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This Article is From Sep 16, 2021

सोनू सूद से हर्ष मंदर तक- इन कार्रवाइयों का क्या मतलब है?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 16, 2021 22:19 pm IST
    • Published On सितंबर 16, 2021 22:19 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 16, 2021 22:19 pm IST

2002 में गुजरात दंगों के बाद अपनी आईएएस अफ़सरी छोड़ने वाले हर्ष मंदर बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व को तभी से खटकते रहे हैं. उनके खिलाफ़ पुलिस और सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल भी नया नहीं है. इस देश में बच्चों के अधिकार के संरक्षण में बुरी तरह नाकाम बाल अधिकार संरक्षण राष्ट्रीय आयोग सबकुछ छोड़ कर उनके चिल्ड्रेन होम में यह देखने पहुंच जाता है कि कहीं इस होम में रह रहे बच्चों को नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में चल रहे आंदोलनों का हिस्सा तो नहीं बनाया जा रहा है? आयोग अपनी रिपोर्ट में भी आधे-अधूरे शब्दों में यह बात कहता है और इसी आधार पर दिल्ली पुलिस उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज कर लेती है. उनके यहां प्रवर्तन निदेशालय छापा मारने पहुंच जाता है.

लेकिन यह सब जितना भी अन्यायपूर्ण हो, अप्रत्याशित नहीं है. जो आदमी हिंसा की आग में झुलसे लोगों और परिवारों को राहत देने की कोशिश करता हो, जो कारवाने मोहब्बत जैसा कार्यक्रम करता हो, वह इस सत्ता-प्रतिष्ठान को कैसे स्वीकार्य हो सकता है? जो आदमी भूख और रोज़गार का मसला उठाता हो, जो मानवाधिकारों को याद करता हो, जो धार्मिक आधारों पर भेदभाव को ख़ारिज करता हो, जो एक तरह से ठोस लोकतांत्रिक माहौल बनाने की कोशिश करता हो, वह ऐसी सरकारों और पार्टियों को रास कैसे आ सकता है जिनका मूल लक्ष्य भावनात्मक मुद्दों पर एक तरह से जनादेश का अपहरण कर लेना है? 

यही बात पिछले दिनों ‘न्यूज़ लॉन्ड्री' और ‘न्यूज़ क्लिक' जैसे पोर्टलों के यहां चले आयकर सर्वे के बारे में कही जा सकती है. यह संदेह बिल्कुल बेमानी नहीं है कि आर्थिक कारोबार के लिहाज से बहुत छोटे इन पोर्टलों पर बस इसलिए कार्रवाई की गई वे बिल्कुल सरकार विरोधी हैं. इनको इनके अपराध की सज़ा दी जानी थी. अभी सज़ा नहीं, बस चेतावनी दी गई है. इशारा किया गया है कि सरकार जब चाहेगी, बाजू उमेठ डालेगी. क़ानून के गलियारों में कोई न कोई नुक़्ता निकलेगा जो बताएगा कि इन्होंने जो पूंजी जुटाई है, वह कितनी गैरक़ानूनी, कितनी अपवित्र और देश के लिए कितनी घातक है सर्वे छापे में बदलेगा, छापे के बाद गिरफ़्तारियां होंगी और इसके बाद वे सच्चे-झूठे आरोप लगेंगे जिनसे अदालतों की मार्फत निजात पाने में बरसों लग जाएंगे.

लेकिन इस पूरे पैटर्न में एक बात समझ में आने वाली नहीं है- सोनू सूद के घर आयकर टीम क्यों पहुंची? सोनू सूद ने ऐसा क्या किया कि सरकार को अपनी एजेंसियां उसके घर दौड़ानी पड़ीं? क्या वाकई दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार के एक शैक्षणिक कार्यक्रम में ब्रांड अंबैसडर के तौर पर सोनू सूद का जुड़ना सरकार को इतना बुरा लगा कि उसने तत्काल उन्हें सबक सिखाने की सोच ली? क्या ये इशारा है कि ग़रीबों का मसीहा कहला रहे सोनू सूद अपनी निजी साख को किसी दूसरी राजनीतिक पहचान से जोड़ने की कोशिश न करें? इस सवाल का साफ़ जवाब आसान नहीं. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि सोनू सूद के ठिकानों पर छापेमारी जैसी कार्रवाई फिलहाल राजनैतिक तौर पर सरकार के लिए नुक़सानदेह होगी. कोविड के संकट के दौरान अभिनेता से नायक बने सोनू सूद ने बिल्कुल बेमिसाल काम किया- वह जैसे बिल्कुल गांधी हो गए. मज़दूरों के लिए भोजन का इंतज़ाम करना हो, उनको घर भेजने की व्यवस्था करनी हो, उनके लिए फिर से रोज़गार जुटाना हो, या कोरोना की दूसरी लहर के दौरान लोगों के लिए ऑक्सीजन का इंतज़ाम करना हो- सोनू सूद जैसे हर मोर्चे पर लगे रहे. उनके ख़िलाफ़ ऐसी संदिग्ध कार्रवाई दरअसल सरकार को ही संदिग्ध बना रही है.

यहीं से एक नया खयाल आता है. सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है. दुनिया भर की सरकारें अपने विरोधियों की जासूसी करवाती हैं. इंदिरा गांधी पर भी ये आरोप था. लेकिन जब सत्ता का अहंकार चरम पर चला आता है तो उसके भीतर यह विवेक नहीं बचता कि वह एजेंसियों को कैसे काम में ले. वह हर विरोधी लगने वाले शख़्स के पीछे आइटी, सीबीआई, ईडी जैसी संस्थाओं को लगा डालती है.

मौजूदा सरकार के संदर्भ में यह बात ज़्यादा चिंताजनक इसलिए दिखाई पड़ती है कि इस इस्तेमाल की वजह से इन एजेंसियों की कार्यकुशलता और क्षमता प्रभावित होने लगी है. दिल्ली पुलिस एक समय देश की सबसे सक्षम और पेशेवर पुलिस मानी जाती थी. लेकिन हालत ये है कि पिछले कई मामलों में वह अदालत की फटकार खा रही है. और ये मामले कौन हैं? नागरिकता-विरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शनों को जबरन दिल्ली के दंगों से जोड़ने के. दिल्ली दंगों की जांच के नाम पर बेगुनाह लोगों पर फ़र्ज़ी मामले लगाने के. यह साफ़ दिखाई पड़ रहा है कि अपने आकाओं को खुश करने की मजबूरी में वह अजीबोगरीब दलीलों और बेबुनियाद सबूतों की मदद लेती पकड़ी जा रही है. दिल्ली पुलिस के पुराने अधिकारी इस हाल पर शर्मिंदा और विक्षुब्ध दिखते हैं और लेख लिखते हैं.

यही स्थिति दूसरी एजेंसियों की है. सीबीआई का अंदरूनी झगड़ा आधी रात को सड़क पर आता है, अधिकारी दिन-दहाड़े एक-दूसरे पर आरोप लगाते मिलते हैं और तमाम मामलों की जांच में सरकारी रुख़ के मुताबिक वह अपना रुख़ तय करती है. भीमा कोरेगांव केस में एनआईए की भूमिका कितनी संदिग्ध है- यह बात छुपी नहीं रह गई है.

तो हालत यह है कि सरकार ख़ुद को सुरक्षित रखने की कोशिश में देश को असुरक्षित बना रही है, उसके नागरिक अधिकारों को, लोगों की नागरिकता को दांव पर लगा रही है. उसकी एजेंसियां दूसरों पर देशद्रोह के जितने मामले जड़ रही हैं, उतना ही उनका और उनके आकाओं का अपना देशद्रोही चरित्र सामने आ रहा है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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