नोटबंदी पर देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम की बातों ने चक्कर में डाल दिया है. आर्थिक मामलों में सबसे ऊंचे ओहदे वाले सलाहकार ने एक सनसनीखेज बात भी कह दी है कि नोटबंदी मेरे लिए एक पहेली है, और इस पहेली के बारे में उन्होंने नई बात यह बताई है कि उनका अनुमान नोटबंदी से जीडीपी को दो फीसदी नुकसान होने का था और फिर उन्होंने जो कहा, वह चमत्कार की श्रेणी में रखने लायक है. उन्होंने कहा कि नगदी की कमी के बावजूद आर्थिक कामकाज में कमी नहीं आई. नोटबंदी से नुकसान को कमतर साबित करने के लिए बैकडेट में जाकर नोटबंदी से नुकसान के अंदेशे का अनुमान भारीभरकम बताने का विश्लेषण क्यों नहीं होना चाहिए...?
इतिहास की बात नहीं है नोटबंदी...
कोई अगर यह समझता हो कि नोटबंदी अब इतिहास की बात हो गई है, तो वह हर तरह से गलत होगा. अभी तो नोटबंदी के नफा-नुकसान का हिसाब-किताब तक नहीं बना. मसला इतना बड़ा है कि इसे इतिहास बनने में एक अरसा लगेगा. बहरहाल अगले महीने रिज़र्व बैंक के गवर्नर को एक समिति के सामने पहली बार नोटबंदी का ब्योरा देना है. उनके दिए ब्योरे के बाद नोटबंदी के फैसले की वास्तविक समीक्षा शुरू होगी. इसीलिए बहुत संभव है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार का नया बयान उस समीक्षा के पहले आरोपों से निपटने की तैयारी हो.
असंगठित क्षेत्र को हुआ नुकसान कबूला...
उन्होंने माना कि असंगठित क्षेत्र को नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन उन्होने अपनी बात में यह भी जोड़ा कि इसका आकलन मुश्किल है. अगर इसका आकलन मुश्किल है तो नुकसान होने की बात कबूलने का आधार ही क्या बचता है. और फिर शोध की सांख्यिकीय पद्धति से यह आकलन कौन-सा मुश्किल काम है. देश में पहाड़ टूटने जैसी आवाज़ वाली नोटबंदी का असर जितना सार्वभौमिक था, उस स्थिति में तो छोटे-से नमूने का अध्ययन करके भी विश्वसनीय निष्कर्ष पाए जा सकते हैं.
नोटबंदी से राजनीतिक फायदा...
उन्होंने कहा कि नोटबंदी से राजनीतिक फायदा हुआ. वैसे, यह बात सही भी हो, तो भी आमतौर पर कोई आर्थिक सलाहकार यह बात कहता नहीं है. लेकिन मीडिया में छपे बयान के मुताबिक राजनीतिक फायदे के जो रूप उन्होने गिनाए हैं, वे राजनीतिक नहीं, प्रशासनिक हैं. मसलन कैशलैस लेन-देन बढ़ा और करसंग्रह बढ़ा. लेकिन यहां याद करने की बात यह है कि ये दोनों काम नोटबंदी के ऐलानिया मकसद में शामिल नहीं थे. इन्हें हम नोटबंदी के सह-उत्पाद की श्रेणी में ही रख सकते हैं. ज़ाहिर है, जब अगले महीने नोटबंदी के फैसले की समीक्षा हो रही होगी, अर्थशास्त्री नोटबंदी के ऐलानिया मकसद के आधार पर समीक्षा कर रहे होंगे और सरकार ऐलानिया मकसद की बजाय दूसरे फायदों को गिना रही होगी.
बेरोज़गारी की समस्या को नकारा...
उन्होंने बेरोज़गारी की समस्या को ही नकार दिया. उनका तर्क था कि समस्या कम नौकरियों की नहीं, अच्छी नौकरियों की है. वे बेरोज़गारी की नापतोल, यानी बेरोज़गारी की मात्रा से ध्यान हटाकर रोज़गार की गुणवत्ता की तरफ ले गए. नोटबंदी से बेरोज़गारी का रिश्ता बन न पाए, इसके लिए उन्होंने यह तर्क दिया है कि हमारी अर्थव्यसस्था उतनी तेज़ी से रोज़गार पैदा नहीं कर पा रही है.
अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी की सलाह दोहराई...
आखिर में अपनी विशेषज्ञता और स्वभाव के मुताबिक उन्होंने बेरोज़गारी का समाधान आर्थिक वृद्धि को ही बताया. अगर यह मान लेते हैं कि रोज़गार उतना नहीं बढ़ पा रहे हैं, तो यह मानना ही पड़ेगा कि अर्थव्यवस्था भी उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ पा रही है. लेकिन अर्थव्यवस्था के बारे में हमेशा यह कहना ही पड़ता है कि हमारी अर्थव्यवस्था तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था है. सो, गणित के समीकरण के लिहाज़ से यह सिद्ध करना आसान है कि बेरोज़गारी समस्या नहीं है. लेकिन यहां भी मुश्किल यह है कि बेरोज़गारी कितनी तेज़ी से बढ़ रही है या कितनी तेज़ी से नहीं बढ़ रही है, इसका आकलन विवाद में ही बना रहता है, इसीलिए रोज़गार-विहीन आर्थिक वृद्धि, यानी जॉबलेस ग्रोथ पर विवाद होने लगा है. वैसे यह अच्छा और रचनात्मक विवाद है. नोटबंदी की समीक्षा के बहाने तो और भी अच्छा विवाद था, लेकिन बुरा यह है कि यह काम का विवाद भी आजकल कम होता जा रहा है.
खैर, नोटबंदी पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर के बहुप्रतीक्षित लेखे-जोखे के पेश होने के पहले देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार का यह बयान इस समय समीक्षकों में हलचल ज़रूर पैदा कर रहा होगा.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From May 23, 2017
मुख्य आर्थिक सलाहकार को भी एक पहेली लगी नोटबंदी...
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:मई 23, 2017 13:17 pm IST
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Published On मई 23, 2017 13:17 pm IST
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Last Updated On मई 23, 2017 13:17 pm IST
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