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This Article is From May 14, 2019

भयावह जलसंकट की आहट

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 14, 2019 18:31 pm IST
    • Published On मई 14, 2019 18:31 pm IST
    • Last Updated On मई 14, 2019 18:31 pm IST

सब कुछ छोड़ देश चुनाव में लगा रहा. भोजन पानी के इंतजाम से भी ध्यान हट गया. इस बीच पता चल रहा है कि देश में पानी को लेकर इमरजेंसी जैसे हालात बनते जा रहे हैं. सरकारी तौर पर अभी सिर्फ महाराष्ट्र और गुजरात के भयावह हालात की जानकारी है. वैसे तो प्रचारात्मक मीडिया से ऐसी खबरें गायब ही हैं लेकिन जनता के सरोकार रखने वाला मीडिया देश के बाकी हिस्सों में भी पानी के लिए हाहाकार मचने का अंदेशा बता रहा है. वो तो गरीब इलाकों की हालत का पता चलना आजकल बंद हो गया है वरना हकीकत यह है कि बुंदेलखंड में पिछले एक पखवाड़े से हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. भले ही चार पांच साल से देश में ये हालात नए न हों, लेकिन अभी इसका आकलन नहीं हुआ है कि तीव्रता के लिहाज से इस बार संकट कितना ज्यादा गहरा रहा है.

भयावह हालात का पता कैसे चला
देश की मैनेजरी करने वाली हर सरकार का शौक होता है, हालात को सामान्य बताते चलना. चाहे देश के उद्योग व्यापार हों और चाहे कृषि हो, मौजूदा सरकार हर क्षेत्र में फीलगुड कराती आ रही है. इसी  फीलगुड, यानी सुखद अहसास के लिए जीडीपी के आंकड़े हर दिन दोहराए जाते रहे. ये अलग बात है कि हाल ही में पता चला कि आर्थिक विकास के आंकड़े भी दर्जीगिरी से बनाए गए हैं. वैसे इन सरकारी आंकड़ों का सच या झूठ फौरन पकड़ना आसान नहीं होता.  लेकिन भोजन पानी के मामले में  मुगालता बड़ा हादसा पैदा कर सकता है. और यही इस साल होता दिख रहा है. जब से पता चला है कि महाराष्ट्र और गुजरात के बांधों में पानी कम बचा है तब से कुछ मीडिया रिपोर्ट इस अंदेशे को बता रही हैं. ये अलग बात है कि चुनाव के चक्कर में देश पर आसन्न इस भयावह संकट की उतनी चर्चा हो नहीं पाई या वक्त की नजाकत को देखते हुए इसकी चर्चा होने नहीं दी गई.

क्या अचानक पता चला?
बिल्कुल नहीं. क्योंकि देश का केंद्रीय जल आयोग हर हफ्ते अपने बांधों में जल स्तर की रिपोर्ट जारी करता है. हालांकि देश के पांच हजार से ज्यादा बांधों और जलाशयों में से चुनिंदा सिर्फ 91 बांधों में ही पानी की मात्रा की निगरानी होती है. लेकिन सनसनीखेज तथ्य यह है कि पिछले कई दशकों से इन बांधों में जमा पानी के ये आंकड़े आमतौर पर समान्य ही बताए जाते हैं. इसका रहस्य यह है कि हमारे देश में कुल जल संचयन क्षमता ही इतनी थोड़ी है कि हमेशा ही उनमें बहुत थोड़ा सा पानी रोककर रखने का इंतजाम है. पिछले दस साल से बांधों में संचित होने वाले पानी की मात्रा कमोबेश एक जैसी ही रही है. और इसी आधार पर बांधों में जमा पानी के आंकड़ों को सामान्य बताया जाने लगा है. ऐसा ही इस बार भी हुआ. लेकिन जब देश में जगह-जगह से जल संकट की खबरें आने लगीं तो मीडिया ने सरकारी आंकड़ों को गौर से देखना शुरू किया.

क्या बताया जा रहा है दो हफ्तों से
इस समय सरकारी तौर पर बताया यह जा रहा है कि हमारे बांधों में पिछले साल इन्हीं दिनों में जितना पानी बचा था उतना ही पानी इस साल भी है. इस तरह से हालात सामान्य बता दिए गए. इतना ही नहीं, यह भी बताया गया कि पिछले दस साल में औसतन जितना पानी इन बांधों में रहता है, उतना ही पानी इस साल भी है. इस तरह साबित कर दिया गया कि हालात सामान्य हैं. जबकि इन आंकड़ों से यह बिल्कुल पता नहीं चलता कि पिछले साल या पिछले दस साल से देश में जल संकट की क्या स्थिति रही है. और न यह बताने का प्रबंध है कि पिछले दस साल में हमारी आबादी 12 फीसद से ज्यादा बढ़ गई. इस तरह से 15 करोड़ लोग बढ़ गए. यानी इस बीच देश में पानी की मांग हर हाल में 12 फीसद बढ़ी. यह बात कहीं नहीं बताई जाती. न यह बताया जाता है कि इस बीच सरपट  विकास के लिए उद्योग-धंधों में पानी की खपत कितनी बढ़ी. और यह तो बिल्कुल ही नहीं बताया गया कि पिछले पांच साल में साल दर साल पानी को लेकर हालात किस तरह खराब होते चले गए. गौरतलब है कि प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष दो हजार घनमीटर पानी की जरूरत होती है. पिछले पांच साल में ही देश की आबादी कम से कम आठ करोड़ बढ़कर 136 करोड़ हो चुकी है. इस बढ़ी आबादी के लिए अलग से पानी का इंतजाम करना जरूरी था. खाद्य उत्पादन भी बढ़ा, जिससे पानी की खपत बढ़ी. इसका मतलब हुआ कि पिछले साल जितने ही जल भंडारण को सामान्य बताते चले आना खतरे से खाली नहीं है. संबधित क्षेत्र के विशेषज्ञ जब इस बीच बढ़ी पानी की मांग के आकलन पर लगेंगे तो उन्हें जरूर बताना पड़ेगा कि आंकड़ों के जरिए हालात को सामान्य बताने का यह गुंताड़ा कितने बड़े हादसे का अंदेशा पैदा कर रहा है.

एक नज़र महाराष्ट्र और गुजरात के आंकड़ों पर
जल आयोग के इसी हफ्ते जारी साप्ताहिक आंकड़ों में बताया गया कि निगरानी वाले 91 बांधों में इस हफ्ते तक जल भंडार सिर्फ 38.73 अरब घनमीटर बचा है. बांधों में  बचा यह पानी कमोबेश उतना ही है जो पिछले साल था. और इस साल इस हफ्ते का यह आंकड़ा पिछले दस साल के औसत जितना ही है. लेकिन जब देश को पांच क्षेत्रों में बांटकर हर क्षेत्र के अलग-अलग आंकड़े बताने पड़े तो पता चला कि पश्चिमी क्षेत्र, यानी महाराष्ट्र और गुजरात के बांधों में इस बार पानी बहुत कम बचा है. आकंड़े ये हैं कि पिछले साल इन्हीं दिनों में महाराष्ट्र और गुजरात के बांधों में 21 फीसद पानी बचा था लेकिन इस बार इन दिनों सिर्फ 15 फीसद रह गया है. इस तरह सरकारी आंकड़ों से ही  निष्कर्ष निकला कि महाराष्ट्र और गुजरात पर आफत मंडरा गई है. वैसे देश के दूसरे हिस्से में पानी के इंतजाम के आंकड़े कुछ भी बताए जाते हों लेकिन वास्तविक मीडिया के मुताबिक देश में पानी की कमी की आफत चौतरफा है. हजारों जगह तो पेयजल तक का टोटा पड़ गया है.

बांधों की कुल भंडारण क्षमता थोड़ी सी
इस साल एक बड़े खतरे के अंदेशे की बात करते समय हमें अपने कुल इंतजाम पर भी गौर कर लेना चाहिए. आजकल चुनाव के समय रात दिन हम किसानों की बात कर रहे हैं. एक बार भी यह जिक्र नहीं सुनाई दिया कि इस समय देश में आधी से ज्यादा खेती बारिश के भरोसे हो रही है. यानी पांच साल पहले तक देश में लगभग पचास फीसद खेतों तक सिंचाई का पानी पहुंचाने का इंतजाम हुआ था. और इस बीच नए बांध बनाने या पुराने बांधों की क्षमता बढ़ाने या बांधों के अलावा दूसरे विकल्पों को तलाशने का क्या काम सोचा गया? यह मसला मौजूदा योजनाकारों के सोच विचार से बिल्कुल ही गायब दिखा. अगर नहीं सोचा गया तो इस साल किसी अफेदफे की बात दिमाग में आने का सवाल ही कहां से उठता. यानी जो अफेदफे होना है उसका पता तभी चलेगा जब बड़ी आपदा आ जाएगी. अलबत्ता उस समय यह विवाद हो रहा होगा कि वह विपदा आसमानी ज्यादा है या सुल्तानी ज्यादा? यह विवाद भी हो रहा होगा कि पिछले पचास साल में इस हालात से बचने का कितना काम हुआ था? और जल प्रबंधन के इस काम में कोताही कब शुरू हुई?

समस्या कितनी बड़ी
विशेषज्ञों के सोच-विचार से निकला एक आंकड़ा और बना है. इसके मुताबिक सिर्फ पानी की बदइंतजामी के कारण आने वाले दस साल में आर्थिक नजरिए से भी भयावह हालात बनने के आसार हैं. आंकड़ा यह है कि 2030 तक सिर्फ पानी की बदइंतजामी के कारण देश के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े को छह फीसद का नुकसान पहुंचेगा. अर्थशास्त्रियों की यह बात सुनने में अंसेवदनशील लग सकती है. कोई कह सकता है कि जल सकंट में अनाज की कमी, भुखमरी और बीमारियों से मौतों की बात को छोड़कर जीडीपी की बात की जा रही है? लेकिन गौरतलब यह भी है कि जीडीपी के नुकसान की बात अर्थशास्त्री बता रहे हैं. अर्थशास्त्रियों का मुख्य काम ही जीडीपी की चिंता करना है. उनसे ज्यादा उलझेंगे तो वे समझा सकते हैं कि जीडीपी ही देश में भोजन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य के इंतजाम को सुनिश्चित करता है. और उसी आर्थिक विकास को अर्थशास्त्री पानी की कमी से जोड़कर बता रहे हैं.

फौरन क्या करने की जरूरत
ये पानी का मामला है. हम पानी का उत्पादन नहीं कर सकते. हालांकि जल संचयन को आजकल वाटर हारवैस्टिंग कहने लगे हैं. इस लिहाज से यह एक तरह से खेती ही है. काम की बात यही है. अभी हमें हर साल प्रकृति से बारिश के जरिए 4000 अरब घनमीटर पानी मिलता है. इसमें से हम सिर्फ 258 अरब घनमीटर पानी ही बांधों और जलाशयों में रोककर रखने का इंतजाम कर पाए हैं. यह क्षमता एक दशक पहले ही बना ली गई थी और तब से आज तक जस की तस है. जबकि बारिश के दिनों में हर साल ही लगभग हर नदी उफनती है. हर साल ही कोई चार सौ अरब घनमीटर पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस चला जा रहा है. बारिश के चार महीने में इस पानी को हम बाकी के आठ महीनों के लिए रोककर रख सकते हैं. इससे हमारी नदियां भी निर्मल और कुछ न कुछ अविरल भी बनी रह सकती हैं.

बेशक इस साल बारिश आने में कोई चार हफ्ते बचे हैं. इतनी जल्दी जल परियोजनाएं नहीं बन सकतीं. न कोई इमरजेंसी योजना बन सकती है. यानी तय है कि इस साल बारिश के चार महीनों बाद भी पानी की कमी का जो संकट आने का अंदेशा है उससे बचने का फिलहाल कोई इंतजाम नहीं हो सकता. यानी तय है कि अगले साल इन्हीं दिनों फिर हम पानी की कमी का रोना रो रहे होंगे. बिल्कुल उसी तरह जिस तरह से पिछले कुछ साल से लगातार रोते रहे.

पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि जल प्रबंधन का मसला आर्थिक विकास के मामले से कहीं ज्यादा बड़ा है. इतना बड़ा कि किसी अफेदफे में आर्थिक विकास के आंकड़े धरे रह जाएंगे. किसी भी देश को पानी दूसरे देशों से उधार भी नहीं मिलता. इसीलिए हमें कुदरत से जितना पानी मुहैया होता है उसे ही ज्यादा से ज्यादा भरकर रखने का इंतजाम करने के अलावा कोई चारा नहीं है. और दस साल बाद जब उतना पानी भी कम पड़ने लगेगा तो पानी को एक बार इस्तेमाल करके उसे फिर से साफ करके दोबारा तिबारा इस्तेमाल करने के तरीके भी अभी से सोचकर रख लेने चाहिए. सनद रहे, पानी का मसला राष्ट्र पर किसी भी खतरे से ज्यादा बड़ा है.

 
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

 
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