मुझे हमेशा लगा कि जिन लड़कियों को घर से बाहर पढ़ने के लिए भेजा जाता है, वे आधी लड़ाई वहीं जीत जाती हैं। घर की चहारदिवारी से बाहर निकलना, अपना ख्य़ाल ख़ुद रखना, अपने पसंद के लोगों से मिलना-जुलना, मनमाफ़िक ढंग से जीना एक नेमत है, जो हर किसी को हासिल नहीं। जैसे मुझे और मेरी जैसी हज़ारों-लाख़ों दूसरी लड़कियों को नहीं मिला, क्योंकि वे छोटे शहरों, गांवों, कस्बों और संयुक्त परिवारों में पलती-बढ़ती थीं। लेकिन जैसा इस मामले में कहा गया, असली लड़ाई वह होती है जो सिस्टम में रहकर लड़ी जाती है और यह कि आज़ादी मिलने नहीं हासिल करने की चीज़ होती है।
आज से 15 साल पहले का समाज काफ़ी अलग था, ख़ासकर एक छोटे से शहर में जहां औद्योगिकीकरण और कोयले के कारण पैसा तो क्रिश्चिन मिशनरीज़ के बदौलत शिक्षा काफ़ी बेहतर हुआ करती थी, लेकिन पारिवारिक संरचना और उनके वैल्यूज़ काफ़ी हद तक पारंपरिक थे। हमारी ज़िंदगी दो हिस्से में बंटी होती थी, सुबह से शाम तक जहां हम खुले माहौल में होते थे। दुनिया में पैर जमाने की ट्रेनिंग लेते थे तो रात होते ही ज्वाइंट फैमिली के दांव-पेंच में फंस जाते। इन्हीं दिनों हम अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया का अंग्रेज़ी संस्करण पढ़ा करते थे, जो हमें शाम को मिल जाया करता था, क्योंकि कलकत्ता से धनबाद आने वाली ट्रेनें ज्यादा फ्रीक्वेंट होती थीं। पटना तब भी हमारे लिए दूर था।
टाइम्स ऑफ इंडिया तब भी हमें पांच रुपये में मिल जाया करता था, जिसमें हर इतवार को आठ पन्ने का मैट्रिमोनियल ऐड छपा करता था। मां जब भी किचन में काम करने के लिए या कपड़े की रैक में बिछाने के लिए अख़बार मांगती तो मैं मैट्रिमोनियल्स के वे आठ पन्ने पकड़ा देती। एक दिन मां ने पूछा कि ये क्या काम के पन्ने नहीं हैं? तब मैंने उन्हें बताया कि ये मैट्रिमोनियल्स के पन्ने हैं, जिसमें पूरे देश के हर जाति, धर्म, प्रकार, विकार के मैट्रीमोनियल ऐड होते। कई विज्ञापन काफ़ी हास्यपद हुआ करते थे, जैसे- एज-45 लुक्स लाइक-25... गर्ल शुड नॉट बी मोर दैन 26...! इन विज्ञापनों के इतने विविध कॉलम होते कि पढ़ते-पढ़ते अगला इतवार आ जाए। ख़ैर, मां की दिलचस्पी इनमें बढ़ने लगी, अंग्रेज़ी वह पढ़ लिया करती थीं, जहां कुछ समझ नहीं आता वहां मुझसे कहती कि बताओ ये क्या लिखा है। मैं तब बीए पार्ट टू में पढ़ रही थी, स्थानीय स्तर पर दो-तीन नौकरियां भी कर चुकी थी और आईआईएमसी के इन्ट्रेंस की तैयारी कर रही थी। मां ने कब इन ऐड्स को सीरियसली लेना शुरू कर दिया, मुझे पता नहीं चला।
उन्हीं दिनों मेरे पति जो एयरफोर्स में नौकरी कर रहे थे और गुवाहाटी के नज़दीक पोस्टेड उन्होंने एक ऐड दिया था, जिसमें लिखा था-लड़की का पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है, नो-डाऊरी एंड नो कास्ट बार। वाम चेतना से ओत-प्रोत मेरे माता-पिता को यह भा गया। पापा ने तो किसी सार्वजनिक मंच पर बोल भी रखा था कि ना दहेज लूंगा, ना दूंगा। दोनों पक्षों के लिए बस इतना काफ़ी था।
तेज़ी से घटते इस घटनाक्रम ने मेरी ज़िदगी बदल दी, 9 जुलाई की शाम के 4.15 की राजधानी एक्सप्रेस से जब मुझे आईआईएमसी का इंटरव्यू देने आना था, तब दिन के एक बजे मेरे पति अपने छोटे भाई के साथ मेरे घर धमक चुके थे। अजीब स्थिती थी एक तरफ़ मैं और मेरा करियर, तो दूसरी तरफ़ मेरे होने वाले पति और मेरा परिवार... जो एक साथ थे और मैं अकेली...।
चूंकि मैंने इंग्लिश जर्नलिज़्म और एडवरटाईज़िंग व पीआर दोनों का रिटन एक्ज़ाम क्लियर किया था तो दोनों के लिए इंटरव्यू दिया था और उन चार दिनों तक मेरे होने वाले पति अपने भाई के साथ मेरे घर पर मेहमान-नवाज़ी करवा रहे थे। इसके बाद यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि मेरे परिवार वाले किसकी तरफ़ होते।
ज़ाहिर है, उस एक मैट्रिमोनियल ने मेरी दुनिया बदल दी थी, तब बहुत परेशान होती तो सोचती कि डीएम के पास जाकर रिकवेस्ट करूंगी कि मेरी शादी रुकवा दें, लेकिन सच्चाई यह है कि इस फ़ैसले के अलावा मुझे मेरे घरवालों से कोई शिकायत नहीं रही। बेटों से ज्य़ादा प्यार और मौकों के साथ पली-बढ़ी थी, लेकिन उनको यह समझाने में नाकाम रही कि अभी मुझे शादी नहीं करनी है। उस दौरान भी मैंने अपने होने वाले पति को अपनी आगे पढ़ने की मंशा, शादी के बाद तुरंत मां ना बन पाने की शर्त और अपने पूर्व के भावनात्मक जुड़ाव के बारे में बताया ताकि वे मुझसे ज़्यादा उम्मीद ना पालें।
तब, सोशल मीडिया नहीं था, इसलिए मेरी लड़ाई मेरी अकेली के थी। आज 15 साल बाद पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगभग हर वह चीज़ मेरे पास है जो कोई भी लड़की चाहेगी, लेकिन जिस चीज़ का अफ़सोस ज़िंदगी भर रहेगा वह यह कि 20 साल की उम्र में जब मुझे आईआईएमसी की क्लासरूम में होना चाहिए था, तब मैं अपने ससुराल में अलग तरह की परीक्षा दे रही थी।
आज जब पापा कहते हैं कि तुम्हारी इतनी कम उम्र में शादी करने का फ़ैसला मेरी ज़िंदगी का सबसे ग़लत फ़ैसला था, तब समझ नहीं आता कि रियेक्ट कैसे करूं। अपने माता-पिता को दुखी देखकर कोई भी बच्चा खुश नहीं हो सकता, लेकिन खुशी इस बात की है कि उन्होंने अपनी ग़लती को स्वीकार किया और इसके लिए मुझे कुछ भी अलग से करने की ज़रूरत नहीं पड़ी, सिवाए इसके कि अपने विश्वास को मेंने विश्वास के साथ जिया।
लड़कियों की ज़िदगी बेहतर करने की पहली और बड़ी ज़िम्मेदारी उनके माता-पिता की होती है। अगर आप उनकी सोच बदल पाने में सफल हो जाते हैं तो समझिए आपने कई पीढ़ियों की ज़िंदगी बेहतर कर दी। इंदुजा और उस जैसी हज़ारों लड़कियों के माता-पिता अगर यह ब्लॉग पढ़ रहे हैं तो मैं उन सबसे कहना चाहुंगी, ज़रूरी नहीं कि हर लड़की इंदुजा की तरह सोशल मीडिया का सहारा लेगी, इसलिए उनका सहारा आप खुद बनिये, अपनी बेटियों, उनकी इच्छाओं और उनकी ज़रूरतों को समझिये। उनकी ज़िदगी के फ़ैसले लेने वक्त़ सिर्फ उनकी सोचिए, किसी और की नहीं। उनके मार्क ज़ुकरबर्ग बनिए फिर देखिए आपको कभी सॉरी फ़ील करने की ज़रूरत नहीं होगी। मेरी बहनें और भतीजियां इसकी मिसाल हैं। हैप्पी वुमेंस डे।