देश में आए दिन बड़े-बड़े ट्रेन हादसे वाकई चिंता की बात है. खतौली में भयावह ट्रेन हादसे से असुरक्षा का डर बैठ गया था. लेकिन हद ये हो गई कि तीन दिन के भीतर औरैया में एक और ट्रेन पटरी से उतर गई. खतौली हादसे का ठीकरा फोड़ने के लिए सिरों की तलाश हो ही रही थी कि एक और हादसा होने से सरकार की छवि पर और बड़ा संकट आ गया. इसी बीच रेलवे बोर्ड के चेयरमैन ने इस्तीफा दे दिया. इससे यह भ्रम हुआ है कि किसी ने अपनी जिम्मेदारी मानी है लेकिन मीडिया में चर्चा यह है कि रेल मंत्री ही उनसे खुश नहीं चल रहे थे. सो ट्रेन हादसों की नैतिक जिम्मेदारी का कोई संबंध उनके इस्तीफे से बन नहीं रहा है. बल्कि उनके असंतोष की चर्चाओं ने देश की रेल व्यवस्था को लेकर सवालों का ढेर खड़ा कर दिया है.
आपदा प्रबंधन की हालत का भी पता चला
खासतौर पर ऐसे हादसों के अंदेशे के मद्देनज़र आपदा प्रबंधन के काम को देखकर भी चिंता होती है. खतौली हादसे के पांच घंटे बाद तक मुसाफिरों की जान बचाने का काम चल रहा था. वो तो मीडिया आजकल मौके पर चालू राहत के काम को मुस्तैदी से बताता रहता है वरना हालत यह है कि राहत के काम में किसी कमी के आरोप से बचने के लिए संबधित विभाग एक-दूसरे को चिट्ठी लिखने में ही लगे रहते हैं. खतौली हादसे में राहत के काम में अंधेरे की समस्या का जिक्र बार-बार कराया गया. क्या आजकल कहीं भी रोशनी का प्रबंध हाल के हाल कर लेना बड़ी बात है? लेकिन शाम के वक्त हादसा होने के कारण राहत के काम में अड़चन का तर्क दिया गया. खैर हादसा इतना भयावह था कि प्रशासन ने अपनी तरफ से राहत की कोई कसर नहीं छोड़ी होगी. मौके पर बड़ी-बड़ी क्रेन और एनडीआरएफ कर्मी लाशों और घायलों को बाहर निकालने के लिए जूझ रहे थे.
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दुख जताने का सिलसिला
सरकार और विपक्ष के हर बड़े-छोटे नेताओं ने दुख जताने में इस बार जरा भी देर नहीं लगाई. लेकिन हमेशा की तरह हादसे की तीव्रता को लेकर कोई भी विश्वसनीय सूचना या ख़बर नहीं दे पाया. छह घंटे बाद तक यह पता नहीं चल पाया कि कितने मुसाफिर मरे हैं और कितने घायल हुए हैं. हादसे के शिकार लोग तो सदमे में होते हैं सो उनसे मौके पर मीडिया कर्मियों की बात कुछ अजीब सी लगती है. चश्मदीद भी आमतौर पर राहत के काम में हाथ बंटाने में लगे होते हैं. सो उनसे भी हादसे के बारे में बातचीत बेमौके का काम लगता है. फिर भी ऐसे हादसों के बारे में देश-विदेश के लोग जानना चाहते हैं ऐसे में मीडिया के इस काम की आलोचना करना भी ज्यादा ठीक नहीं.
कारणों की बात इस बार कुछ जल्द शुरू हो गई
जितना बड़ा, भयानक और दर्दनाक हादसा था और जिस तरह हजारों मुसाफिर अपनी जान बचाने के लिए चीख-पुकार कर रहे थे, उस बीच राहत के काम की बातें पहले होना थीं. लेकिन हादसे की जिम्मेदारी एक-दूसरे पर थोपने या किसी साज़िश की बातें पहले होने लगीं. वैसे आगे की जांच-पड़ताल के लिए मौके से सबूत वगैरह जमा करने का काम बिना वक़्त गंवाए ही शुरू होता है. लेकिन ऐसे मामलों में जो टीम काम करती है उसे मौके पर ही अपनी अटकल लगाकर कर हादसे का कारण बताने की छूट नहीं होती.
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सरकार की तरफ से क्या हो सकता था
सरकार के पास दु:ख जताने के अलावा भी कई विकल्प होते हैं. यह हादसा असुरक्षा का भय पैदा करने वाला था. सो सरकार को अपनी प्रतिक्रिया में सुरक्षा बढ़ाने के आदेश निकालना शुरू कर देना था. ऐसे हादसों में आमतौर पर ट्रेन की रफ्तार भी एक कारण माना जाता है. सो कम से कम कुछ घंटों के लिए सभी ट्रेनों की रफतार पांच-दस किमी घटाने का फैसले पर कोई भी ऐतराज़ न करता. और वैसे भी आज औरैया में खतौली जैसे हादसे में अभी तक मरने वालों की सूचना नहीं मिलने के पीछे यही कहा जा रहा है कि वह ट्रेन खतौली जैसी रफ्तार में नहीं थी. यानी खतौली के बाद रेलवे के कर्मचारियों में अघोषित रफ्तार कटौती होने ही लगी है. बहरहाल देश की खस्ताहाल पटरियों को बदलने और मरम्मत के फैसले फौरन ही लेने पड़ेंगे. और अगर खतौली और औरैया हादसे के तात्कालिक कारणों का अनुमान करें तो वह कारण पटरियों पर गश्ती निगरानी की चूक ही लगते हैं. देश में भयावह बेरोज़गारी के दौर में रेलवे के पास मानव संसाधनों की कमी एक बड़ा विरोधाभास दिखा रहा है.
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कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं ट्रेन हादसे
इस समय का आकलन यह है कि पिछले तीन साल से हर साल 100 से ज्यादा ट्रेन हादसे होने लगे हैं. यह बताता है कि सुरक्षा का इंतजाम नहीं हो पा रहा. लेकिन सुरक्षा की कमी की बात कह देने भर से क्या होगा. यह भी देखना पड़ेगा कि कमी है कहां? कमी को स्पष्टता के साथ पहचाना जाना चाहिए. हमारा सिगनल सिस्टम नहीं बन पाया या पटरी खराब हैं या कुछ और? वैसे एक जानकारी यह है कि पांच साल पहले अंदाजा़ लगाया गया था कि भारतीय रेल को सुरक्षा के लिए कम सेकम एक लाख करोड़ रुपये चाहिए. रेलवे के अपनी भारीभरकम कारोबार को देखते हुए एक लाख करोड़ रुपये कोई बड़ी रकम नहीं है. 70 साल में रेलवे का जिस तरह का विस्तार हुआ है उसकी हालत यह है कि हर साल उसके डिब्बों-पटरियां की घिसाई ही हजारों करोड़ की बैठती है. इसके लिए एक नियम भी बनाकर रखा गया था कि हर साल रेल के बजट में घिसाई के मद में भी पैसा डाला जाता रहे. लेकिन अपने सुशासन से रेलवे को मुनाफे में दिखाते रहने के चक्कर में इसी डेप्रिसिएशन रिज़र्व फंड में पर्याप्त पैसा नहीं डालने की बेईमानी होती चली आ रही है.
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इतने बड़े देश में ऐसा होते रहने का तर्क
कहते कुछ भी रहें कि अब यह सब नहीं चलेगा लेकिन चलता वैसा ही रहता है. ज्यादातर ट्रेनें अपने प्रस्थान बिंदु से गंतव्य तक रोज पहुंचती रहती हैं इतने भर से खुश होना ठीक नहीं है. इंजन, पटरियों और उसमें इस्तेमाल होने वाली तरह-तरह की मशीनों की जो हालत कल थी वह आज वैसी ही नहीं रह सकती. इसे हर रोज़ देखना पड़ता है कि वह कितनी घिसी. उसे लगातार रखरखाव और देखभाल चाहिए. दिन पर दिन बढ़ती रेल मुसाफिरों की संख्या और उसके मुताबिक मानव संसाधन को न बढ़ा पाने की चर्चा कब तक करते रहेंगे. पैसे का रोना भी नहीं रो सकते. ट्रेन के किराए बढ़ते-बढ़ते हवाई जहाज के किराए के पास पहुंच गए हैं. ऐसे में संसाधनों की कमी के बारे में भी सरकार अब नहीं कह सकती. लेकिन सब चल ही रहा है इस प्रवृत्ति के कारण ऐसा भयानक हादसा हो जाने को दुर्योग मानना समझदारी नहीं है. सुप्रबंधन से ये हादसे कम तो किए ही जा सकते हैं. लेकिन यहां तो खतौली के तीन दिन बाद ही औरैया हो गया.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Aug 23, 2017
ट्रेन हादसे : खतौली के घाव पर औरैया की चोट
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 23, 2017 16:29 pm IST
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Published On अगस्त 23, 2017 16:27 pm IST
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Last Updated On अगस्त 23, 2017 16:29 pm IST
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