गौर करें, तो 2016 में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ही छाए रहे...

गौर करें, तो 2016 में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ही छाए रहे...

साल 2016 गुज़रने को है. साल के आखिरी हफ्ते में हर क्षेत्र में साल का लेखाजोखा बनाने का चलन रहा है. राजनीति, मीडिया, उद्योग-व्यापार, कानून एवं व्यवस्था, समाज व संस्कृति और विकास के हर क्षेत्र का हिसाब लगता था, लेकिन इस बार इस काम में दिलचस्पी कम दिख रही है. यह सप्रयास है या अनायास, इसका पता चलना मुश्किल है.

गुज़रते साल के महीनों, हफ्तों या तारीखों के लिहाज़ से देश की राजनीति में क्या हुआ? किसने क्या खोया, पाया? इसका व्यवस्थित लेखा-जोखा पेश करना वाकई मेहनत का काम है. वैसे भी राजनीति ऐसा क्षेत्र है, जिसकी सालाना समीक्षा कम ही होती है. दरअसल किसी भी सरकार को हम उसके कार्यकाल के वर्षों के हिसाब से देखते हैं. पहले हर साल के बाद सरकार का रिपोर्टकार्ड पेश करने का चलन था. लेकिन दो-तीन साल से वह काम होना भी बंद-सा हो गया. राजनीतिक विपक्ष की हलचल दशकों से ऐसी बिखरी-बिखरी रहती है कि उसकी सालाना समीक्षा करने की बात तो दिमाग में आती ही नहीं. आजकल बस चुनाव के समय ही हलचल दिखती है.

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समीक्षा का आधार...
इस साल राजनीतिक दलों की सालाना समीक्षा लगभग न के बराबर हुई. सरकार या सत्तारूढ़ दल के स्थान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही सामने रहे, और उनका सबसे बड़ा एजेंडा 'कांग्रेस-मुक्त भारत' रहा. वर्तमान और भविष्य की बजाय बार-बार उन्हें पिछले 70 साल का ज़िक्र करना पड़ा. लिहाज़ा प्रमुख विपक्षी दल, यानी कांग्रेस का चर्चा में रहना स्वाभाविक था. कांग्रेस को जवाब देने के मौके मिलते रहे. लेकिन वहां भी कांग्रेस की बजाय राहुल गांधी बार-बार सामने दिखे. प्रदेशों की राजनीतिक हलचल को देखें तो महत्व और रोचकता के लिहाज से एकदम किसी नेता का नाम सामने नहीं आता. ठहरकर याद करें, तो थोड़ी-बहुत नज़र अरविंद केजरीवाल पर पड़ती है. सो आइए, इन तीनों नेताओं को सन 2016 के लिहाज़ से सरसरी तौर पर देखें.
 

narendra modi
नरेंद्र मोदी

हद से ज़्यादा उम्मीदें दिखाकर ढाई साल पहले सत्ता में आए नरेंद्र मोदी इस साल की शुरुआत से ही दिखाने लायक कुछ करने के लिए बुरी तरह जूझ रहे थे. 1 जनवरी, 2016 को उनकी सरकार के डेढ़ साल गुजर चुके थे. उन्हें रह-रहकर उनके किए भारी-भरकम वादे याद दिलाए जा रहे थे.

इस बीच, देश की माली हालत, सीमा पर असुरक्षा, बेरोज़गारी, किसानों की दुर्गति के अलावा उद्योग-व्यापार में मंदी अलग से आकर खड़ी हो गई थी. ऐसी विकट परिस्थितियों में उन्होंने फीलगुड का उपाय फिर भी नहीं छोड़ा.

इस साल शुरू से ही उन्होंने पहले से बनाकर रखे अपने खलनायकों, यानी पाकिस्तान और पुरानी सरकार की आलोचनाओं को ज़िन्दा बनाए रखा. फीलगुड के अलावा देश के स्वाभिमान का नारा लगाते हुए विदेशों में जाकर बदलते भारत का प्रचार करने में इस साल भी उनका खासा वक्त गुजरा. इस साल के बीच तक उन्होंने 'मेक इन इंडिया' की बात भी चलाए रखी, लेकिन अंदेशे के मुताबिक 'मेक इन इंडिया' सिरे चढ़ नहीं पाया. इसी बीच बैंकों की तबीयत बहुत खराब होने की ख़बर आ गई.

सन 2016 की फरवरी में बड़ी मुश्किल से बजट बनाने का काम निपटा, लेकिन बजट में किसी एक चीज पर फोकस था नहीं, सो, दिखाने लायक कोई काम होने का सवाल ही नहीं उठता था. फुटकर-फुटकर कभी स्वच्छता अभियान, कभी स्टार्टअप, और कभी गांव में गैस सिलेंडर या जन-धन जैसी योजनाएं बनाने का प्रचार हुआ, लेकिन इस साल बीच में ही वे भी खो-सी गईं.

दरअसल बिहार में मिली बुरी तरह नाकामी नरेंद्र मोदी का पीछा इस साल की शुरुआत से ही कर रही थी, क्योंकि बिहार चुनाव में उन्होंने बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था, और अकेले ही लग जाने के कारण वक्त भी बहुत खर्च हो गया. वहां पार्टी की बुरी तरह हार के बाद इस साल की शुरुआत से ही कहा जाने लगा था कि मोदी का जादू उतार पर है.

इस साल दालों की महंगाई का मसला छोटा करके ज़रूर बताया गया, लेकिन सरकार को परेशान उसने इस साल भी किया. लेकिन विदेशों से दाल खरीदने को प्रोत्साहन जैसे बहुत ही सरल और बहुत ही विवादास्पद उपाय उन्हें करने पड़े. यानी उनका खासा वक्त कुछ करते हुए दिखाने में गुज़रा. लेकिन इसमें भी मुश्किल यह आई कि सरकार के उपायों के बावजूद दाल के दामों पर ज़्यादा असर नहीं पड़ा. पिछले साल कम बारिश का जो भयावह असर पड़ा था, वह इस साल दिखा ही.

उसके बाद इस साल मई के महीने से ही देश में अच्छी बारिश के अनुमानों को प्रचारित किया जाने लगा. सितंबर के महीने में वर्षा के आंकड़ों से पता चला कि बारिश का जो अनुमान बताया जा रहा था, वह गलत निकल गया है. बारिश सामान्य, वह भी निचली सीमा पर सामान्य रही. अनुमान से 12 फीसदी कम बारिश होने के बावजूद उसे अच्छी बारिश की श्रेणी में डालकर फीलगुड साध लिया गया. हालांकि बुंदेलखंड में बढ़ती बदहाली ने देश-विदेश में मोदी सरकार की छवि को बहुत चोट पहुंचाई, लेकिन यह संकट उत्तर प्रदेश के ही जिम्मे छोड़कर मोदी सरकार ने खुद को बचाए रखा.

इसी साल बहुत ही बारीक गणित लगाकर पीछे से रेल किराये बढ़ाने की आलोचना मीडिया में होने से मोदी सरकार भले ही बच गई हो, लेकिन उनका यह काम भी जनता को रास नहीं आया.

कुल मिलाकर जनता को सुख-समृद्धि की स्थिति में पहुंचाने के वादे नरेंद्र मोदी का पीछा इस साल भी नहीं छोड़ रहे थे. आखिरकार, साल की आखिरी तिमाही में उन्होंने पाकिस्तान को सबक सिखाने का नारा लगाया. सर्जिकल स्टाइक करवा दिया गया. यह बहुत जटिल मोर्चा था. हालात जल्द ही जस के तस दिखाई देने लगे. यानी इस मोर्चे पर भी दिखाने लायक ज़्यादा कुछ बन नहीं पाया. लगता है, प्रधानमंत्री के पास तीसरा खलनायक काला धन ही बचा था.

हालांकि यह तो और भी ज़्यादा मुश्किल काम था. लेकिन फिर भी बड़ी उम्मीद जताते हुए अचानक नोटबंदी कर दी गई, लेकिन दो हफ्ते में ही देश में चौतरफा हाहाकार की हालत बनने लगी. बीच में ही उन्हें आतंकवाद और भ्रष्टाचार की बातें फिर करनी पड़ीं. यहां भी करने के लिए कोई सुविचारित योजना पहले से बनी रखी नहीं थी. जब बताने को ज़्यादा बनता नहीं दिखा तो नोटबंदी के अपने फैसले को उन्होंने कैशलैस के मकसद से जोड़ दिया. साल के अखिरी हफ्ते में हालात ऐसे बन गए कि कैशलैस के कारण कैश हद से ज़्यादा लैस हो गया. उद्योग-व्यापार, खेती, किसानी सब कुछ एक नए प्रकार की मंदी की चपेट में आते गए. सन 2016 का ही साल है कि जीडीपी का अनुमान पहले बढ़ाया गया, फिर घटाना पड़ा.

नोटबंदी के 50 दिन की मियाद खत्म होने के बाद हालात सामान्य हो जाने के ऐलान के कारण विपक्ष को सवाल पूछने ही थे. सवाल पूछे गए और सरकार की तरफ से बताया जाने लगा कि देश में इस बार टैक्स की उगाही की रकम बढ़ गई है. सारे आंकड़े फीसदी में हैं. अभी यह नहीं पता कि नोटबंदी पर हुए खर्च और दूसरे नुकसान की तुलना में यह रकम आखिर है कितनी. बस अलग बात यह हुई कि राजस्व बढ़ने के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद ऐलान नहीं किया, बल्कि वित्तमंत्री के ज़रिये ये बातें रखी गईं. यानी वह भी प्रधानमंत्री मोदी के फैसले को सही बताने की कवायद के तौर पर ही हुआ.

वर्षांत के अंतिम क्षणों में नवीनतम स्थिति यह है कि इस साल की सारी विपत्तियों के लिए नरेंद्र मोदी को इतिहास में जाकर वापस कांग्रेस पर निशाना लगाना पड़ रहा है. कहना पड़ रहा है कि यह सब पुरानी कांग्रेस सरकारों के कारण हुआ.

यदि नए साल के दरवाज़े पर इस कालखंड में अनुमान लगाएं तो नए साल की पहली सुबह नरेंद्र मोदी कांग्रेस, खासतौर पर राहुल गांधी से नए सिरे से निपटने की कवायद में लगे दिखाई देंगे.
 
rahul gandhi
राहुल गांधी

इस साल की शुरुआत को याद करें तो कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा था. सब कुछ पाने के लिए था, इसीलिए कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए यह साल सबसे ज़्यादा उपलब्धियों का रहना ही था. दरअसल पिछले ढाई साल का राजनीतिक घटनाक्रम कुछ ऐसा रहा कि कांग्रेस उपाध्यक्ष की हैसियत से उन्हें पूरी छूट थी कि वह जिस तरह के प्रयोग चाहें, कर लें.

सन 2014 के चुनाव में यूपीए की शिकस्त के बाद राहुल गांधी की पार्टी के पास करने के लिए बस मोदी सरकार के कामकाज पर नज़र रखने का ही काम बचा था. या फिर बीच-बीच में जहां विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां अपनी उपस्थिति बनाए और बढ़ाए रखने का काम.

उनके खाते में पिछले साल के आखिरी दिनों में बिहार चुनाव की एक बड़ी उपलब्धि दर्ज हो चुकी थी. यही उपलब्धि इस साल की शुरुआत से उनके लिए सुनहरा मौका बनकर आई थी. बिहार में कांग्रेस को अपने कोटे से 40 सीटों पर लड़ने का मौका मिला था, और उनमें 27 सीटों पर जीत कांग्रेस के लिए और खुद राहुल गांधी के लिए संजीवनी से कम नहीं थी. वह संजीवनी इस साल काम आई. इसके अलावा बिहार चुनाव के दौरान ही राहुल गांधी ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को देखा-समझा था. उसके बाद इस साल की शुरुआत में ही राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के लिए प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने का फैसला किया. राहुल ने इस साल की अपनी जो सबसे बड़ी और सबसे कारगर मुहिम उत्तर प्रदेश में चलाई, उसमें प्रशांत किशोर के प्रबंधन कौशल को कौन नकार सकता है? इस तरह उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए पीके के चयन का श्रेय राहुल गांधी को ही मिला.

साल के मध्य से लेकर आखिर तक राहुल गांधी आश्चर्यजनक रूप से अपनी दृश्यता बनाए रखने में सफल रहे. उनकी कोशिशों में जो कमी रही होगी, उसे केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए, खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरा कर दिया. मोदी इस साल के शुरू से ही जब-तब 'कांग्रेसमुक्त भारत' की बातें कहते रहे. इससे कांग्रेस, खासतौर पर राहुल गांधी को जनमंच पर दिखते रहने के सुनहरे मौके मिलते रहे. साल के आखिर तक राहुल गांधी इतने विश्वास के साथ बोलने लगे कि हार-थककर मीडिया को भी मजबूरी में उन्हें खासी जगह और खासा समय देना पड़ा.

राहुल गांधी को इस साल मिली उपलब्धियों की लिस्ट में अगर कोई उपलब्धि सबसे ऊपर रखनी हो, तो वह होगी उनमें बढ़ा आत्मविश्वास. उनकी दृश्यता लगातार बनी रही. खासतौर पर उत्तर प्रदेश में महीने भर की जो किसान यात्रा उन्होंने की, उसने दिन-ब-दिन उनका उत्साह बढ़ाया. और जब यात्रा के बाद दिल्ली में उन्होंने तेज़तर्रार भाषण दिया, तो सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं को राहुल गांधी के खिलाफ बयानों का युद्ध छेड़ना पड़ा.

यह साल राहुल गांधी के लिए एक और मामले में खास रहा. इसी साल की शुरुआत से उनकी खिल्ली उड़ाने के उपाय से उन पर सबसे ज़्यादा मनोवैज्ञानिक दबिश डाली गई. लेकिन उनका मज़ाक उड़ाने का यह हथियार इस साल उतना कारगर नहीं दिखा. इस साल के आखिरी पखवाड़े में खुद प्रधानमंत्री को राहुल गांधी के भाषण पर मज़ाकिया अंदाज में भाषण देना पड़ा. प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी के हाथ लहराने की नकल तक उतार दी. गौर करने लायक यह बात है कि इसके जवाब में राहुल गांधी ने कहा कि मज़ाक उड़ाइए, लेकिन मेरे सवालों का जवाब तो दीजिए. यह एक ऐसा प्रकरण था, जिसने उन पर मज़ाक या खिल्ली के ज़रिये डाले जाने वाले दबाव से उन्हें बिल्कुल मुक्त कर दिया.

साल के आखिरी दो दिनों में राहुल गांधी के मामले में सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं की तरफ से कहा गया है कि उनकी बात खुद की बात नहीं, बल्कि किसी पटकथा लेखक की बात है. इसका विश्लेषण मनोवैज्ञानिक उपायों से ही किया जा सकता है. बहरहाल, इससे जनता के पास यह संदेश पहुंचा कि राहुल गांधी के धुर विरोधी दल के नेताओं पर भी उनके भाषणों का असर होने लगा है. इस तरह उन्हें गंभीरता से सुनने वालों की तादाद बढ़ गई. उनकी जनसभाओं में  भीड़ भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई.

नोटबंदी के 50 दिनों में विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी ने आम नागरिकों को हो रही परेशानी पर लगातार खुलकर बोला. पचासवें दिन उन्होंने सीधे-सीधे प्रधानमंत्री से सवाल पूछ लिया कि मियाद पूरी होने के बाद अब तो बताया जाना चाहिए कि नोटबंदी के 50 दिन बाद देश को हासिल क्या हुआ? जिस सीधे-सपाट तरीके से उन्होंने यह सवाल पूछा है, उससे लगता है कि नए साल की शुरुआत भी वह नोटबंदी से हुए नुकसान पर बेधड़क बोलने से करेंगे. अब नए साल में यह देखना दिलचस्प होगा कि उनका अंदाज विपक्ष के एक गंभीर नेता जैसा दिखेगा या इसकी शुरुआत वह नोटबंदी की नाकामी को लेकर सरकार के बड़बोलेपन पर व्यंग्य के लहज़े में करेंगे. एक विकल्प यह भी है कि वह दोनों तरीकों का इस्तेमाल करें.
 
arvind kejriwal
अरविंद केजरीवाल

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी (आप) प्रमुख अरविंद केजरीवाल जिन मुद्दों और वादों के ज़रिये दिल्ली की सत्ता में आए थे, उनकी चर्चा दिन-ब-दिन कम होती गई. पिछले साल की तरह इस साल भी उनकी रणनीति केंद्र सरकार के साथ उलझने की रही. इसी टकराव के ज़रिये उन्होंने दिल्ली में अपने जनाधार को मनोवैज्ञानिक रूप से टिकाए रखा. दिल्ली, जिसे हमेशा से पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं है, उसके मुख्यमंत्री की हैसियत से उनके पास ज़्यादा कुछ करने को था भी नहीं. फिर भी निरंतर हलचल बनाए रखने में पटु और विज्ञापनों के ज़रिये प्रचार में माहिर केजरीवाल ने इस साल भी ज़रा देर के लिए भी जनमंच नहीं छोड़ा. दिल्ली के अलावा दूसरे प्रदेशों में अपनी पार्टी के पैर पसारने के मौके उनके पास खूब थे ही. सो, इस साल सबसे ज़्यादा ध्यान उन्होंने पंजाब पर लगाया.

मुख्यमंत्री होने के कारण और वह भी दिल्ली जैसे प्रदेश का, वह केंद्र की राजनीति में आगे बढ़ने के ज़्यादा मौके निकाल भी नहीं सकते थे, इसीलिए दिल्ली के उपराज्यपाल से लगातार उलझते हुए उन्होंने पूरे साल यह आभास दिया कि वह केंद्र सरकार का मुकाबला कर रहे हैं. बाकी 'ऑड-ईवन' जैसा कार्यक्रम कोई खास छाप छोड़ नहीं सकता था. बल्कि नोटबंदी जैसी अफरातफरी उससे भी मचने लगी थी. वैसे भी अदालती दबाव के कारण वह होना ही था. फिर भी केजरीवाल ने इस कार्रवाई के ज़रिये चर्चा में बने रहने का कोई मौका नहीं छोड़ा.

एक मामले में ज़रूर केजरीवाल के लिए यह साल अच्छा रहा. जो छोटे-बड़े ढेरों वादे उन्होंने दिल्ली का चुनाव लड़ते समय किए थे, उनके बारे में उन्हें ज़्यादा उलाहने नहीं सुनने पड़े. महिलाओं की सुरक्षा और दिल्ली में वाई-फाई जैसे वादे भुला ही दिए गए. हो सकता है, वह इस विपदा से इसलिए बच पाए हों, क्योंकि उन्होंने मीडिया और दिल्ली की जनता को अपने बेधड़क तेवरों से दूसरी बातों में लगाए रखा.

साल के आखिरी महीनों में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधे भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर सनसनी फैलाने की कोशिश की, लेकिन तब तक केंद्र सरकार ने नोटबंदी के ज़रिये मीडिया को इस कदर व्यस्त कर दिया था कि केंद्र सरकार या नरेंद्र मोदी के खिलाफ आरोपों को सुनने की किसी को फुर्सत ही नहीं थी.

इस साल पंजाब में रही केजरीवाल की सक्रियता यह इशारा कर रही है कि उन्हें पंजाब के चुनाव में नरेंद्र मोदी से मोर्चा लेने का छोटा-सा मौका और मिलेगा. पंजाब के अलावा उत्तर प्रदेश और दूसरे कई प्रदेशों में अपनी सक्रियता बढ़ाने में केजरीवाल पूरे साल कुछ न कुछ करते ही रहे. यह वही साल है, जिसमें केजरीवाल पर आरोप लगने शुरू हुए हैं कि वह मुख्यमंत्री दिल्ली के हैं, लेकिन उनका चित्त दिल्ली में नहीं है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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