क्या आप जानते हैं कि हमारे किशोर न्याय अधिनियम, 2015 (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट या जेजे एक्ट) के तहत किसी भी बच्चे के माता-पिता को बाल कल्याण समिति (CWC) नामक पैनल 'अयोग्य' घोषित कर सकता है और बच्चे को अनिवार्य रूप से सरकारी संरक्षण में ले जा सकता है...? क्या आप जानते हैं कि यह व्यवस्था नवजात शिशुओं और छोटे-से-छोटे बच्चों पर भी लागू की गई है? सरकारी संरक्षण में लिए गए ऐसे बच्चों को ज़बरदस्ती 18 साल की उम्र तक फॉस्टर केयर या सरकारी संस्थानों में रखा जा सकता है. CWC ऐसे बच्चों को अपने मां-बाप से मुलाकात तक करने से रोक सकती है.
यह CWC है क्या, भला? दरअसल, यह जनता के बीच से चुने गए पांच सदस्यों का एक पैनल होता है, जिसे अदालत की शक्तियां दी गई हैं, मगर यह अदालती पैमानों का पालन नहीं करता. यह फैसले सुना सकता है, मगर इसमें कोई न्यायाधीश नहीं होता. सेवानिवृत्त न्यायाधीश या वकील इसके सदस्य हो सकते हैं, मगर उनका चयन अनिवार्य नहीं है. एकमात्र शर्त यह है कि उसके सदस्य बच्चों से संबंधित किसी क्षेत्र से हों - मसलन अध्यापक, बाल चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक या 'सोशियोलॉजिस्ट' जैसे पेशेवर, जिनके पास तफ्तीशी, फोरेंसिक या कानूनी काबिलियत नहीं है. इस व्यवस्था के तहत कोई भी जिला स्तरीय सरकारी अधिकारी या कोई भी NGO बच्चों को उसके मां-बाप से अलग करा सकता है, और इसके लिए उन्हें सिर्फ CWC की सहमति की ज़रूरत होगी.
अब आप देख सकते हैं कि जेजे एक्ट निर्दोष परिवारों और उनके बच्चों को किस तरह जोखिम में डाल देता है. बच्चों को स्थायी रूप से उनके माता-पिता से अलग करने की शक्ति मृत्युदंड के बाद सरकार को दी गई शायद सबसे भयानक शक्ति है. इस तरह की कठोर शक्तियों को सार्वजनिक जवाबदेही के सबसे सख्त मानकों के अधीन किया जाना चाहिए था, और इन्हे सार्वजनिक प्राधिकरण की कवायद से संबंधित कानूनों में प्रशिक्षित पेशेवरों द्वारा प्रयोग करवाना चाहिए था, जो पूरी तरह जानते हों कि किस तरह इन शक्तियों का दुरुपयोग किया जा सकता है.
इस दृष्टि से हमारी फॉस्टर केयर व्यवस्था बहुत सारे पश्चिमी देशों के फॉस्टर केयर कानूनों से भी ज्यादा आगे निकल गई है. ज्यादातर पश्चिमी देशों में बगैर न्यायाधीश के आदेश के सरकारी संस्थाएं बच्चे को मां-बाप से लेकर अपने संरक्षण में नहीं ले सकती हैं.
केंद्रीय मंत्रालय सभी राज्यों से मॉडल गाइडलाइन्स फॉर फॉस्टर केयर, 2016 ('फॉस्टर केयर गाईडलाइन्स') अपनाने की वकालत कर रहा है. इन गाइडलाइन्स की भाषा को पढ़ने से साफ है कि इसका दायरा सिर्फ लावारिसों और छोड़े हुए बच्चों तक सीमित नहीं है, बल्कि घर-परिवारों में रह रहे बच्चे भी इस कानून के मुख्य लक्ष्यों में हैं. फॉस्टर केयर गाइडलाइन 2.9 (अ) में कहा गया है कि फॉस्टर प्लेसमेंट के लिए जैविक माता-पिता की सहमति अनिवार्य नहीं है और इसका दारोमदार केवल 'ज़रूरत' और 'मौके' के हिसाब से तय किया जाएगा. गाइडलाइन्स में फॉस्टर पेरेन्ट्स की 'चुनौतियों' का ज़िक्र करते हुए कहा गया है कि 'अपने परिवार से अलग होना किसी भी बच्चे के लिए सबसे उथल-पुथल भरा अनुभव होता है' (परिशिष्ट जी पहला बिंदु). इसी के बिंदु 2.2.4 में बताया गया है कि बच्चे को उसके 'पैदायशी परिवार से अलग होने' के बारे में 'काउंसलिंग' दी जानी चाहिए. इससे साफ ज़ाहिर है कि यह व्यवस्था परिवार में पल रहे बच्चों को अपने जीते-जागते मां-बाप से छीनने की शक्तियां सरकार को दे रही है.
वैसे यह दिखाने के लिए नियमावली में पूरी सावधानी बरती गई है कि परिवार के साथ बच्चे के पुनर्मिलन को प्राथमिकता दी जाएगी; बच्चे को उसके पैदायशी परिवार के पास लौटाने का हरसंभव प्रयास किया जाएगा; परिवारों की 'सक्षमता' वगैरह के लिए पूरा प्रयास किया जाएगा. मगर ऐसा शब्दजाल तो पश्चिमी बाल सुरक्षा व्यवस्थाओं में भी खूब दिखाई देता है. ऐसी लफ़्फ़ाज़ी के बावजूद पश्चिमी देशों में यही व्यवस्था लागू करके बिलकुल सामान्य परिवारों के बच्चों को निहायत बेतुके आधारों पर उनके माता-पिता से छीन लिया जाता है.
ये समस्याऐं और अधिक चिंताजनक होती हैं, जब आप इस बात का ध्यान रखते हैं कि हमारे फॉस्टर केयर कानूनों के तहत बच्चों को जबरन उनके मां-बाप से अलग करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि बच्चे गंभीर उत्पीड़न या उपेक्षा के शिकार हों. इसके लिए माता-पिता की 'उपयुक्तता' और 'जुबानी उत्पीड़न' (वर्बल अब्यूज़) मसलन डांट-डपट, एवं 'भावनात्मक उत्पीड़न' (इमोशनल अब्यूज़) जैसी वजहों का भी सहारा लिया जा सकता है. यह अस्पष्ट और व्यापक रूप से मसौदा कानून निर्दोष परिवारों के दुरुपयोग और उत्पीड़न के लिए बहुत अधिक गुंजाइश छोड़ते हैं.
सुरन्या अय्यर एक वकील और मां हैं, जिन्होंने www.saveyourchildren.in वेबसाइट की स्थापना की है, जिसमें सरकार और NGO की बच्चों से संबंधित नीतियों का विश्लेषण किया गया है...
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