राफेल कांड छुपा जा रहा था। कम से कम चुनाव के दौरान इस कांड को लेकर मोदी सरकार निश्चिंत लग लग रही थी। सरकार ने अपने प्रचार तंत्र के जरिए बड़ी जुगत से जनता के बीच यह धारणा बनवा दी थी कि राफेल कांड पर सुप्रीमकोर्ट से सरकार को क्लीन चिट मिल चुकी है। हालांकि यह भी एक हकीकत है कि सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले को लेकर तरह तरह की व्याख्याएं चालू थीं। लेकिन राफेलकांड पर एक पुनर्विचार याचिका भी सुप्रीमकोर्ट में विचाराधीन थी। इसी याचिका को खत्म करवाने के लिए सरकार कह रही थी कि अब राफेल कांड पर कोई विचार नहीं हो सकता। कुलमिलाकर राफेल कांड में आगे कोई विचार न हो इसके लिए सरकार ने एड़ी से चोटी का दम लगा रखा था। सरकार कम से कम यह जरूर चाहती थी कि लोकसभा चुनाव निपट जाने तक रफाल सौदे की कोई चर्चा न हो। लेकिन लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के एक दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आ गया कि वह इस कांड पर तफ़्तील से सुनवाई को तैयार है। गौरतलब है कि बड़ी अदालतें अपने किसी फैसले पर पुनर्विचार के लिए तभी तैयार होती हैं जब अदालत को मामले में जान दिखाई देती है। बहरहाल, इसमें बिल्कुल भी शक नहीं कि चुनाव के ऐन मौके पर रफाल कांड का ज़िदा हो जाना सत्तारूढ दल के लिए एक बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा कर गया है।
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने...?
इस सनसनीखेज राफेल कांड पर सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ कहा है कि पुनर्विचार याचिका दाखिल करने वालों को विस्तार से यानी तफ़्सील से सुना जाएगा। दूसरी बड़ी बात सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दी है कि राफेल सौदे के जो दस्तावेज गोपनीय माने जा रहे थे उनका भी संज्ञान लिया जाएगा। अव्वल तो इस कांड पर फिर से सुनवाई होना ही सरकार के लिए बहुत बड़ा झटका है, ऊपर से रफाल सौदे से संबधित दस्तावेजों पर गोपनीयता का वह कवच भी हटा दिया है जिसकी वजह से सुप्रीमकोर्ट इस मामले में तफ्तील से सुनवाई नहीं कर पाया था।
सुप्रीम कोर्ट को क्यों तैयार होना पड़ा होगा...?
कारण साफ है। एक तो सरकार का वह पुराना हलफनामा पुनर्विचार का कारण बना होगा जिसमें सरकार ने यह कहा था कि सौदे से संबंधित दस्तावेजों को सरकार की संबंधित संस्थाओं की नज़रों से गुज़ारा गया है। लेकिन बाद में यह शक पैदा हो गया कि वैसा हुआ नहीं था। यानी लोक लेखा समिति को उसकी जानकारी ही नहीं थी। बाद में सरकार को यह कहना पड़ा था कि हलफनामें की भाषा में व्याकरण संबंधी गलती हो गई। भाषा संबंधी इस गफलत को टाइपो एरर यानी टंकण की गलती कह कर छुटकारा पाने की कोशिश हुई थी। कुछ यह आभास भी दिया गया था कि सरकार की छोटी सी भूल के कारण सुप्रीमकोर्ट के समझने में ही चूक हो गई होगी। बहुत संभव है कि पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाले इस कांड की फिर से सुनवाई के लिए ये कारण अदालत ने पर्याप्त देखे होंगे। गौरतलब है कि हमारी अपनी विलक्षण और विश्वसनीय न्याय व्यवस्था में कम से कम किसी वाक्य के आशय को समझने में अड़चन आने की परिकल्पना को कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता। अदालतों में कोई भूल चूक न हो जाए इसीलिए एक एक शब्द और हर वाक्य की क्रियाओं और सहायक क्रियाओं को बड़े गौर से देखा जाता है। अदालतों से कोई चूक होने की गुंजाइश इसलिए भी नहीं बचती क्योंकि दूसरे पक्ष के वकील हर नुक्ते पर घंटों घंटों बहस करते हैं और अदालत को बताते हैं कि गलती कहां हो रही है। बहरहाल, कैग और लोक लेखा समिति को लेकर किए गए सरकार के बहलफ बयानों पर सवाल उठ गए थे। अदालत में बहलफ बयानों की गलती को बहुत गंभीर माना जाता है। उधर देश के प्रतिष्ठित अखबारों में राफेल से संबंधित गोपनीय दस्तावेज छप जाने से और भी ज्यादा बखेड़ा खड़ा हो गया था। इतना बड़ा मामला बन गया था कि मुख्य विपक्षी दल यानी कांग्रेस नेता राहुल गांधी राफेलकांड को जरा के लिए भी नहीं छोड़ रहे थे।
न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता का सवाल भी बड़ा था...
हम ऐसे दुष्काल में है जिसमें हमारे लोकतंत्र के बाकी सारे अंग विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहे हैं। एक न्यायपालिका ही बची है जो अपने विलक्षण सांगठनिक ढांचे के कारण सर्वस्वीकार्य समझी जाती है। अदालती फैसला जिनके खिलाफ जाता है वे तक सिर झुकाकर उसे कबूल करते हैं। देश को पता है कि अगर न्यायतंत्र की विश्वसनीय चली गई तो बाकी कुछ भी नहीं बचेगा। इस लिहाज़ से देखें तो राफेलकांड पर सुप्रीमकोर्ट के इस सनसनीखेज फैसले से उसकी विश्वसनीयता बहुत बढ़ गई है।
कैसे निपटेगी सरकार...?
किसी भी सरकार के पास बड़े बड़े से संकट से निपटने के सैकड़ों तरीके होते हैं। लेकिन ये भ्रष्टाचार का मामला है। साधारण भ्रष्टाचार नहीं बल्कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का मामला है। वैसे तो राजनीति में भ्रष्टाचार के आरोप अब उतने ज्यादा सनसनीखेज नहीं माने जाते। लेकिन चुनाव के मौके पर भ्रष्टाचार के आरोपों का बोझ कोई भी सरकार उठा नहीं पाती। इसीलिए चुनाव के ऐन मौके पर सरकार पर राफेल कांड के बादल मंडरा जाना सरकार को हिला कर रख सकता है। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि सरकार राफेल के मोर्चे पर अपने बचाव के लिए अब सबकुछ झोंक सकती है। वह क्या करेगी? इसका अनुमान लगाना हो तो उस रणनीति का हवाला दिया जा सकता है जिसमें कहा जाता है कि आक्रमण ही सबसे अच्छा बचाव होता है। इस तरह से लगता यही है कि मोदी सरकार अपने बचाव में विपक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोपों के प्रचार को अचानक बढ़ा सकती है। ताकि और कुछ हो या न हो कम से कम आरोपों की धार तो कम हो जाए।
क्या राहुल गांधी सही साबित हो रहे हैं...?
मीडिया यह मान रहा था कि राहुल गांधी राफेल पर जबरन ही ज्यादा बोल रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि यूपीए में कांग्रेस के सहयोगी दल भी मानकर चल रहे थे कि भारी गोपनीयता के कवच में सुरक्षित रखे गए राफेलकांड की चर्चा देर तक ठहर नहीं पाएगी। बहुत संभव है इसीलिए कांग्रेस के अलावा दूसरे विपक्षी दलों ने राफेलसौदे की गोपनीयता के सामने हथियार डाल दिए थे। लेकिन अब जब सुप्रीमकोर्ट के फैसले से राफेल कांड पहले से भी ज्यादा जोर से गूंज उठा है तो राहुल गांधी की बातों को दम मिलेगा ही। अब तो राहुल गांधी को अपने चुनावी भाषणों में यह साबित करने में आसानी हो जाएगी कि उनके घोषणापत्र में न्याय योजना के लिए पैसे कहां से आ सकते हैं। वे आसानी से यह साबित करते पाए जाएंगे कि जो लाखों करोड़ की रकम अनिल अंबानी जैसे धनवानों की जेब में जा रही है उस पैसे को वे गरीबों के खाते में भिजवा देंगे। राफेल पर अदालती फैसले से राहुल गांधी का हौसला एक और लिहाज़ से बढ़ेगा। अभी कुछ दिनों से वे नोटबंदी को भी एक बड़ा घोटाला बता रहे हैं। अब अपने चुनावी रैलियों में वे नोटबंदी के घोटाले भी ठोककर बता रहे होंगे।
क्या खुफिया पत्रकारिता फिर जिंदा हो चली है...?
इसमें कोई शक नहीं कि राफेल कांड पर पत्रकारिता थकीमरी सी दिखने लगी थी। एक दो अखबार ही जोखिम उठाकर राफेल सौदे की खुफिया जानकारी जमा करने और बताने में लगे थे। और इसे कोई नहीं नकार सकता कि उन्ही इक्का दुक्का अखबारों ने राफेल सौदे के गोपनीय दस्पावेजों की फोटू छापी थीं। वरना सरकार की दलीलों के सामने ऐसी कोई दलील नहीं बची थी जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिका की सुनवाई का फैसला कर पाता। यानी कुछ विद्वानों का यह अंदेशा ग़लत साबित हुआ कि अब भारतीय पत्रकारिता अपने समापन काल में है। गौरतलब है कि डेढ़ महीने बाद ही देश में नई सरकार काम करती दिखेगी। लेकिन वह सरकार अब पत्रकारिता की तरफ से खुद को निश्चिंत मानकर नहीं चल पाएगी।
चुनाव आयोग को भी अपनी साख की चिंता करनी पड़ी...
राफेल पर अदालती फैसले के कुछ देर बाद ही केंद्रीय चुनाव आयोग के एक फैसले ने भी हलचल मचाई। चुनाव आयोग ने मोदी की बायोपिक फिल्म और नमो टीवी पर रोक लगा दी है। दरअसल, सोशल मीडिया पर केंद्रीय चुनाव आयोग का संक्षिप्त नाम केंचुआ धरा जाने लगा था। आयोग की विश्वसनीयता पर जनता में बातें होने लगी थीं। ऐसे में आयोग ने प्रधानमंत्री मोदी की बायोपिक फिल्म पर रोक लगाकर एक तरह से अपनी साख बढ़ाने का काम किया है। यानी जिन लोगों के मन में यह अंदेशा बैठ गया था कि मौजूदा सरकार ने देश की सारी संस्थाओं को अपनी दबिश में ले लिया है उन्हें ये फैसले सुनकर हाल फिलहाल कुछ राहत जरूर महसूस हुई होगी।
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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