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This Article is From Jul 18, 2016

क्यों रियो में नाकामी और कामयाबी के बीच का फर्क होंगे सरदार...

Shailesh Chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 18, 2016 21:20 pm IST
    • Published On जुलाई 18, 2016 17:18 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 18, 2016 21:20 pm IST
दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में जूनियर टीम का कैंप था। 2004-05 की बात है। एक दुबला-पतला खिलाड़ी चुपचाप कोने में खड़ा था। सिर पर छोटा सा पटका। कोच हरेंद्र सिंह थे। उनसे अपनी जानकारी के लिए पूछा कि आपको क्या लगता है, कौन-से वर्ल्ड क्लास खिलाड़ी हैं। उन्होंने तीन-चार नाम लिए थे। एक नाम था सरदारा। सरदार सिंह को इसी नाम से जानते हैं। उन्होंने कहा था, ‘आप देखिएगा, फोकस सही रहा, तो दुनिया का बेस्ट खिलाड़ी बन सकता है।’

तब पहली बार खामोश, अकेले, अलग-थलग इस खिलाड़ी से बात की, जिसने बताया कि अगर कुछ दिन और टीम में नहीं आता, तो शायद कनाडा चला जाता, ‘हां जी पा जी, मैंने तो मन बना लिया था। मैं तो हॉकी छोड़ने वाला था।' उस समय भी उसे खेलने के लिए मानसिक तौर पर तैयार करना पड़ा था। हरेंद्र कहते हैं, ‘वह बहुत डरा हुआ था। बाहर खेलना नहीं चाहता था। मैंने ग्राउंड पर बात की। फिर उसे रूम में बिठाकर बात की कि तू बेस्ट है, तुझे किसी से डरने की जरूरत नहीं। लोग तुझसे डरेंगे।’ लोग डरे। पूरी दुनिया ने माना कि वह बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक हैं। फॉरवर्ड के तौर पर शुरू करने के बाद वह मिडफील्ड में खेलने लगे। यहां भी वह बेस्ट साबित हुए। उनके पास गेंद जाती, तो भरोसा बढ़ता कि अब सुरक्षित हाथों में है। लेकिन ओलिंपिक से चंद रोज पहले भी क्या वह ऐसा ही भरोसा दे पा रहे हैं?

रियो ओलिंपिक के लिए टीम की घोषणा के कुछ समय बाद अकेले, अलग, चुपचाप खड़े सरदार को देखकर नेशनल स्टेडियम का वह दिन याद आ गया। हरेंद्र सिंह की वह बात भी कि फोकस सही रहा, तो दुनिया का बेस्ट खिलाड़ी बन सकता है। क्या अभी उनका फोकस सही है? क्या 12 साल पहले की तरह कोई एक डर सरदार के मन में है, जिसे निकाले जाने की जरूरत है? क्या वह कप्तानी से हटाए जाने को लेकर निराश हैं? समारोह के बाद चुपचाप खड़े सरदार से सवाल पूछा भी। उन्होंने जवाब भी दिया। सरदार का हर जवाब हां जी पा जी के साथ शुरू होता है। उन्होंने कहा, ‘हां जी, पा जी... हम बड़ी मेहनत कर रहे हैं। मैं पूरी तरह तैयार हूं। मैं बाहर की किसी बात को दिमाग पर नहीं आने दूंगा।’

हम सब जानते हैं, पिछले कुछ समय से सरदार सिंह व्यक्तिगत जिंदगी में मुश्किलों से जूझ रहे हैं। एक ब्रिटिश महिला हॉकी खिलाड़ी ने उन पर आरोप लगाए हैं। दिमाग में तमाम मुश्किलों के साथ कप्तानी करना आसान नहीं, उन्हें कप्तानी से मुक्त करने की एक वजह यह है। परेशानियां बढ़ने की एक वजह यह भी है कि कुछ लोग महिला के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगा रहे हैं। निशाने पर सरदार के बजाय उनके राजनीतिक विरोधी हैं। निशाना साध रहे कुछ लोग खिलाड़ी हैं और देश के लिए खेल चुके हैं, उसके बावजूद ओलिंपिक में सरदार जैसे खिलाड़ी को मानसिक तौर पर कमजोर कर रहे हैं। इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली है। सरदार को मैदान पर सबसे शांत खिलाड़ी के तौर पर माना जाता है। पिछले दिनों उन्होंने जिस तरह टैकलिंग में येलो कार्ड पाया, उससे समझ आता है कि मानसिक तौर पर वह शांत नहीं हैं।

सरदारा से पहली पहचान 2003-04 की है। राजिंदर सिंह सीनियर भारतीय हॉकी टीम के कोच थे। दीदार सिंह टीम के खिलाड़ी थे। दीदार के छोटे भाई को खेलते देखा गया। खेल प्रभावित करने वाला था। राजिंदर से पूछा गया कि इस लड़के के बारे में क्या कहेंगे। राजिंदर ने ठेठ पंजाबी में जवाब दिया, ‘लवेरा है।’ इसका मतलब था कि अभी बच्चा है।

उस बच्चे यानी सरदार ने सीनियर टीम में खेलना शुरू किया था, तो पाकिस्तान के एक बड़े खिलाड़ी ने उन्हें पहली बार देखा। उन्होंने कमेंट किया था, ‘ये खिलाड़ी तो शाहबाज की तरह डॉज मारता है। बॉडी स्वर्व भी वैसा ही है।’ इस दौर के किसी भी खिलाड़ी के लिए इससे बड़ा कुछ नहीं हो सकता कि उनकी तुलना महान शाहबाज अहमद से की जाए।

सरदार ऐसे खिलाड़ी रहे हैं कि दूसरी टीम अपने कम से कम दो खिलाड़ी उन्हें चेक करने के लगाती है, जिससे मैदान पर बाकी खिलाड़ियों के लिए ‘स्पेस’ बनता है। लेकिन उनके खेल में गिरावट आई है। यकीनन इसकी वजह मैदान से बाहर की घटनाएं हैं। हम पहले भी किसी खिलाड़ी की नाराजगी, भटकाव, मानसिकता का खामियाजा ओलिंपिक में भुगत चुके हैं। इस बार ऐसा नहीं होना चाहिए।

1988 के ओलिंपिक में मोहम्मद शाहिद और कोच एमपी गणेश के बीच दरार हर किसी को पता है। शाहिद को गणेश ने कप्तान नहीं बनने दिया। ब्रिटेन के खिलाफ आखिरी लीग मैच में गणेश ने शाहिद को पहले हाफ में खिलाया ही नहीं। 1992 में उत्तर बनाम दक्षिण का विवाद था। विवाद के केंद्र में परगट सिंह थे। परगट से विवाद 1996 में भी था। जगबीर सिंह जैसे खिलाड़ी उनसे नाराज थे।

2004 में अचानक लाए गए कोच गेरहार्ड राख और धनराज पिल्लै के बीच टकराव था, जिसका नतीजा हम सभी को पता है। 2012 में कप्तान भरत छेत्री सबसे भटके हुए खिलाड़ी थे। कोच माइकल नॉब्स की रिपोर्ट के मुताबिक उनका ध्यान ओलिंपिक में नहीं, शादी की शॉपिंग में था। उस समय कुछ और खिलाड़ियों के व्यवहार पर नाराजगी थी। 2012 के अलावा ज्यादातर बार हम करीबी अंतर से सेमीफाइनल खेलना चूके।

हम जानते हैं कि अच्छे नतीजे के लिए हर किसी का अच्छा.. और कुछेक का बहुत अच्छा होना जरूरी है। लेकिन खराब नतीजा किसी एक के खराब होने से भी आ सकता है, इसलिए सरदार सिंह टीम की सबसे अहम कड़ी हैं। उनका खुश होना, उनका मानसिक रूप से तैयार होना टीम की कामयाबी और नाकामयाबी के बीच का फर्क हो सकता है। अच्छी बात है कि पीआर श्रीजेश कप्तान हैं। श्रीजेश से टीम के किसी सदस्य को कोई नाराजगी नहीं है। कोच रोलंट ओल्टमंस को अपना रोल अच्छी तरह मालूम है।

यहां तक कि पीआर श्रीजेश भी मैदान पर कप्तानी नहीं करेंगे। टीम की किसी बड़ी गलती पर कप्तान को सजा मिलती है। एक ही गोलकीपर होने के नाते कोई टीम नहीं चाहेगी कि किसी खिलाड़ी की गलती पर कप्तान को सजा मिले और उसे मैदान से बाहर कर दिया जाए। ऐसे में मैदान पर कप्तानी के लिए चार खिलाड़ी चुने गए हैं। वे सभी श्रीजेश और सरदार से जूनियर हैं। जाहिर है, कैप्टेंसी बैज किसी के भी हाथ में हो। इन दोनों की बातों की सबसे ज्यादा अहमियत होगी।

इन सारी बातों को बेहतर तरीके से सरदार के दिमाग में भरने की जरूरत है। सरदार के दिमाग में यह बात भी होनी चाहिए कि उनके हीरो धनराज पिल्लै भी कभी ओलिंपिक में कप्तान नहीं रहे। न ही, मोहम्मद शाहिद ने कप्तानी की। तीन ओलिंपिक में सिर्फ एक बार मेजर ध्यानचंद कप्तान थे। हरबिंदर सिंह और ध्यानचंद के सुपुत्र अशोक कुमार भी ओलिंपिक में कप्तान नहीं थे। भारतीय हॉकी के साथ कुछ साल पहले जुड़े हॉकी दिग्गज रिक चार्ल्सवर्थ कहते हैं कि इस देश की समस्या है कि यहां कप्तानी को बहुत अहमियत दी जाती है। इसकी वजह क्रिकेट है।

हो सकता है कि सरदार फॉरवर्ड की तरह खेलें। इसी पोजिशन से उन्होंने करियर शुरू किया था। उनके पास गोल करने के मौके होंगे। सबसे ज्यादा लाइमलाइट में गोल स्कोरर ही होता है। ये सब बातें उन्हें प्रेरित करने के काम आ सकती हैं, लेकिन उन्हें उस अकेलेपन से निकालने की जरूरत है, जो टीम घोषणा के वक्त दिखा था। आज भी उनसे सवाल पूछा जाए, तो वो यही कहेंगे, ‘हां जी पा जी, मैं तो हंड्रेड परसेंट से ज्यादा देने की कोशिश करूंगा।’ लेकिन खेल को समझने वाले जानते हैं कि हंड्रेड परसेंट देने के लिए मानसिक तौर पर शांत होना, तैयार होना जरूरी है। सरदार कुछ भी हों, कम से कम मानसिक तौर पर शांत तो नहीं ही हैं...

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)

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