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This Article is From Nov 23, 2018

संविधान पर पहला सवाल सब्ज़ी वाले ने किया

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 23, 2018 23:47 pm IST
    • Published On नवंबर 23, 2018 23:47 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 23, 2018 23:47 pm IST
जब भी हम सुप्रीम कोर्ट के किसी फ़ैसले की बात करते हैं, बात करने वाले की ज़ुबान पर जज साहिबान की टिप्पणियां और बड़े-बड़े वकीलों की दलीलें होती हैं. पर कई बार हम उस याचिकाकर्ता को भूल जाते हैं जो होता तो बेहद साधारण है मगर अधिकारों के सवाल को लेकर राज्य, जिसे हम बार-बार सरकार कहते हैं उसे बदल देता है. बदलता ही नहीं, उसे सीमित कर देता है और अपनी ज़िंदगी में घुसते चले आ रहे राज्य को फिर से दरवाज़े के बाहर कर देता है. इनमें से बहुत सी लड़ाइयां आज़ाद भारत में पहली बार लड़ी गईं और बेहद साधारण वकीलों की मदद से, मतलब जिनका कोई ख़ास नाम नहीं था. 1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ तब उस वक़्त राज्य का जो ढांचा मौजूदा था उसके लिए भले ही कुछ नया न बदला हो मगर लोगों के लिए काफ़ी कुछ बदल गया. उन्हें जो अधिकार मिला था उस अधिकार के सहारे और उसे बरक़रार रखने के लिए वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए.

1958 में 17 एकड़ ज़मीन पर सुप्रीम कोर्ट की इमारत बनी तो बनाने वाले के दिमाग में ये बात रही होगी कि यह इंसाफ़ की सर्वोच्च और अंतिम संस्था है. गणेश भीकाजी देवलालीकर इसके आर्किटेक्ट थे जिन्हें लोक निर्माण विभाग का पहला भारतीय प्रमुख होने का मौका मिला था. इसके पहले सुप्रीम कोर्ट संसद भवन की उस इमारत में चलता था जहां रजवाड़ों के राजा बैठकें किया करते थे. इसी सुप्रीम कोर्ट के तहखाने में इसके फ़ैसलों का रिकॉर्ड रूम है जहां फैसलों की कॉपी, उनके साथ नत्थी किए गए सबूत, याचिका की कॉपी और उसकी भाषा जैसे कई रिकॉर्ड मिलते हैं. ज़माने तक इस रिकॉर्ड रूम तक कोई स्कॉलर नहीं गया क्योंकि यहां जाने की कोई औपचारिक व्यवस्था ही नहीं थी, जैसे अगर जाना हो तो आप अनुमति किससे लेंगे, यही साफ़ नहीं था. रोहित डे पहले स्कॉलर होते हैं जिन्हें 2010 में सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड रूम में जाने का मौका मिलता है.

1950 में जब संविधान लागू हुआ तब अंग्रेज़ी में लिखे गए उस संविधान से क्या लोग भयभीत हो गए थे, उसे बनाने वाले लोगों की हैसियत की छाप क्या ऐसी रही होगी कि उन्हें लगा होगा कि संविधान लागू हुआ है तो इसे समझना, इसे लेकर लड़ना आम लोगों के बस की बात नहीं है, क्या ऐसा हुआ होगा कि लोग अदालत तक जाने से कतराते होंगे, जो अभी भी ब्रिटिश हुकूमत की बनाई इमारतों में चल रही थी. ऐसा बिलकुल नहीं हुआ. दरअसल रोहित डे की एक किताब आई है, A PEOPPLE's CONSTITUTION THE EVERYDAY LIFE OF LAW IN THE INDIAN REPUBLIC. यह किताब इस मायने में रोचक है कि इसमें वकीलों और जजों की कथा नहीं है, उनकी विद्वता और शेक्सपियर के कोट्स की चर्चा कम है, उन आम लोगों की बात है जो संविधान लागू होने के कुछ ही दिनों के भीतर अपने अधिकारों की मांग को लेकर कोर्ट चले गए. हम यह तो जानते हैं कि 1950 में संविधान लागू हुआ मगर यह बहुत कम लोग जानते हैं कि लोगों ने उस संविधान को कैसे अपनाया, उसे लेकर ख़ुद के अधिकारों को कैसे समझा और स्टेट को कैसे समझा दिया कि आपकी हदें क्या हैं. पश्चिमी यूपी के जलालाबाद का मोहम्मद यासीन सुप्रीम कोर्ट आ गया क्योंकि जलालाबाद की नगरपालिका ने तय किया था कि एक ही आदमी को सब्ज़ी बेचने का लाइसेंस मिलेगा और वो लाइसेंस किसी हिंदू को दिया गया. यासीन ने केस कर दिया कि यह सबकी आजीविका के अधिकार पर हमला है. कैसे किसी एक को ही लाइसेंस मिलेगा और पहले से बेच रहे सब्ज़ीवालों को बेदखल कर दिया जाएगा. एकदम दावे से तो नहीं कहा जा सकता मगर अपने अधिकारों को लेकर अदालत पहुंचने वालों का जो पहला जत्था रहा होगा, उसमें से मोहम्मद यासीन भी एक है, यासीन मुकदमा जीत गया.

नवंबर का महीना संविधान दिवस का भी महीना होता है. हम संविधान दिवस को इसे बनाने वालों और लागू करने वालों की निगाह से देखते हैं, मगर आज हम इसे अपनाने वाले और आज़माने वाले लोगों की निगाह से देखेंगे. वो कौन लोग थे जिन्होंने संविधान लागू होने के पहले कुछ महीनों में अपनी ही चुनी हुई सरकार को चुनौती दी. वे पहले ही महीने में याद दिला रहे थे कि ठीक है, हमने इस सरकार के लिए डेढ़ सौ साल संघर्ष किया है, इस सरकार में वही लोग हैं जिनके पीछे हम चला करते थे, जेल जाया करते थे लेकिन संविधान की भावना संविधान की भावना होती है. इससे समझौता नहीं करेंगे. हज़ारों की संख्या में लोग अपने अधिकारों के हनन के सवाल को लेकर अदालत पहुंच गए थे, यह संख्या देखकर लगता नहीं कि भारत की जनता ने अपने जीवन में कभी संविधान देखा ही नहीं था. वो भी स्टेट के ख़िलाफ़ मुकदमे काफ़ी बढ़ गए थे.

1950 में सुप्रीम कोर्ट में 600 से अधिक रिट याचिकाओं की सुनवाई हुई थी. जबकि उसके पहले ब्रिटिश फेडरल कोर्ट ने 11 साल में मात्र 169 केसों को ही सुना था. फेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया 1937 में बना था जो सिर्फ़ तीन जजों से चलता था. 1962 तक सुप्रीम कोर्ट में सुनी जाने वाली याचिकाओं की संख्या 3,833 हो गई थी. इन्हीं 12 सालों में अमेरिका की सर्वोच्च अदालत में मात्र 960 केस ही सुने गए थे. अमेरिका की सर्वोच्च अदालत का इतिहास 100 साल से ज़्यादा हो चुका था.

अदालतें रिट याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सरकारों को निर्देश देने लगी थीं जिसके कारण सरकारों के भीतर बेचैनी बढ़ने लगी कि ये तो अपनी ही जनता है, हमारे ही ख़िलाफ़ केस करती है, यही नहीं भारत की वह साधारण जनता बड़ी संख्या में स्टेट यानी सरकार से मुकदमा जीतने लगी. क्या यह सुंदर और दिलचस्प नहीं है कि संविधान लागू होने के कुछ ही हफ़्तों और महीनों में इसे लोगों ने अपना लिया और इसके लिए जीने-मरने लगे.

संविधान लागू होने के 15 साल के भीतर दो तिहाई मुकदमों में नागरिक और सरकार आमने-सामने हो गए. 40 प्रतिशत से अधिक केसों में लोग सरकार से मुकदमा जीत गए. 3272 फ़ैसलों में से 487 में सरकार के बनाए क़ानूनों की वैधता को चुनौती मिली और रद्द कर दिए गए. दुनिया में ऐसी कम ही सरकारें होंगी जो जनता के सामने अपने बनाए क़ानूनों का बचाव नहीं कर सकीं.

सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड रूम में न जाने कितनी बातें बाहर आने को बेताब हैं. इन याचिकाओं के ज़रिए जब लोगों के किस्से बाहर आएंगे तब संविधान लोगों के बीच दिखने लगेगा. आपको भी हिम्मत आएगी जब उस दौर में लोग अदालत की सीढ़ियां चढ़ गए तो आप क्यों हिचक रहे हैं. ऐसा करते हुए उन लोगों ने अदालतों का मुकाम ऊंचा होने का मौका दिया क्योंकि अगर ऐसा न होता तो कोर्ट की राजनीति वकीलों और सरकारों के बीच घूम फिर कर रह जाती और अदालत के ज़रिए भारत के लोकतंत्र का विस्तार नहीं होता. हम बड़े वकीलों को जानते हैं मगर साधारण वकीलों ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई है. संविधान लागू होने के वक़्त भारत में वकीलों की कोई कमी नहीं थी.

जब भारत आज़ाद हुआ तब 72,425 वकील थे. आबादी के लिहाज़ से संख्या कम हो सकती है मगर दुनिया में अमेरिका के बाद सबसे अधिक वकील भारत में ही थे. 1957 में जब चीन आज़ाद हुआ तब वहां मात्र 3000 वकील थे. ऐसा नहीं है कि आज यह प्रक्रिया बंद हो गई है, लोग अपने अधिकारों को लेकर संकोची हो गए हैं. बल्कि जो बुनियाद उस वक़्त पड़ी थी उसी का नतीजा है कि आज भी ऐसे वकील हैं जो आम लोगों के अधिकारों की लड़ाई के लिए आगे आ जाते हैं और अपने समय में संविधान और उसकी आत्मा को धड़कते रहने के लिए ऑक्सीजन की कमी नहीं होने देते हैं.

केरल की एक आम लड़की हादिया शक्तिशाली एनआईए के ख़िलाफ़ अपना मुकदमा लेकर सुप्रीम कोर्ट आ जाती है. वह लव जिहाद की बोगस अवधारणा का प्रतिकार करती है, न्यूज़ चैनलों की हिंसक भाषा के बाद भी वह सुप्रीम कोर्ट की सीढ़ियों को चढ़ती है, बाक़ायदा मुकदमा लड़ती है और जीत जाती है. सिर्फ़ एनआईए के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि केरल हाइकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भी जिसमें उसकी शादी को अमान्य कर दिया गया था.

हादिया को छोड़ कर हमने अभी तक जितनी भी जानकारी बताई है वो सारी की सारी रोहित डे की किताब से ली है जो अंग्रेज़ी में आई है. A PEOPPLE's CONSTITUTION THE EVERYDAY LIFE OF LAW IN THE INDIAN REPUBLIC, जिसे प्रिंसटन प्रकाशन ने छापा है, कोई 524 रुपए की है. आप जानते हैं कि मैं जब भी किताब का नाम लेता हूं, उसका दाम और प्रकाशक ज़रूर बताता हूं. तो भारत की जनता तैयार थी बस इंतज़ार था संविधान का. जब आया तो जनता ने उसे बनाने वालों से समझा. यहां तक कि उस वक़्त की सरकारों के मुखिया झुंझलाने लगे थे. इस किताब के लेखक और इतिहासकार रोहित डे हमारे साथ हैं. येल यूनिवर्सिटी में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.

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