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This Article is From Aug 15, 2016

रियो के 'ज़ीरो' में भी सामने आए सबसे बड़े हीरो, जिन्हें भूलना नहीं चाहिए...

Shailesh Chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 15, 2016 14:34 pm IST
    • Published On अगस्त 15, 2016 14:34 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 15, 2016 14:34 pm IST
उफ... काश, अभिनव बिंद्रा का आखिरी शॉट 10 की जगह 10.5 होता. काश, जीतू राय का कोई एक निशाना दो अंक बेहतर होता. 60 में 58 तो सटीक थे, सिर्फ दो ही कमज़ोर थे. उनमें भी सिर्फ एक में दो ज़्यादा अंकों की ज़रूरत थी. काश, पहला सेट जीतने के बाद सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना सिर्फ 10 मिनट और बेहतर खेल लेते. इतना समय वीनस विलियम्स या राजीव राम की सर्विस तोड़ने और अपनी बचाए रखने के लिए काफी था. काश, भारतीय हॉकी टीम कनाडा के खिलाफ इतना खराब नहीं खेली होती. वह मैच जीतते, तो स्पेन के खिलाफ मुकाबला होता, जिसमें खेल बराबरी का हो सकता था. अतानु दास का एक शॉट परफेक्ट टेन के मिलीमीटर के बराबर करीब था, जिसे नौ अंक माना गया. वह 10 अंक का होता, तो शायद वह मेडल राउंड खेल रहे होते.

दरअसल, रियो 'उह, आह, आउच' और 'काश' का ओलिंपिक है. इन सबके बाद अंतिम नतीजा कुछ यूं है कि हम आज़ादी के दिन ज़ीरो पर खड़े हैं. बड़ा-सा, चुभता हुआ ज़ीरो. कोई सोशल मीडिया पर मजाक करता है कि इस ज़ीरो के आविष्कारक हम ही हैं. वह भी चुभता है. लेकिन इस उह, आह, आउच, काश, चुभन, अफसोस, नाराज़गी के बीच कुछ नाम ऐसे हैं, जिन पर गर्व होता है. जो वाकई, इस ओलिंपिक के हीरो हैं. जिन्हें देखकर लगता है कि पदक जीतना सबसे बड़ी बात है, लेकिन कई मामलों में बिना पदक जीते भी आप बहुत बड़ा काम कर सकते हैं. जो हीरो हैं, उनमें एक नाम ललिता बाबर का है, जो 3,000 मीटर स्टीपलचेज़ के फाइनल में पहुंचीं. 1984 में पीटी उषा के बाद ट्रैक इवेंट पर ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय एथलीट बनीं.

इसके बाद बारी डी कंपनी की है. डी कंपनी और डी गैंग तो बहुत सुना होगा, लेकिन अब 'डी' या 'द' से दिल जीतने वाले दिखाई दिए रियो में. दीपा कर्मकार... ऐसा नाम, जिसके बारे में खेल से बाहर के लोगों ने कुछ समय पहले सुना भी नहीं होगा. सामान्य-सी कद-काठी की वह लड़की. आपको अगर कहीं बाजार में दिख जाए, तो ऐसा कतई महसूस नहीं होगा कि इसमें कुछ स्पेशल भी हो सकता है. दूसरा, दत्तू भोकानल. छह फुट तीन इंच के दत्तू की कदकाठी किसी भी और 'फौजी' जैसी होने के अलावा और कुछ खास अहसास नहीं दिलाएगी. ये दोनों भी ऐसे हीरो हैं, जिनके साथ उह या आह जुड़ा है. लेकिन अभिनव बिंद्रा हों, जीतू राय, सानिया मिर्जा या रोहन बोपन्ना... इनके लिए पहचान का संकट नहीं है. अभिनव ओलिंपिक गोल्ड जीत चुके हैं. जीतू राय ओलिंपिक के अलावा हर जगह मेडल जीत चुके हैं. यही बात सानिया मिर्जा के लिए भी कही जा सकती है. ये सब हाई प्रोफाइल गेम से जुड़े हुए हैं. लेकिन दीपा कर्मकार के लिए चुनौती अलग थी. उनके शब्दों में उन्हें लोगों को बताना था कि वह सर्कस में काम करने वाली नहीं, खिलाड़ी हैं, इसलिए उनका प्रदर्शन उह, आह और काश से कहीं आगे जाता है.

ज़रा सोचिए. भारत जैसे देश में महिला, वह भी उत्तर-पूर्वी राज्य से, उसमें भी त्रिपुरा से, उसमें भी जिमनास्टिक्स. ये सारे कॉम्बिनेशन मिलाएं. महिलाओं को देश के ज़्यादातर हिस्से में दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता है. उत्तर-पूर्वी राज्यों के मुकाबले हाशिये पर शायद ही कोई हो. फिर जिमनास्टिक्स, जिसके नियम सड़क पर 100 लोगों से पूछेंगे, तो शायद कोई एक बता सके. उस खेल के लिए 14 अगस्त की आधी रात को मानो पूरा देश जगा हुआ था. आधी रात को, जब भारत आज़ादी वाले दिन में कदम रख रहा था, सोशल मीडिया दीपा के तारीफों के पुल बांध रहा था. वह चौथे नंबर पर आई थीं. ऐसे खेल में, जिसका कभी कोई अस्तित्व नहीं माना गया.

सही है कि त्रिपुरा ऐसा राज्य है, जहां जिमनास्टिक्स का कल्चर रहा है. चाहे वह मंटू देबनाथ हों, कल्पना देबनाथ या मनिका देबनाथ. ये सब '70-80 के दशक में चमके थे. ओलिंपिक्स के स्तर तक नहीं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया. उस खेल को जीवन देने का काम दीपा ने किया है. वॉल्ट ईवेंट के स्कोर देखें, तो समझ आएगा कि दीपा दूसरे नंबर पर भी आ सकती थीं. अंतर बहुत ज्यादा नहीं था. इवेंट के बाद उनका ट्वीट था. कोशिश पूरी की, लेकिन कामयाब नहीं हो सकी. हो सके तो माफ कर देना. दीपा, ओलिंपिक कोशिशों का ही नाम है. कोशिशों की ही कामयाबी है. माफी उन्हें मांगनी चाहिए, जिनके लिए खिलाड़ी की हर मांग भीख जैसी होती है. आपको नहीं, आप तो चैम्पियन हैं.

इसी तरह की कहानी दत्तू भोकानल की है. ट्विटर पर इस नाम का एक अकाउंट दिखता जरूर है. लेकिन उससे कभी कोई ट्वीट नहीं किया गया है. ट्वीट से ज्यादा दत्तू को फिक्र होगी कि उनकी मां कैसी हैं. वह जब रियो गए थे, तो मां कोमा में थीं. वह अपने बेटे को पहचानने की हालत में नहीं थीं. दत्तू इस उम्मीद से गए थे कि मां के लिए रियो से मेडल का तोहफा लाएंगे. मेडल तो नहीं है, लेकिन वह गर्व के साथ लौटेंगे. अगर आप दत्तू का प्रदर्शन देखेंगे, तो पाएंगे कि वह 13वें नंबर पर रहे. रोइंग में उनके इवेंट का नाम हैं सिंगल स्कल्स. उनके प्रदर्शन का अंदाजा लगाने से पहले खुद से पूछिएगा कि सिंगल स्कल्स क्या होता है. और क्या आपने कभी ये ईवेंट देखा है...? ज़्यादातर लोगों का जवाब होगा, नहीं देखा. इसलिए नहीं देखा, क्योंकि पूरे देश में दो-तीन जगहों को छोड़ दिया जाए, तो रोइंग की साधारण सुविधा तक उपलब्ध नहीं है.

खेल की कहानी के बाद दत्तू की दास्तां. यह पिछले दिनों में ज़्यादातर लोगों ने सुनी होगी. महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाके से हैं दत्तू. रोइंग से पहले एक साथ इतना पानी शायद ही कभी देखा होगा. पिता कुआं खोदते थे. मौत हो गई. मां बीमार रहती हैं. घर चला सकें, इसलिए आर्मी जॉइन की थी. पानी से डरने वाले दत्तू ने बमुश्किल रोइंग शुरू की. आज वह देश के सबसे कामयाब रोअर हैं. अपने हीरो स्वरण सिंह से भी ज्यादा कामयाब. कामयाबी का अंदाज़ा आप इससे लगाएं कि हर रेस में उन्होंने पिछली से बेहतर समय निकाला. रोइंग में ए और बी ग्रुप की रेस पदक के लिए होती है. सी और डी ग्रुप की रेस क्लासिफिकेशन के लिए. दत्तू सी ग्रुप में थे, जहां उन्होंने टॉप किया. लेकिन उस आखिरी रेस का टाइम देखें, तो वह ओवरऑल टॉप 10 में आते हैं. ऐसे मुल्क में, जहां इस खेल की सुविधाएं नहीं हैं. ऐसा शख्स, जिसे पानी से डर लगता था. वह आज दुनिया के टॉप 10 में है. इससे बड़ी कामयाबी क्या हो सकती है.

दीपा उत्तर-पूर्व से आती हैं, तो दत्तू पश्चिमी भारत से. दोनों ऐसे खेल से हैं, जिसकी पहचान आम लोगों में नहीं रही है. ...और अगर हालात पहले जैसे ही रहे, तो ओलिंपिक के बाद हम फिर भूल जाएंगे कि इन खेलों का भी अस्तित्व है. पहले भूलते ही रहे हैं. लेकिन दत्तू और दीपा ने जो किया है, वह कभी नहीं भूला जाना चाहिए. गले में पदक भले ही न हो. लेकिन उन्होंने जो किया, वह कई मायनों में पदक जीतने से भी बड़ा काम है. उनकी कामयाबी की नींव पर इन खेलों में बुलंद इमारत बनाई जा सकती है. रियो के ज़ीरो में जो सबसे बड़े हीरो हैं, वह वाकई ये दोनों हैं.

शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं...

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