पूरा देश याद कर ले बुंदेलखंड का सबक

पूरा देश याद कर ले बुंदेलखंड का सबक

प्रतीकात्मक फोटो

आखिर बुंदेलखंड उस हालत में पंहुच गया जिसके बारे में पांच महीने चेताया गया था। आजादी के बाद पहली बार है कि बुंदेलखंड में किसी राहत या आपदा प्रबंधन के लिए सरकारों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। पिछले दो महीनों में दिल्ली, भोपाल और लखनऊ के चार सौ से ज्यादा बड़े पत्रकार बुंदेलखंड का दौरा कर चुके हैं। लेकिन बुंदेलखंड की व्यथा कथाएं लिखने के अलावा वे भी ज्यादा कुछ सुझा नहीं पाए। हर दिन किसानों की मौतों की गिनती करते रहने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पाया। कोई कुछ सुझाता तो सुझा भी क्या पाता? क्योंकि बुंदेलखंड एक-दो जिलों वाला इलाका नहीं है। इसमें उप्र के सात और मप्र के छह जिले आते हैं। कैसे भी सुझाव आते, उन्हें लागू करने के लिए एक लाख करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत पड़ती।

देखें- पांच माह पहले के हालात पर यह लिंक

बुंदेलखंड के आकार का अंदाजा नहीं लगा पाए नए जानकार
यह इलाका एक भरे पूरे प्रदेश के बराबर है। आबादी दो करोड़ है। इसे एक नजर में देखना और दिखाना दो-चार हफ्ते का काम नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि समझने की कोशिश बिल्कुल भी न हुई हो। हां यह अलग बात है कि देश और विश्व के स्तर पर बुंदेलखंड को समझने की जितनी भी कोशिशें हुईं वे जल प्रबंधन की प्राचीन पद्धतियों को जानने और जटिल भौगालिक परिस्थितियों को समझने की ज्यादा हुईं। सत्तर के दशक में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रुचि वाला बंगरा वाटरशेड अध्ययन हो या अस्सी के दशक में किया गया चंदेलकालीन जल विज्ञान का अध्ययन, किसी का भी फायदा सीधे-सीधे बुंदेलखंड को मिल नहीं पाया। कारण एक ही रहा कि इलाका इतना बड़ा है कि उसके लिए राजनीतिक ईमानदारी और अच्छी खासी रकम की जरूरत थी। इस बात को इसी स्तंभ में कई बार तथ्यों के आधार पर बताया जा चुका है।
 
फीलगुड के चक्कर में सारा वक्त बर्बाद कर दिया
इस साल कोई काम करने का सारा समय निकल गया है। आग लगे पर कुएं नहीं खोदे जाते। आज बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात में हम अपना मुंह छिपाने के लिए बुंदेलखंड में कुछ लोगों को रोटी और पानी बंटवाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। वहां मौतों और थोक में पलायन को रोका नहीं जा सकता। लेकिन अगले साल फिर ऐसे हालात से बचने के बारे में तो सोच ही सकते हैं। हमें एक बार तसल्ली से बैठकर, गंभीरता से बैठकर, ईमानदारी से बैठकर उन दस्तावेजों को खंगालना पड़ेगा कि पिछले तीस साल में विशेषज्ञों और विद्वानों ने क्या-क्या सोचा है। उनकी बातों पर इसलिए ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि वे लिखापढ़ी वाले विद्वान लोग थे। कम से कम अब तो स्वयंसेवी संस्थाओं को वैज्ञानिकों की खिल्ली उड़ाना छोड़कर समझना पड़ेगा कि व्यवस्थित अध्ययनों के जरिए ही समय, ऊर्जा और धन की बचत होती है। उन्हें यह भी समझना पड़ेगा कि आपस में लड़ते रहने से मीडिया में तो बना रहा जा सकता है लेकिन वे काम नहीं हो सकते जो उनकी संस्थाओं के उद्देश्यों में शामिल हैं।

अगले साल के लिए अभी से लगने की जरूरत
यह साफ हो चुका है कि गर्मी के बाकी बचे सिर्फ डेढ़ महीने में हम बुंदेलखंड के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। यह काम इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि न हमारे पास काम करने का कोई नक्शा तैयार है और न उतने पैसे का प्रावधान है। सब जानते हैं कि डेढ़ महीने बाद पानी बरस रहा होगा। इस समय सूखे और अकाल से जूझते इसी बुंदेलखंड में डेढ़ महीने बाद ही हम बारिश और नदियों में बाढ़ से जूझ रहे होंगे। उस पानी को बुंदेलखंड की ही धरती पर अगली गर्मियों के लिए रोककर रखने का भी हमारे पास कोई इंतजाम नहीं होगा। इसका मतलब है कि 2016 तो हम भुगतने जा ही रहे हैं उसके अगले साल यानी 2017 की गर्मियों में सूखे से निपटने का भी कोई इंतजाम हम इस साल नहीं कर पाएंगे। राजनीतिक कर्म इतने आकस्मिक और तदर्थ हो गए हैं कि सन 2018 में बुंदेलखंड में सूखे या पानी की कमी से निपटने की बात कौन सोचे। अगर तब की सोचना है तो अभी से लगना पड़ेगा। सिर्फ लगना ही नहीं पड़ेगा बल्कि युद्ध स्तर पर जुटना पड़ेगा। युद्ध स्तर पर लगने का मतलब उतने ही खर्च का इंतजाम करना पड़ेगा जिस तरह हम रक्षा बजट के लिए करते हैं।

पूरे देश को याद करना पड़ सकता है बुंदेलखंड का सबक
इस समय देश के कम से कम 11 प्रदेश पानी की कमी के कारण सूखे जैसे हालात में हैं। भले ही वे राजनीतिक कारणों से अपनी-अपनी संपन्नता का बड़बोला दावा कर रहे हों लेकिन देश के बड़े जल विज्ञानी देश में कुल जल उपलब्धता का चौंकाने वाला हिसाब बता रहे हैं। जल प्रबंधन के भारी भरकम खर्च वाला काम होने के कारण सरकारें भले इसका जिक्र करने से बचें, लेकिन सामाजिक संस्थाओं को तो जीवन के लिए सबसे जरूरी इस प्राकृतिक संसाधन यानी जल उपलब्धता को जानने समझने पर लग ही जाना चाहिए। जल विज्ञान के विशेषज्ञ हिसाब लगाकर बता रहे हैं कि इस समय देश में बढ़ती आबादी के कारण प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता सिर्फ 75  फीसद बची है। यानी हर व्यक्ति के हिस्से में बादलों से ही चार बाल्टी की बजाए सिर्फ तीन बाल्टी मिल रहा है। इसी आधार पर इसी स्तंभ में दो महीने पूर्व लिखा गया था कि पानी की छीना झपटी के दिन आने की आहट। देखें लिंक-


सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

 


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