहना है, सो, डीपी त्रिपाठी तालकटोरा में भी आए थे और विज्ञान भवन में भी आए। पूछा गया तो कहा, बीजेपी को सिर्फ समर्थन दिया है, उस पार्टी की सदस्यता थोड़े ही ले ली है।

इस कांफ्रेंस को लेकर विवाद यह भी रहा कि इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं न्योता गया। कांग्रेस की दलील है कि यह कांफ्रेंस सिर्फ 'सेक्युलर' विचारधारा की पार्टियों और व्यक्तियों के लिए आयोजित किया गया है। वैसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी बीजेपी अपने आयोजनों में नहीं बुलाती। लेकिन बड़ी बात यह है कि जिस चुनौती को सामने पाकर ये पार्टियां एक मंच पर इकठ्ठी हो रहीं हैं, मंच उसी चुनौती के हवाले कैसा किया जा सकता था!

सांप्रदायिकता के खिलाफ दोनों ही जमावड़ों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि तब खुद को सेक्युलर कहने वाली पार्टियां चुनाव की चुनौती के बीच अपना कद बढ़ाने की जुगत भिड़ा रहीं थीं और अब चुनाव के बाद अपना-अपना अस्तित्व बचाने का दांव लगा रही हैं। हालांकि जब मैंने प्रकाश करात से पूछा कि क्या आप सिर्फ सम्मेलन में शिरकत करने आए हैं या फिर इस महा-मुलाकात को किसी तरह के महा-गठबंधन की पूर्व पीठिका के तौर पर देखा जाए तो सवाल का जवाब देने में वह उदासीन दिखे।

हां, ऐसा पहली बार हुआ है कि जो 'सेक्युलर पार्टियां' जहां चुनाव के पहले बरसाती मेंढक की तरह एक साथ आने की कोशिश किया करती थीं, इस बार चुनाव के बाद छह महीने के भीतर ही मंच शेयर करने लगी हैं। महा-गठबंधन तब दूर की कौड़ी लगती थी, लेकिन आसन्न 'संकट' के मद्देनज़र, अब शायद ये किसी न किसी तरह के समझौते के रूप में सामने आएं। वैसा ही समझौता जैसा लालू और नीतीश ने किया है।

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