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This Article is From Aug 23, 2014

'दुनिया की छत' के दौरे पर एनडीटीवी इंडिया : तिब्बत के हस्तशिल्प

Kadambini Sharma, Umashankar Singh
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 15:58 pm IST
    • Published On अगस्त 23, 2014 18:38 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:58 pm IST

शैनन प्रिफेक्चर में पहली सुबह। रात में इतनी प्यास लग रही थी कि बस पूछिए मत और सामान्य पानी की एक भी बोतल नहीं थी। यहां लागातार ये भी बताया जा रहा है कि पानी पीते रहें ताकि डिहाइड्रेशन ना हो। लेकिन एक ज़रा सी समस्या है और वह ये है कि हर खाने के साथ या कहीं भी आप जाएं तो गरम पानी ही परोसा जाता है। गरम पानी के पीछे लॉजिक ये कि यहां खाना और इसमें मौजूद फैट को पचाने के लिए काफी कारगर है।

खैर हम जैसे लोग जो ठंडा पानी पीकर ही प्यास बुझा पाते हैं, उनकी क्या हालत हो रही होगी आप समझ सकते हैं। आज सुबह हमने कुछ सामान्य पानी के बोतलों का इंतज़ाम कर लिया है। चलिए अब आगे का क़िस्सा।

आज सुबह का कार्यक्रम है हमें तिब्बती हस्तशिल्प और तिब्बती चिकित्सा पद्धति से रूबरू कराने का। पहला स्टॉप है एक हस्तशिल्प कोऑपेरेटिव। पहले हमें एक छोटे से शोरूम में ले जाया गया, जहां तिब्बती राजघरानों में सजाया जाने वाले तान्खा पेंटिग्स तो हैं ही, यहां की पारंपरिक पोशाकें, जूते, कपड़े सब कुछ हैं। वैसे यहां के अधिकतर चित्रों में बुद्ध की जीवनी ही, उनके अलग-अलग रूप ही दर्शाए जाते हैं।

यहां से हमें जाना है फ़ैक्टरी जहां पर ये सभी चीज़ें थोक भाव में बनाई जाती हैं। असल में हस्तशिल्प यहां रोज़गार का बड़ा ज़रिया है। लेकिन जैसा हम आप किसी फ़ैक्टरी की कल्पना करेंगे वह ऐसा बिल्कुल नहीं। ज़रा सी जगह है जहां हथकरघे पर कई महिलाएं और कुछ पुरुष काम कर रहे हैं। यहां जो कपड़ा बनता है वह बीजिंग में दो सौ से तीन सौ डॉलर तक में बिकता है और ये क़ीमत दूसरे देशों में बढ़ती जाती है। अच्छा ख़ासा महंगा। वैसे इन कारीगरों की एक महीने की तनख़्वाह क़रीब 18 हज़ार भारतीय रुपयों के क़रीब है और कुशलता आने से ये पैसे बढ़ते भी जाते हैं।

इसके बगल के ही कमरे में ही तान्खा पेंटिंग भी बनाई जा रही है। इसके लिए यहां कारीगरों को ट्रेनिंग दी जाती है। सभी चित्रकार 20-22 साल की उम्र के हैं। एक छोटी सी पेंटिंग बनाने में तीन से चार महीने लगते हैं और सबसे कम दाम वाली पेंटिंग चालीस हज़ार की है और तो और पिछले साल एक प्रदर्शनी में इनकी एक पेंटिंग चार करोड़ रुपयों में बिकी थी।

देख कर दिमाग़ में से भी आया कि अपने देश में अगर सब कुछ इसी तरह से ऑगेनाइज्ड होता तो हमारे अधिकतर पारंपरिक कलाकार दर-दर की ठोकरें नहीं खा रहे होते।

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