स्कूल के वक़्त मेरे पिता आदर्श लड़की की परिभाषा बताते थे। लड़की जो आंखें झुका कर रहे, सलवार-कमीज़ पहने, फालतू बात ना करे। मैंने आंठवी, नौवीं में ही सूट पहनना शुरू कर दिया था। स्कूल में कभी किसी लड़के से बात करने की हिम्मत तक ना हुई। किसी ने कभी कोशिश भी की तो रोने लगती थी।
आत्मविश्वास की धज्जियां सबसे पहले घरवाले ही उड़ा देते हैं। लोग तारीफ़ करते कि आपकी बेटी बड़ी अच्छी है, कभी बाहर दिखाई नहीं देती, घर के गेट पर भी खड़ी नहीं होती। सब तारीफ़ करते तो मुझे लगने लगा कि मैं सही कर रही हूं। मैं आदर्श लड़की हूं। दिमाग में फिट की गयी वर्जनाएं कैसे और कितने वक़्त बाद टूटी, ये एक लम्बी कहानी है। लेकिन अगर ना टूटती तो शायद मैं खुद को कभी नहीं जान पाती और ना मेरे मां-बाप कभी मुझ पर गर्व कर पाते।
ये कहानी बुर्क़े के साथ भी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है अगर लड़कियां कहती हैं कि वो बुर्का अपनी मर्ज़ी से पहन रही हैं। मर्ज़ी से लड़कियां शादी के बाद अपना उपनाम भी बदल लेती हैं, सबको खुश रखने के लिए अपनी इच्छाएं भी मार लेती हैं क्योंकि उन्हें महानता की किताब बचपन से ही पकड़ा दी जाती है। किसी काम को परंपरा बनने में समय लगता है और उतना ही वक़्त उसके टूटने में भी। कुछ लड़कियों का बुर्का पहनना उनके घर से निकलने और पढ़ने के लिए शर्त है। वो ये शर्त मानती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वो कम से कम पढ़ तो पा रही हैं, बाहर तो निकल पा रही हैं। हरियाणा में पली-बढ़ी हूं, इसलिए जानती हूं कि लड़कियों को पढ़ाई करने देना भी एहसान की तरह पेश किया जाता है।
इससे पहले कि बुर्क़े के साथ इस्लाम को जोड़ने की बात हो, मैं पहले ही कुछ बातें साफ़ कर देना चाहती हूं। बुर्क़े पर मैंने इस्लाम के कई जानकारों से बात की। धर्म से इसका क्या लेना-देना है, उसके लिए कुरान का सहारा लिया। फेसबुक पर लिखा और इसके समर्थकों और विरोधियों को भी सुना। अगर बात इस्लाम से बुर्क़े के नाते की है तो इस पर इस्लाम के जानकार खुद एकमत नहीं हैं। बुर्क़े के बारे में क़ुरान में नहीं लिखा है। कपड़ों को लेकर लिखा है कि औरत और मर्द दोनों को गरिमापूर्ण तरीके से अपने शरीर को ढकना चाहिए। जब खुद इस्लाम बुर्क़े पर एकमत नहीं है तो मैं धर्म से सम्बंधित चर्चा नहीं करुंगी।
बुर्क़े के पीछे तर्क दिया जाता है कि इससे लड़की बुरी नज़र से बची रहेगी। मैं बहुत आसानी से समझ सकती हूं कि उस लड़की के आत्मविश्वास का स्तर कितना होगा। जिसे बचपन से ही पुरुषों से डराया जायेगा, वो जाकर उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कैसे कर पायेगी। अभी पिछले ही साल प्री-मेडिकल टेस्ट के दौरान मुस्लिम लड़कियों ने हिजाब और पूरी बांह के कपड़े पहनने की इजाज़त मांगी। ये सीबीएसई के नियमों के खिलाफ था। लड़कियां इस नियम के खिलाफ कोर्ट में गयी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी बात मानने से इंकार कर दिया। मैं नहीं जानती कि उन लड़कियों ने परीक्षा दी या अपनी परंपरा का पालन किया। लेकिन मैं इतना ज़रूर जानती हूं कि अगर वो डॉक्टर बनती तो ऑपरेशन थिएटर में हिजाब और बुर्का पहन कर नहीं जा सकती थीं। किसी सरकारी या प्राइवेट हस्पताल में नौकरी करतीं तो सिर्फ महिला मरीज़ को देखने का विकल्प नहीं चुन सकती थीं। अगर कोई लड़की वकील बनेगी तो अदालत में मर्दों से जिरह करने का आत्मविश्वास कैसे ला पायेगी जिसमें बचपन से ही बुरी नज़र का खौफ भरा गया हो। बुर्का पहनकर पत्रकारिता कर पायेगी? हिजाब पहन कर लड़कियां 'एंकर' बनी हैं लेकिन अपने दफ्तरों में बुरी नज़र से बचने के लिए उन्हें लड़ना ही पड़ता है। ईरान की शीना ईरानी का केस उठा लीजिये। हां, खुद को प्रगतिशील कहने वाले मिडिल क्लास को एक काम बड़ा सुरक्षित लगता है, वो है अध्यापिका का ताकि लड़की पढ़ा-लिखा कर दोपहर तक घर आ जाये और फिर अपना परिवार संभाले। उसे पुरुषों से ज़्यादा बात करने की भी ज़रूरत नहीं होगी और दूसरा उनके हिसाब के मर्यादित कपड़ों में ही पढ़ा भी सकती है।
मेरी दोस्त का क्लिनिक है। मुख्य रूप से वहां अफगानिस्तान से आई मुस्लिम महिलाएं ही इलाज करवाने आती हैं। वो अपना इलाज महिला डॉक्टर से ही करवाती हैं। वो खुद भी किसी पुरुष डॉक्टर से इलाज करवाने में सहज नहीं हैं और ना ही उनके शौहर इसकी इजाज़त देते हैं। मेरी दोस्त ने एक दिन बिना बाज़ू का कुर्ता पहना तो एक महिला मरीज़ ने उससे पूछ लिया कि क्या उसको ऐसे कपड़ों में शर्म नहीं आती है। कपड़े किस तरह हम सबकी मानसिकता बनाते हैं, ये इस उदाहरण से समझा जा सकता है। मैं खुद दिल्ली के उस क्षेत्र में रहती हूं जहां अफगानिस्तान से आये मुस्लिम लोग रहते हैं। महिलाएं तो हिजाब और बुर्कों में चलती हैं लेकिन अनेक पुरुषों की आंखें दिल्ली की लड़कियों पर गड़ी होती हैं। हमारा बिना हिजाब का होना ही उनके हिसाब से बुलावा है। ये समझना उतना ही सरल है जैसे हमारे देश के कुछ पुरुष अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया की लड़कियों को या उत्तर-पूर्व भारत से आई लड़कियों को उपलब्ध समझते हैं।
जब भी बुर्क़े पर आप बात करना चाहते हैं तो मुख्य रूप से मुसलमान पुरुष ही इसके बचाव में बढ़-चढ़ कर आते हैं। कभी वो कहते हैं कि लड़कियां अपनी मर्ज़ी से पहनती हैं, हम नहीं थोपते। अगर आप नहीं थोपते हैं तो बचाव करने का कारण क्या है। आपके लिए तो बुर्क़े की प्रासंगिकता होनी ही नहीं चाहिए। बुर्क़े के बचाव में वो बिकिनी का सहारा लेते हैं। मैंने आज तक अपने दफ्तर में, अपने पड़ोस में, बाज़ार में किसी औरत को बिकिनी पहन कर घूमते नहीं देखा। अगर हम बुर्का नहीं पहनते हैं, सिर्फ साधारण कपड़े पहनते हैं तो क्या हम इज़्ज़त के लायक नहीं हैं? ज़ाहिर है बुर्क़े का समर्थन करने वाले पुरुष लड़कियों के कपड़ों से उसके चरित्र का आंकलन करते ही होंगे। हो सकता है उन्हें ये डर भी सता रहा हो कि कहीं बुर्क़े की वजह से उनके धर्म के बारे में कोई गलत धारणा ना बन जाये। बेहतर है कि गलत परंपरा को बदला जाये ना कि उसे सही साबित करने की कोशिश की जाये। ऐसी गलत परम्पराएं हर धर्म और समाज में हैं। खाप, जातिगत भेदभाव और भ्रूण हत्या जैसी परम्पराओं पर भी समाज पर उंगलियां उठती ही हैं। उन पर मर्ज़ी का ठप्पा तो नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर प्रदेश के फूलपुर गांव में रिपोर्टिंग के दौरान एक दलित बुज़ुर्ग, ब्राह्मण के आंगन में ज़मीन पर आकर बैठ गया। कई बार कहने पर भी चारपाई पर नहीं बैठा। हमने घर के मालिक से पूछा कि क्या आपकी वजह से नीचे बैठ रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि हमने तो नहीं कहा, हम मानते ही नहीं हैं ये सब, ये इन्हीं की मर्ज़ी है। ये पूरी घटना हम प्राइमटाइम में दिखा चुके हैं। अब इसमें कानून किसको दोष दे पायेगा। पिछले साल एक पीड़ित दलित महिला अपनी आप-बीती बताते हुए अफसरों के सामने ज़मीन पर बैठी रही और वो तस्वीर हम सबने देखी। कुछ लोगों को तो उसमें भी कुछ असाधारण दिखाई नहीं दिया।
अगर नियम लगाने ही हैं, धार्मिक बनाना ही है तो अपने बेटों को भी बना दीजिये। धर्म की निशानियों को बचाने का ठेका महिलाओं ने ही तो नहीं लिया। अगर आपने उन्हें दिया है तो क़ाज़ी, मौलाना, पंडित उन्हें भी बना दीजिये। अपने बेटों को भी हर वक़्त टोपी पहनने को कहिये, दाढ़ी रखने को कहिये, देखते हैं कि कितना निभा पाएंगे। ज़रा एक बार लड़कों के हॉस्टल 8 बजे बंद करने की हिम्मत दिखाइए। लड़कियों को बुर्क़े, हिजाब, घूंघट में कितना ही डाल लीजिये लेकिन ये ऐसा ही होगा कि अगर कबूतर बिल्ली को देख कर अपनी आंखें बंद कर ले और ये भ्रम पाल ले कि बिल्ली उसे देख नहीं सकती।
बुर्का हटाने से महिला का सशक्तिकरण नहीं हो जायेगा लेकिन इस बात में दो राय नहीं हैं कि महिला के सशक्तिकरण में ये एक रोड़ा ही है। धर्म चाहे अलग अलग हों लेकिन समाज एक ही है और इस समाज की प्राथमिकता में पुरुष ही रहता है। ऐसी बहुत सी परंपराएं हैं जिन पर हम सवाल ही नहीं करते क्योंकि हमें वो बहुत स्वाभाविक और प्राकृतिक लगता है। मैं लोगों को समझाती हूं, लड़ती हूं, दुखी भी होती हूं लेकिन मैं रुक नहीं सकती हूं क्योंकि मेरी आज़ादी भी लोगों की निरंतर लड़ाई का नतीजा है। लोगों ने लगातार भ्रूण हत्या के खिलाफ लिखा, लोगों ने लगातार महिलाओं की शिक्षा और काम करने की आज़ादी पर लिखा, तभी शायद आज मैं आत्मनिर्भर हूं।
महिलाओं को देवी का झांसा देकर सब बलिदान उन्हीं से करवा लिए जाते हैं। सुरक्षा की दुहाई भी वही झांसा है जो लड़कियों को आगे बढ़ने से रोकता है।
(सर्वप्रिया सांगवान एनडीटीवी में एडिटोरियल प्रड्यूसर हैं)
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This Article is From Feb 10, 2016
बुर्क़े वाली आदर्श लड़की
Sarvapriya Sangwan
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 11, 2016 18:13 pm IST
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Published On फ़रवरी 10, 2016 21:43 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 11, 2016 18:13 pm IST
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