मोदी सरकार कल चार साल पूरे कर रही है. लेकिन चार साल के जश्न पर पेट्रोल-डीज़ल के बढ़े दामों का साया है तो वहीं लोकसभा के तीन महत्वपूर्ण उपचुनावों को लेकर चिंता की छाया भी है.
वैसे तो पूरे देश में चार लोकसभा और नौ राज्यों में दस विधानसभा सीटों पर सोमवार को वोट डाले जाएंगे. गिनती 31 मई को होगी. लेकिन महाराष्ट्र की दो और यूपी की एक लोकसभा सीट पर सबकी नज़रें हैं. ये तीनों बीजेपी के पास थीं.
ज़ाहिर है चुनौती इन तीनों सीटों को बचाने की है. सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा पर है. बीजेपी ने यह सीट सिर्फ दो बार ही जीती. गोरखपुर और फूलपुर की हार के बाद बीजेपी अब किसी तरह का जोखिम मोल नहीं लेना चाहती. पार्टी ने इन दो उपचुनावों में हार के बाद दलील दी थी कि ऐन मौके पर सपा-बसपा का तालमेल हो जाने से उसे तैयारी करने का वक्त नहीं मिला. लेकिन कैराना में यह दलील काम नहीं आएगी.
पर बीजेपी के लिए यहां मुश्किल इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि मुस्लिम और जाट बहुल इस सीट पर पांच पार्टियां उसके खिलाफ एकजुट हो गई हैं. यहां बीजेपी का मुकाबला राष्ट्रीय लोक दल से है जिसे सपा, बसपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का समर्थन हासिल है. बेंगलुरु में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में एक मंच पर दिखी विपक्षी एकता को कैराना में ज़मीन पर उतारने की तैयारी है.
कैराना में बीजेपी की हार का मतलब होगा कि फूलपुर और गोरखपुर की हार अनायास नहीं थी और अगर सभी विपक्षी पार्टियां एक हों तो बीजेपी के लिए यूपी ही नहीं देश भर में बहुत बड़ी दिक्कत खड़ी हो जाएगी. लोक दल जय जवान जय किसान के बजाय जिन्ना नहीं गन्ना चलेगा का नारा लगा रही है.
उधर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत प्रदेश की बीजेपी सरकार के कई मंत्री यहां डेरा डाले हुए हैं. प्रधानमंत्री नरें मोदी कैराना से सटे बागपत के मवींकला में सोमवार को रैली करेंगे. यह पहली बार है जब किसी उपचुनाव के लिए पीएम मोदी को परोक्ष रूप से ही सही, लेकिन मैदान में उतरना पड़ा है.
मुस्लिम वोटरों के बंटने के बीजेपी के मंसूबों पर तब पानी फिर गया जब निर्दलीय उम्मीदवार कंवर हसन आरएलडी उम्मीदवार तबस्सुम बेगम के पक्ष में मैदान से हट गए. आपको याद दिला दूं कि कैराना के 17 लाख वोटरों में करीब पांच लाख मुसलमान और दो लाख जाट हैं. ओबीसी और दलित वोट करीब दो लाख हैं. यहां से बीजेपी के हुकुम सिंह 2014 में जीते थे. उससे पहले उन्होंने कैराना में हिंदुओं के पलायन की बात कर धङुवीकरण करने की कोशिश की थी. अब उनके निधन के बाद उनकी बेटी मृगांका सिंह को बीजेपी ने मैदान में उतारा है. दिलचस्प बात है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव यहां प्रचार करने नहीं गए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही नूरपुर विधानसभा सीट पर भी उपचुनाव है. वहां भी बीजेपी विपक्षी एकता से जूझ रही है.
उधर, महाराष्ट्र में बीजेपी पालघर में अपनी ही सहयोगी शिवसेना से चुनाव लड़ रही है. बीएमसी, राज्य और केंद्र में सत्ता में एक-दूसरे के साथ ये पार्टियां आपस में लड़ते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए अलग तस्वीर पेश कर रही हैं. एक-दूसरे को विश्वासघाती बताया जा रहा है. जबकि भंडारा गोंदिया में शिवसेना ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारकर बीजेपी को राहत दी है. वहां बीजेपी का सीधा मुकाबला एनसीपी से है जिसे कांग्रेस ने समर्थन दे रखा है. तो व्यापक विपक्षी एकता और एनडीए की मजबूती के लिहाज से ये तीनों उपचुनाव 2019 के लोकसभा चुनावों की एक झांकी पेश कर सकते हैं.
(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)
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This Article is From May 25, 2018
चार साल पूरे कर रही मोदी सरकार पर उपचुनावों की चिंता की छाया
Akhilesh Sharma
- ब्लॉग,
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Updated:मई 25, 2018 20:03 pm IST
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Published On मई 25, 2018 20:03 pm IST
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Last Updated On मई 25, 2018 20:03 pm IST
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