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This Article is From Nov 30, 2016

किरायेदारों, कामगारों को अनैतिक बनाकर कैशलेस नैतिकता कायम नहीं हो सकती

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 30, 2016 13:50 pm IST
    • Published On नवंबर 30, 2016 13:00 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 30, 2016 13:50 pm IST
नोटबंदी और नोटविहीन समाज की बुनियाद नैतिकता पर टिकी है. आदर्श रूप में भले न हो मगर उस दिशा में प्रस्थान का इशारा तो करती ही है. सबको ईमानदार होना है. इसलिए सबको कैशलेस होना होगा. सारी बहसों के केंद्र में यही है कि कैशलेस होना ही ईमानदार व्यवस्था और बाजार के निर्माण का प्रमाण है. दुनिया के इतिहास में न तो कहीं व्यवस्था ईमानदार हो सकी है, न समाज और न बाजार. इन तीनों को ईमानदार और पारदर्शी बनाने का अभियान समय-समय पर चलता ही रहता है. कैशलेस अब इस अभियान का नया झंडा है. अखबारों में कैशलेश लेन-देन करने वाली कंपनियों के खूब विज्ञापन आ रहे हैं. रेडियो, टीवी या अखबार कुछ भी आप खोल लें, हर जगह कैशलेश होने को लेकर प्रवचन चल रहा है. प्रवचन करने वाले धार्मिक लोग भी कैशलेस का प्रचार कर रहे हैं.

राजनीतिक दल के लोग जनता को प्रशिक्षण दे रहे हैं कि वह कैसे मोबाइल फोन के जरिए बैंक से लेकर बाजार तक में लेन-देन कर सकता है. उम्मीद करता हूं सांसद विधायक किसी प्राइवेट कंपनी के मोबाइल वॉलेट का प्रचार न कर रहे हों. हम सबके लिए कई नैतिकताएं हैं. राजनीति तय करती है कि किस वक्त कौन सी नैतिकता व्यापक नैतिकता मानी जाएगी, जिसे स्वीकार करना राष्ट्रवाद का प्रतीक होगा, देश के लिए बलिदान होगा. व्यापक नैतिकता में बदलाव होता रहता है. इस वक्त भारत का कैशलेस होना ही व्यापक नैतिकता है. इससे बड़ी दूसरी नैतिकता मार्केट में नहीं है. इसलिए उसके प्रसार का जिम्मा सरकार, कंपनी, राजनीतिक दल, मीडिया और नागरिकों ने अपने कंधे पर ले लिया है. इस व्यापक नैतिकता के आगे बाकी तमाम नैतिकताएं लघु नैतिकता मानी जा रही हैं. मतलब आप इस व्यापक नैतिकता के प्रसार के लिए बाकी की नैतिकताओं से समझौता कर सकते हैं, उनके उल्लघंन को नजरअंदाज कर सकते हैं. यह एक किस्म की नैतिक बेईमानी है जिसे आप व्यापक नैतिकता के लिए दी गई कुर्बानी समझकर अपना बोझ हल्का कर सकते हैं.

राजनीतिक दल के लोग जत्थों में व्यापारियों को सिखा रहे हैं कि कैसे मोबाइल बैंकिंग करते हैं. अच्छी बात है. कहीं ऐसा न हो कि ये नेता किसी प्राइवेट कंपनी के मोबाइल वॉलेट का प्रचार कर रहे हों. अगर कर रहे हैं तो हमें यह देखना होगा कि क्या कोई सरकार अपने सांसदों को किसी कंपनी के प्रोडक्ट को प्रचारित करने में भी लगा सकती है. यह अच्छा तो नहीं है, लेकिन जब सांसद और भारत रत्न तक झंडूबाम से लेकर फूलझाड़ू तक का विज्ञापन करते हैं तो मोबाइल वॉलेट का क्यों नहीं कर सकते हैं. नजरअंदाज तो हम करते ही रहे हैं. इसे भी कर ही देंगे. एक मोबाइल वॉलेट कंपनी तो इस राष्ट्रवादी खेल में कूदते हुए अपने को देश का वॉलेट घोषित कर चुकी है. अब आपका बटुआ भी देशभक्ति का प्रमाण है. अगर मोबाइल वॉलेट है तब तो वो देश का बटुआ हुआ लेकिन पीछे की जेब में नोटों से भरा बटुआ रखकर चलते हैं तो उसे देश का गद्दार बटुआ घोषित कर दिया जाए.

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क्या वाकई पूरा देश कैशलेस हो रहा है? लोकपाल के समय सिस्टम में नैतिकता की स्थापना की बात हो रही थी. अब तो लोकपाल भी कैशलेस नैतिकता के आगे लघु नैतिकता को प्राप्त हो चुका है. अगर कैशलेस भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग है तो क्या हम मान लें कि बाजार और सरकार के लेन-देन की प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी नहीं है, जो भी बुराई है, सिर्फ नगदी नोट के लेन-देन से है, इसके खत्म होते ही रावण अपने आप मर जाएगा. मेरे मन में भी कैशलेस अर्थव्यस्था को लेकर कुछ सवाल हैं. हो सकता है मेरे सवाल मूर्खतापूर्ण हों लेकिन मन की बात मन में क्यों रखें. क्यों न ब्लॉग की बात में बदल दें. नोटबंदी के समय बताया गया कि करीब 14 लाख करोड़ नगदी नोट चलन में हैं. अगर सरकार कुछ महीनों में इतनी मात्रा में फिर से इतने ही नोट छापकर बाजार में उतार देगी तो हम कैशलेस अर्थव्यवस्था कैसे हुए. क्या कैशलेस अर्थव्यवस्था में नोट उतनी ही मात्रा में छपते रहते हैं? हम दृश्य मुद्रा से अदृश्य मुद्रा की ओर धकेले जा रहे हैं. क्या कैशलेस अर्थव्यवस्था में कैश नोट की छपाई कम नहीं होनी चाहिए? इस सवाल का जवाब खोज रहा हूं कि जिन मुल्कों ने नोटविहीन अर्थव्यवस्था अपनाई है, उनके यहां कैश छपने बंद हो गए, पहले से कम हो गए या पहले से भी बढ़ गए हैं. जब पचास दिनों या छह महीने के बाद लोगों के पास उतना ही कैश आ जाएगा तो क्या लोग तब भी कैशलेस होंगे. क्या दो लाख एटीएम बंद हो जाएंगे? कैशलेस अर्थव्यवस्था में कैश देने वाली मशीनों की क्या जरूरत है?

कैशलेस नैतिकता को जब हम राष्ट्रीयता की पहचान में ढालते हैं तो कई सवालों का सामना करने के लिए साहस भी जुटाना होगा. दिल्ली मुंबई से लेकर देश के तमाम शहरों में लाखों की संख्या में मकान मालिक कैश में किराया लेते हैं. यह लोग एक जनवरी के बाद भी कैश में किराया लेने पर जोर डाल रहे हैं. मुमकिन है नोटबंदी के समर्थक दल के कार्यकर्ता भी इसी टाइप के मकान मालिक होंगे, बल्कि हैं हीं. कैश में लिया गया किराया एक किस्म से टैक्स से बाहर होता है और काला धन में बदल जाता है. क्या सरकार और उसके दलों के सांसद तमाम मोहल्लों में जाकर मकान मालिकों को भी समझाने का काम करेंगे कि किराया कैश में न लें, चेक से लें या कैशलेस सिस्टम से लें. अगर हम और आप कैशलेस हो जाएं और उसके बाद भी समानांतर रूप से सरकार की नजर से बाहर कैश में लेन-देन चलता रहे तो फिर इसका क्या फायदा. यह तो पुराने सिस्टम जैसा ही हुआ. कुछ लोग नियमों का पालन करेंगे ही और कुछ लोग नियमों का पालन नहीं करेंगे.

मकान मालिक और किरायेदार के बीच एक किरायानामा बनता है. ऐसा नियम बनना चाहिए कि ये किरायानामा आयकर रिटर्न फार्म के साथ अनिवार्य रूप से जमा किया जाएगा. अगर नहीं किया जाएगा तो मालिक और किरायेदार के बीच विवाद की स्थिति में इस किरायेनामे की कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहेगी. इसी तरह नोटबंदी के समर्थक प्रापर्टी डीलरों को भी कमीशन कैश में नहीं दिया जाना चाहिए. बकायदा हलफनामे में उसका जिक्र हो और उस पर भी टीडीएस कटे. सारा पैसा चेक से दिया जाए या मोबाइल वॉलेट से. आयकर विभाग को किरायेदारों के लिए अलग से हेल्पलाइन बनानी चाहिए जहां कोई पहचान गुप्त रखकर सूचना दे सके कि उनका मकान मालिक कैश में किराया ले रहा है. किरायेदारों को भी मकान बदलने की तकलीफ की चिंता नहीं करनी चाहिए. जब गरीब लोग घंटों लाइनों में खड़े रह सकते हैं तो वे भी चेक से किराया लेने वाले मकान मालिकों की तलाश में हफ्ते-हफ्ते घर बदल सकते हैं.

जब टैक्स राष्ट्रवाद चल ही रहा है तो ठीक से चले. उम्मीद है नोटबंदी के समर्थक मकान मालिक कैश में किराया लेना बंद कर चुके होंगे. जब दुनिया नैतिक हो रही है तो वे अनैतिक कैसे हो सकते हैं और किरायेदार को अनैतिक होने के लिए बाध्य कैसे कर सकते हैं. अनैतिकता थोपने वाला मकान मालिक या कंपनी मालिक या ठेकेदार समाज और सरकार का अपराधी है. सरकार को कानून बनाना चाहिए ताकि किरायेदार खुद को अनैतिक होने से बचा सकें. मजबूर किए जाने पर वे मकान मालिक के खिलाफ कार्रवाई कर सकें. इसके बाद भी मजबूरी का चलन जारी ही रहेगा फिर भी जो ईमानदार होना चाहता है उसका साथ तो सरकार को देना ही चाहिए. राजनीतिक दलों को अपनी रैलियों का खर्चा मोबाइल बैंकिंग से करना चाहिए, ताकि पता चल सके कि शामियाने वाला किसी दल को किस रेट में कनात देता है और किसी शादी वाले को किस रेट में. पत्रकार भी कैश में सैलरी न लें. मीडिया संस्थान जो नोटबंदी की हवा में आंधियों की तरह शामिल हैं, वे भी सारी सैलरी चेक से दें. कैश का सिस्टम तुरंत खत्म हो. सैलरी का कोई भी हिस्सा नगद में न दिया जाए.

तमाम जगहों से खबरें आ रही हैं कि कई लोगों ने अपना काला धन एक या दो साल की सैलरी देकर खपा दिया है. कंपनी वालों ने भी किया है, कोठी वालों ने भी किया है. सरकार के पास इतने संसाधन तो नहीं हैं कि वह तमाम खातों से पूछे कि अचानक दो साल की सैलरी का पैसा कैसे आपके खाते में आ गया. इसलिए उसे एक हेल्पलाइन नंबर देकर लोगों से अपील करनी चाहिए कि वे खुद आगे आएं और बता दें. अगर सही पाया गया तो इस पैसे पर उनके मालिक से टैक्स वसूला जाए. आखिर दो साल का एडवांस देना काले धन को सफेद ही करना होता है. इससे सरकार न सिर्फ अधिक आयकर कमा सकती है बल्कि करोड़ों बेकसूर मजदूरों और काम वालियों को अनैतिक होने से बचा सकती है. यह बहुत पुण्य का काम होगा. नोटबंदी के पहले तक उनका हर पैसा सफेद था. मेहनत और ईमानदारी का था. लेकिन अब उनके पैसे में भी काला धन मिल गया है. अगर ऐसा हुआ है तो इस अभियान ने करोड़ों लोगों को अनैतिकता का पार्टनर बना दिया है. नोटबंदी की कामयाबी का यह बेहद दुखद और शर्मनाक पक्ष है. लाखों काम वालियों से लेकर कामगारों को इस अनैतिक अपराधबोध से गुजरना पड़ रहा होगा. उनके मालिक भी अपने कामगारों की निगाह में गिरे होंगे मगर इससे सिस्टम में बदलाव नहीं होता है.

यह एक तरह से अनैतिकता का व्यापक लोकतंत्रीकरण है. वे लोग भी अनैतिकता के पार्टनर हो गए जो इस खेल से दूर थे. अपनी मेहनत का खाते थे. पहले उनका खून चूसकर काला धन कमाया गया,अब उन्हीं कमजोर और बीमार लोगों को दिया जा रहा है कि इसे सफेद करने की जिम्मेदारी तुम पर भी है. यह कैसा अन्याय है. कैशलेस नैतिकता को कायम करने के लिए आम लोगों की नैतिकताओं को कुचला गया है. प्रधानमंत्री करोड़ों ईमानदार लोगों को इस अपराध बोध से मुक्त करने के लिए सबके खाते की जांच करवाएं. जनधन खातों के लोग एक तरह से अपराधी बनाए गए हैं. उन्हें अपराधी बनाने वालों को भी कड़ी सजा मिलनी चाहिए. इन चालाक लोगों ने बड़ी संख्या में ईमानदार लोगों को अपना काला धन बचाने में पार्टनर बना लिया है. बहुत से प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं में टीचर से पचास हजार की सैलरी पर दस्तखत कराए जाते हैं लेकिन दिया जाता है पच्चीस हजार. यह आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा.  

यह सब प्रथाएं बंद नहीं होंगी तो प्वाइंट आफ सेल (पीओएस) मशीन बांटकर कैशलेस नैतिकता कायम नहीं हो सकती है. प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने और पारदर्शी बनाने का वक्त आ गया है ताकि हम सबको ज्यादा से ज्यादा ईमानदार बने रहने का अवसर सरकार उपलब्ध कराए. कोई किसी को काला धन सफेद करने के लिए मजबूर न करे. प्रधानमंत्री ने मन की बात में कहा है कि मजदूरों की सैलरी चेक से मिलेगी. क्या वे गारंटी देते हैं कि इसके बाद कैश में सैलरी का सिस्टम खत्म हो जाएगा. इतनी जल्दी तो कुछ भी नहीं होगा लेकिन यह सिस्टम खत्म हो इसके लिए ईमानदार प्रयास होना चाहिए. मजदूर बस्तियों में सूचना के पोस्टर लगाए जाएं कि रजिस्टर में ज्यादा लिखा है और मिलता कम है, तो इसकी सूचना सरकार को दें. सरकार उस सूचना का पावती नंबर भी देगी. भले ही यह सब कहानियां प्रेस में नहीं आएंगी लेकिन वह मजदूर तो जान जाएगा कि प्रचार कुछ और है, खेल कुछ और.

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