विदेशी निवेशकों के लिए कितना आकर्षक?
अगर यह मानकर चलें कि विदेशी निवेशक किसी देश की रैंकिंग देखकर निवेश करते हैं तो 190 देशों के बीच भारत का रैंक टॉप टेन या टॉप फिफ्टी नहीं बल्कि सौवां है. सो इसी आधार पर किसी कारोबारी को किसी देश में निवेश का फैसला लेना हो तो वे रैंकिग में हमसे बेहतर दूसरे 99 देशों को पहले क्यों नहीं सोचेंगे. हां, अगर यह माना जाए कि विदेशी निवेश के लिए बहुत सारी बातों के अलावा ये सुगमता वाला पहलू भी एक है फिर जरूर विश्व बैंक की यह रैंकिग हमारे काम आ सकती है. लेकिन तब वहां यह देखना पड़ेगा कि वे दूसरे और क्या क्या आकर्षण हैं जिसके कारण विदेश के धनवान लोग दूसरे देश में कारोबार करने जाना चाहते हैं. इसीलिए उन दूसरे आकर्षणों की भी कुछ चर्चा होनी चाहिए हैं.
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कारोबारियों की पूरी दुनिया इस समय मंदी से परेशान है. औद्योगीकरण के दो सौ साल के दौर में हर देश ने उत्पादन के शिखर छू लिए हैं. अब वे इस तलाश में है कि और क्या पैदा करें. वह पता चल भी जाए तो इस समय यह समस्या है कि वे अपना माल बेचें किसे. इसीलिए समस्या उत्पादन से ज्यादा उस बाज़ार को ढूंढने की है जहां उत्पाद बिक सके. इसीलिए किसी भी कारोबारी के लिए आज सबसे बड़ी चीज़ बाज़ार है. बाज़ार का सीधा संबंध कारोबार की सुगमता से भले ही न दिखता हो लेकिन प्रत्यक्ष अनुभव है कि जहां बाजार यानी खरीदार हों वहां कारोबार के मुश्किल से मुश्किल हालात को आसान बनाने में कारोबारी पटु हो चुके हैं. बाज़ार कैसे पनपता है इसके लिए उद्योग व्यापार जगत के जानकार बताते ही रहते हैं कि जिस देश के लोगों की जेब में पैसा हो वहीं बाजार बनता है और वहीं कारोबार पनपता है. यह एक तथ्य है कि 134 करोड़ के अपने देश में जो विदेशी निवेशक इसे बड़ा बाज़ार समझ रहे थे उनके पास यह संदेश पहुंच रहा है कि भारतीय उपभोक्ताओं की जेब में पैसे कम होते जा रहे हैं.
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एक संकेतक किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को समझा जाता है। जीडीपी ही बताता है कि उद्योग व्यापार कितना बढ़ रहा है। सिर्फ अपने तक ही सीमित रह कर सोचें तो इस समय हम अपनी जीडीपी को लेकर चिंता में है। जीडीपी से ही प्रति व्यक्ति आमदनी तय होती है। लेकिन इस आकलन में यह पता नहीं चलता कि अधिकतम लोगों की आमदनी की स्थिति क्या है। भारत में निवेश करने के लिए जो सोच रहे होंगे उनके लिए किसी देश की माली हालत का यही संकेतक मायने रखता होगा। इसलिए किसी देश में कारोबार करने के लिए वहां नियम कानून कितने नरम हैं या कड़े हैं ये बाद की चीज़ लगती है.
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किसी कारोबार के लिए मनी, मैन, मशीन मटेरियल और मेथड की जरूरत पड़ती है. बेरोज़गारी के कारण हमारे पास मैन यानी मानव संसाधन इफरात में हैं. लेकिन मनी यानी पैसा नहीं है. अपनी मशीन भी नहीं है लेकिन मशीन भी मनीवाला खरीद सकता है. कच्चे माल के रूप में मटेरियल हमारे पास है लेकिन मैथड यानी अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी नहीं है. ये प्रौद्योगिकी भी खरीदी जा सकती है यानी जब मनी न हो तो मुश्किलें ही मुश्किलें हैं, इसीलिए हम विदेशी निवेश या मेक इन इंडिया की बात करने लगे थे. ये बात करते-करते तीन साल गुज़रने को आ गए हैं. लेकिन मेक इन इंडिया का नारा सिरे नहीं चढ़ा. अब हमें सोचना है कि नया क्या करें कि विदेशी निवेशक कारोबार करने अपने यहां आ जाएं. लेकिन इतना तय है कि कारोबार की सुगमता की रैंकिंग सुधरने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ना है. लगभग यही बात विश्व बैंक के ग्लोबल इंडिकेटर्स ग्रुप की कार्यवाहक निदेशक हीता हमालो ने कही है.
क्या कहा हीता हमालो ने
उन्होंने कहा है कि भारत ने पिछले साल कई काम करके रैंकिंग सुधार ली है लेकिन अभी भी बहुत सुधार की गुंजाइश है. उन्होंने साफ कहा है कि मैं यह नहीं कहूंगी कि भारत करोबार के लिए बेहतर जगह है. हां भारत बेहतर जगह बनने के तरफ बढ़ रहा है. एक तरह से विश्व बैंक समूह ने यह समझाइश दी है कि कारोबार की सुगमता के लिए विश्वबैंक के मानदंडों पर भारत में और सुधार किए जाएं.
जीएसटी का दिलचस्प जिक्र
रिपोर्ट में जहां भारत का उल्लेख है वहां जीएसटी का जिक्र भी है. साफ-साफ बताया गया है कि इस रिपोर्ट में भारत में जीएसटी लागू होने का असर नही देखा गया है. इसका असर अगली रिपोर्ट में लेखा जाएगा यानी अगली रिपोर्ट में विश्व बैंक समूह बताएगा कि भारत में जीएसटी के बाद कारोबार करना आसान हुआ या मुश्किल. यहां दर्ज करने की खास बात यह है कि विश्व बैंक ने देशों की रैंकिंग के जो दस आधार बना रखे हैं उनमें नियम-कानून व टैक्स प्रणाली पर ही ज्यादा ज़ोर होता है. विश्व बैंक चाहता है कि संबधित देश अपने यहां टैक्स व्यवस्था में उसकी मंशा के मुताबिक सुधार करें और कारोबार करने को आसान बनाएं और रैंकिंग की दौड़ में आगे निकलने का मौका पाएं.
रिपोर्ट के शीर्षक में रोज़गार का जि़क्र
रिपोर्ट का नाम है डूइंग बिजनेस, रिफार्मिंग टु क्रिएट जॉब्स यानी यह रिपोर्ट सभी देशों में रोज़गार बढ़ने से अपना सरोकार बता रही है. लेकिन किसी देश की रैंकिंग को आंकने में रोज़गार वाले पहलू को उतनी तवज्जो ही नहीं दिखती. बल्कि नया अनुभव यह है कि कारोबार बंद करने की प्रक्रिया को आसान बनाने की तरफदारी है. अपने यहां दिवालिया घोषित होने की प्रक्रिया आसान बनाने के कारण हमारी रैंकिंग ने आश्चर्यजनक सुधार पाया है.
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इन तथ्यों के आधार पर हमें यह सोचने पर लगना चाहिए कि विदेशी निवेश को लाख दु:खों की एक दवा मानना कहां तक ठीक है. दूसरा यह कि नियम-कानूनों के ज़रिए कारोबार को आसान बनाने से वह हासिल हो भी सकता है या नहीं जिसे हम अपना मकसद मान रहे हैं. मसलन बेरोज़गारी से निपटना. लगे हाथ यह भी सोच लेना चाहिए कि विदेशी निवेशकों के लिए दूसरे देश में जाकर उनके नागरिकों को रोज़गार देना कोई मकसद हो भी सकता है या नहीं.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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