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This Article is From Jan 04, 2020

एनआरसी- भटकी हुई प्राथमिकताओं की तथाकथा

Sudeep Shrivastava
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 04, 2020 18:02 pm IST
    • Published On जनवरी 04, 2020 17:57 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 04, 2020 18:02 pm IST

किसी एक वक्त में दुनिया के हर देश में ढेरों समस्याएं होती हैं, उनमें कुछ वास्तविक समस्याएं हैं और कुछ काल्पनिक भी. काल्पनिक समस्याएं वो होती हैं, जिनका धरातल पर कोई सिर-पैर नहीं होता, या फिर वे महज एक विचारधारा को ओढे़ रहने के कारण समाज में दिखाई देती हैं. दूसरे शब्दों में अगर आप 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विचारधारा पर चलते हैं, तो संभवतः ऐसी समस्याएं आपको समस्याएं न लगकर जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा लगेंगी.

दुनिया के हर देश को हर वक्त यह तय करते रहना पड़ता हैं कि उसके लिए प्राथमिकताएं क्या हैं? हो भी क्यों न, मानव के स्वाभाव और विश्व की विषमताओं के कारण दुनिया के किसी देश के पास शत प्रतिशत समस्याओं का शत प्रतिशत निदान उपलब्ध नहीं है. सबसे विकसित देश कहलाने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका को भी अपने सामने सभी तरफ समस्याएं ही समस्याएं दिखायी देती हैं. जहां तक हमारे देश प्रिय भारत वर्ष का सवाल है, एक विकासशील देश होने के कारण समस्याओं की फेहरिस्त कुछ अत्यधिक लंबी है. इनमें सबसे बड़ी समस्या असमानता की है, उसमें भी सामाजिक, आर्थिक और क्षेत्रीय असमानता जैसे कई प्रकार हैं. गरीबी को अगर सापेक्षीय परिस्थिति भी मान लिया जाये तब भी देश की करीब 30 फीसदी आबादी उस तथाकथित गरीबी रेखा के नीचे रहती है, जिसे जीवन चलाने के लिए सबसे कम स्तर पर माना जाता है. इस 30 फीसदी आबादी के अलावा देश के पास 20 फीसदी आबादी या तो बेरोजगार है या क्षमता से कम कार्यों में असंतोष के साथ जीवन-यापन कर रही है. इसके अलावा भी ऐसी बहुत सी समस्याएं हैं, जिससे देश के विभिन्न वर्ग बड़े स्तर से प्रभावित है.

ऐसे हालात में यदि कोई सरकार एनआरसी (नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन- नागरिकों की राष्ट्रीय पोथी) को देश का सबसे बडा मुद्दा मानने लगे और उसपर इस हद तक अड़े रहे कि बड़ी संख्या में देश के ही नागरिक सड़कों पर उतरने लगे और बडे स्तर पर काम-काज प्रभावित होने लगें, तब ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या वाकई में इस वक्त देश की प्राथमिकता एनआरसी होना चाहिए या नहीं? यह एकदम साफ है कि दिल्ली के शाहीनबाग में हड्डियों तक को कपां देने वाली ठंड के बीच अगर दादी की उम्र की महिलाएं भी धरने पर बैठी हैं तो वो नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध मात्र नहीं है, और वस्तुतः सरकार के द्वारा जिस एनआरसी की लगातार घोषणा की जा रही है, वो सब उससे भयभीत हैं. सरकार बार-बार यह कहती है 'कि सीएए और एनआरसी में आपस में कोई संबंध नहीं है' लेकिन एक बार भी नहीं कहती कि 'एनआरसी नहीं की जाएगी.' इससे भी आगे बढ़कर सरकार के मंत्री लगातार एनआरसी की जरूरत बताते हैं, जैसे की देश में आज जितनी समस्याएं हैं, वे सब भी एनआरसी लागू किए जाने के बाद दूर हो जाने वाली है.

2010 के एनपीआर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) में अगर 2020 में आपके माता-पिता के भी जन्मस्थान का पता पूछा जाने लगा है तो आप ये मान लिजिए कि सरकार यह मानती है कि सही तरीके से एनआरसी हो जाने के बाद देश में सबकुछ अच्छा होने वाला है. सरकार और उनके पिट्ठुओं का दुखड़ा ये है कि बिना बात का बवाल हो रहा है और मुस्लिम आबादी को राजनीतिक लाभ के लिए पार्टियां गुमराह कर रही हैं. पर सच्चाई ये है कि उनकी असली समस्या इस बात की है कि पूरे देश में जितने विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, उसमें पाकिस्तान का झंडा तो एक भी नहीं दिखा, उल्टा तिरंगे की बाढ़ आ गई है. रात 12 बजे नए साल की खुशी में आंदोलन स्थल पर 'जन गण मन ........' का गान हो रहा है और सरकार के मैनेजर सिर धुन रहे हैं कि मामला वैसा क्यों नहीं बन रहा जैसा वो चाहते हैं.

एनआरसी के कोई नियम नहीं बने हैं, उसका क्या स्वरूप होगा इसका पता नहीं, यहां तक कि इसका हिन्दी नाम भी तय नहीं है फिर भी सोशल मीडिया पर 'आई सपोर्ट सीएए-एनआरसी' का हैशटैग चलाया जा रहा है. आखिर क्या हासिल होगा इस एनआरसी से? असम का उदाहरण हमारे सामने है, यहां सबसे ज्यादा 'घुसपैठिये' होने की बात कही गई थी. आखिरी सूची में लगभग 20 लाख लोग विदेशी घुसपैठिये पाए गए हैं. इनमें से भी कई अदालतों में अपनी नागरिकता साबित कर देंगे, अर्थात इस बात का पता ही नहीं कि वास्तव में घुसपैठिये हैं कितने? 20 लाख लोग जिसमें बड़ी संख्या में बंगाली हिन्दू भी हैं और जिनको सीएए से नागरिकता देने का असम विरोध कर रहा है को अगर हटा देता लगभग 12-13 लाख मुसलमान असम में तथाकथित 'घुसपैठिये' पाए गए हैं. असम की आज की जनसंख्या तीन करोड़ चालीस लाख है, इस हिसाब से असम की कुल जनसंख्या के चार फीसदी से भी कम लोग तथाकथित घुसपैठिये पाए गए हैं. ये चार फीसदी लोग असम के लिए इतना बड़ा मुद्दा बन गए थे कि वो वहां इसके विरोध में लगातार आंदोलन हुए और सामाजिक ताना-बाना टूटने लगा. पर क्या पूरे देश में चार फीसदी लोग घुसपैठ कर चुके हैं, जवाब है नहीं, हरगिज नहीं.

130 करोड़ के इस देश में बहुत अधिक अतिशयोक्ति से भी जाया जाए तो भी एक फीसदी से भी कम आबादी तथाकथित घुसपैठिये के रूप में बदनाम की जा सकती है. इसका भी मूल कारण देश के अंदर 'बंगाली मुस्लिम' और 'बांग्लादेश मुस्लिम' के बीच अंतर न कर पाना है. अर्थात तथाकथित घुसपैठियों की संख्या भारत की आबादी की आधा फीसदी भी नहीं होगी. किसी ने ठीक कहा है 'कागज में लकीरें खीच देने से मानवता अलग-अलग नहीं हो जाया करती. अगर भुखमरी और जीवन बचाने के संघर्ष में कुछ लोग इस देश में आकर बस गए हैं, तो एक सभ्य समाज और प्रजातांत्रिक देश होने के नाते हमारा क्या कर्तव्य है? क्या हम उन्हें ठोकर मारकर नियति के हाथ छोड़ दें या मानवता का धर्म निभाते हुए उन्हें शरण दें. इसका जवाब देने के पहले हमको अपने घरों के बाहर आने वाले याचकों के चेहरें को याद करना चाहिए. लगभग हर भारतीय का घर याचक को यथासंभव सहायता देने की सनातन् परंपरा से बंधा हुआ है, तो हमारी चुनी हुई सरकार कैसे इसके विपरीत आचरण कर सकती है?

अगर इतना सब विरोध होने के बाद और बहुमत के मद में जनमत को रौंदकर अगर एनआरसी कर भी ली गई तो हमें क्या हासिल होगा? पूरी प्रक्रिया चलने तक देश के हर सरकारी ऑफिस के सामने लंबी-लंबी लाईनें, प्रत्येक नागरिक के मन में शासन व्यवस्था के प्रति अविश्वास और भय, शासकीय कर्मचारियों को राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार का एक अनोखा मौका, छुटभैये से छुटभैये राजनेताओं के दरवाजों पर सिफारिस की भीड़ और इन सबके बीच उन बेचारे लोगों के आंसू और दर्द जो इस पूरी प्रक्रिया, जिसके महीनों-सालों चलने की संभावना रहेगी, और एनआरसी से बाहर रह गए लोगों की पीड़ा.

यकीन मानिये कि जिस तरह नोटबंदी के पहले सरकार को यह लगता था कि सोलह लाख करोड़ रुपये में से तीन-चार लाख करोड़ रुपये कालाधन होने के कारण बैंकों में वापस नहीं आ पाएंगे, परन्तु वे गलत साबित हुए और लगभग पूरा धन वापस आ गया. वैसे ही इस एनआरसी के बाद 130 में से कम से कम 129 करोड़ लोग अपनेआप को भारतीय साबित करने में सक्षम हो ही जाएंगें. बचे हुए में से कई को अदालत भारतीय ठहरा देगी, तो ऐसी स्थिति में हमें इस एनआरसी से क्या हासिल होने वाला है, इस बुनियादी सवाल का जवाब दिये बिना, अगर एनआरसी की जाती है, तो ये देश के 'प्रधानसेवक' का देश की 130 करोड़ 'मित्रों भाईयों और बहनों' के साथ किया गया अब तक का सबसे 'प्रधान मजाक' होगा. इस संभावित हाराकिरी से भारत की अर्थव्यवस्था और सामान्य कामकाज कितना बेपटरी होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.

यह लेख मूलतः एनआरसी के पक्ष में राय रखने वाले के लिए लिखा गया है कि अगर वो इसे सैद्धांतिक रूप से उचित भी मानते हैं तो क्या वर्तमान में हमारी प्राथमिकता एनआरसी होना चाहिए या नहीं इस पर जरूर सोंचे? देश का चालीस हजार वर्गमील क्षेत्र चीन के कब्जे में है, और यह बात अधिक राष्ट्रवादी से लेकर तथाकथित राष्ट्रद्रोहियों तक को अखरती है. जाहिर है एक न एक दिन भारत को चीन के कब्जे का यह भू-भाग खाली कराना चाहिए, पर क्या 56 इंच सीना वाले प्रधानसेवक भी आज ऐसा करने के बारे में सोच सकते हैं? जाहिर है हर बात का एक वक्त होता है और वक्त के पहले कोई भी काम किया जाये तो असफलता ही हाथ लगती है. इसलिए कहा गया है कि अनगिनत समस्याओं के बीच हर शासन व्यवस्था को वे प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए जो अधिक से अधिक और कमजोर से कमजोर व्यक्ति को लाभ पहुंचा सके.

गांधीजी का मंत्र 'कि कोई भी कदम उठाने के पहले अब तक आपने जो सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति देखा है उसका चेहरा याद कर लिजिए कि आपके कदम से उसे कोई फायदा होगा या नहीं' आपकी सारी संकाएं और अक्ल के कुंहासे अपने आप मिट जाएंगे. गांधीजी गुजरात से आते थे और आज विडंबना देखिए कि गांधीजी के मंत्र को गुजरात के ही लोग नहीं अपना रहे हैं.
 

सुदीप श्रीवास्तव राजनीतिक विश्लेषक हैं...


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