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This Article is From Jan 07, 2017

ओम पुरी का जाना : सिनेमा से एक आम इनसान का चेहरा खो जाना

Suryakant Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 08, 2017 06:56 am IST
    • Published On जनवरी 07, 2017 04:48 am IST
    • Last Updated On जनवरी 08, 2017 06:56 am IST
ओम पुरी अब दुनिया में नहीं हैं. फिल्म उद्योग में सैकड़ों कलाकार आते-जाते रहते हैं, कुछ लोकप्रियता पाते हैं...बहुत सारे समय के साथ भुला दिए जाते हैं. सवाल यह है कि ओम पुरी में उन सैकड़ों कलाकारों से अलग क्या था और उन्हें क्यों याद किया जाता रहेगा... ओम पुरी एक बेहतरीन अभिनेता तो थे ही साथ में एक आम इनसान का चेहरा भी थे, वह चेहरा जो आपको अपने आसपास हमेशा नजर आ जाता है.   

जगजाहिर है कि भारतीय फिल्मी दुनिया चमक-दमक वाली है जिसमें चिकने-चुपड़े चेहरे चलते हैं. हीरो होने के लिए तो लंबे-तगड़े होने के साथ गोरे-चिट्टे होने की भी जरूरत होती है. ओम पुरी में इस तरह की खासियतें नहीं थीं, लेकिन अभिनय में उत्कृष्टता वह खास बात थी जिसके बलबूते वे न सिर्फ अलग-अलग तरह के चरित्रों को अभिनीत करते रहे बल्कि बतौर हीरो भी फिल्मों में  दिखाई दिए.  

विविध किरदारों को अभिनीत करते हुए वे हमेशा अलग दिखाई दिए. गंभीर चरित्रों में अनुभूतियों का उबाल उनकी एक्टिंग में होता था. कॉमेडी करते हुए जो सहज रंग उनके अभिनय में था वह उनके कुछ ही समकालीनों में दिखाई देता है. वह वास्तव में मैथड एक्टिंग करते थे जिसके संस्कार उन्हें निश्चित ही नेशनल स्कूल आफ ड्रामा और दिग्गज निर्देशकों से मिले होंगे.    

सन 1980 में गोविंद निहलानी की फिल्म 'आक्रोश' में शोषित आदिवासी 'भीखू' के किरदार को देखिए...इस फिल्म में भीखू यानी कि ओम पुरी के सिर्फ तीन छोटे-छोटे संवाद हैं और एक आक्रोश मिश्रित रुदन है. इस फिल्म में ओम पुरी के अभिनय की उत्कृष्टता के शिखर देखे जा सकते हैं. पूरी फिल्म में ओम पुरी की बॉडी लेंग्वेज ही उनका अभिनय है. चेहरे पर आती-जाती प्रतिक्रियाएं, हावभाव इतना कुछ कहते रहते हैं जितना कि किसी संवाद के जरिए नहीं कहा जा सकता था. इस चरित्र को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके कैरेक्टराइजेशन के लिए ओम पुरी ने कितनी मेहनत की होगी...

समानांतर सिनेमा के इसी दौर में सन 1983 में गोविंद निहलानी के ही निर्देशन में बनी फिल्म 'अर्धसत्य' में भी ओम पुरी हीरो थे. यह किरदार था व्यवस्था से लोहा लेते एक अधिकारविहीन पुलिस सब इंस्पेक्टर अनंत वेलनकर का. इसमें कोई शक नहीं कि गोविंद निहलानी जैसा फिल्मकार जब कैमरे पर भी बैठा हो तो हर दृश्य अपनी अलग व्याख्या पा जाता है, लेकिन कलाकार के एक्सप्रेशन जब तक जानदार नहीं होंगे तब तक दृश्य में 'आत्मा' कैसे आएगी? ओम पुरी के अभिनय ने अर्धसत्य के हर दृश्य में जान भरी. स्मिता पाटिल जैसी उम्दा कलाकार के साथ ओम पुरी के फन का कमाल इस फिल्म में है. इस फिल्म में व्यवस्था से दुखी और आक्रोश से भरे सब इंस्पेक्टर अनंत के द्वंद ओम पुरी के चेहरे पर पढ़े जा सकते हैं.    

वास्तव में ओम पुरी सच्चे अभिनेता थे. वह कभी किसी भी तरह के चरित्र के साथ अन्याय करते हुए प्रतीत नहीं हुए. संवाद अदायगी में तो उन्हें महारथ था ही, एक्टिंग करते हुए उनका समूचा शरीर बोलता था. 'मिर्च मसाला', 'जाने भी दो यारो', 'चाची 420', 'हेराफेरी', 'मालामाल विकली' जैसी न जानें कितनी फिल्में हैं जिनमें वे अलग-अलग तरह के किरदारों में दिखाई देते हैं. वे कॉमेडी में कमाल करते हैं.                

अस्सी और नब्बे के दशक में ओम पुरी के साथ अमरीश पुरी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने फिल्म उद्योग में समानांतर सिनेमा में नए-नए रंग भरे. इन फिल्मों ने सिनेमा को नए मायने दिए. बीते माह ओम पुरी ने एक साक्षात्कार में सच ही कहा था कि  "मेरे दुनिया छोड़ने के बाद मेरा योगदान दिखेगा और युवा पीढ़ी में, विशेष रूप से फिल्मी छात्र मेरी फिल्में जरूर देखेंगे.'' रंगमंच हो या फिल्म ओम पुरी का अभिनय नए कलाकारों को रास्ता दिखाने वाला है. ओम पुरी का अभिनय सिनेमा जगत में मील का पत्थर बना रहेगा. उन्हें भुलाया नहीं जा सकेगा.
 

सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं.

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