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This Article is From May 11, 2016

खुद से पूछिए ये सवाल, रियो ओलिंपिक में कितने पदक आने चाहिए..

Shailesh chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 11, 2016 18:39 pm IST
    • Published On मई 11, 2016 14:28 pm IST
    • Last Updated On मई 11, 2016 18:39 pm IST
तीन महीने भी नहीं रह गए। फोकस पूरी तरह रियो ओलिंपिक पर है। ओलिंपिक्स में इस बार कितने पदक आएंगे। क्या पिछली बार से ज्यादा होंगे? तैयारियां जोर-शोर से जारी हैं। क्वालिफाइंग इवेंट की गहमा-गहमी है। और इसके साथ ही यह सवाल भी, क्या पिछली बार से ज्यादा पदक आएंगे? लगातार दो ओलिंपिक में पदक जीतने वाले सुशील कुमार को रियो का टिकट मिलेगा या नरसिंह यादव को? इनके बीच चल रही जुबानी जंग किस स्तर पर जाएगी? अभिनव बिंद्रा 2008 का गोल्डन प्रदर्शन दोहरा पाएंगे? सारे सवाल हैं।

इन सारे सवालों के बीच एक दोस्त का फोन दिमाग को रियो ओलिंपिक के सवालों से दिल्ली आने पर मजबूर करता है। फोन पर बातचीत के बीच दोस्त के अंदर का पिता जागता है, ‘यार क्या करूं, बेटी को इंडिया खिलाना है। लेकिन अब समझ आ रहा है कि कितना मुश्किल है और क्यों लोग अपने बच्चों को खेलों में नहीं डालना चाहते।’क्या वाकई यह बड़ा मुश्किल है। हम तो हर रोज पढ़ रहे हैं कि रियो जाने वाले खिलाड़ी को जेबखर्च के तौर पर एक लाख रुपये महीना मिलेगा। उससे पहले, क्वालिफाई करने वाले को टॉप्स स्कीम के तहत 30 लाख रुपये मिल ही रहे हैं। लेकिन ध्यान रखिए, ये सारी घोषणाएं तब हैं, जब आपने खुद को दुनिया के उन खिलाड़ियों में शामिल करा लिया है, जो ओलिंपिक्स का हिस्सा होंगे। उससे पहले क्या?

खिलाड़ी बनाने के लिए खर्च
चलिए, हकीकत की दुनिया में एक चक्कर मार आते हैं। दोस्त की बेटी का गेम ही उदाहरण के तौर पर ले लेते हैं। टेबल टेनिस की बात है। एक खर्च का अंदाजा लगा लेते हैं। मान लेते हैं कि बच्चा राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया है। सबसे पहले उसे एक अच्छा कोच चाहिए। अगर आप भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साई की स्कीम में नहीं ट्रेनिंग लेते, तो एक अच्छा कोच चाहिए।
अच्छी कोचिंग के लिए खर्च : करीब 15-20 हजार रुपये प्रति माह
टेबल टेनिस का रैकेट : 6-7 हजार रुपये से लेकर 15-16 हजार रुपये
मान लीजिए कि रैकेट औसतन तीन-चार महीने चलता है। इस लिहाज से महीने के खर्च का अंदाजा लगा लीजिए।  
रैकेट में रबर होती है, जिसे बदलना पड़ता है। निर्भर करता है कि खिलाड़ी कितनी प्रैक्टिस करता है। मान लेते हैं कि महीने में बदलना पड़ता है।
रबर की कीमत : एक से दो हजार रुपये प्रति माह
टेबल टेनिस की गेंद : 100 रुपये प्रति गेंद, महीने का खर्च करीब दो हजार रुपये
अच्छे जूते : 4-5 से लेकर 6-7 हजार तक (साल में दो बार)

हर टूर्नामेंट की एंट्री फीस भी
इसके अलावा हर टूर्नामेंट की एंट्री फीस होती है। टूर्नामेंट में हिस्सा लेना खिलाड़ी की जिम्मेदारी है। अगर आप अपने बच्चे को फ्लाइट से भेजना चाहते हैं और अच्छे होटल में रखना चाहते हैं, तो कोच सहित दो लोगों का खर्च समझ सकते हैं। एक टूर्नामेंट का मतलब 50 हजार रुपये के आसपास होता है। साल में पांच जोनल टूर्नामेंट होते हैं। जोनल टूर्नामेंट जीतने पर खिलाड़ी को तकरीबन 20 हजार रुपये का इनाम मिलता है। अब यह भी ध्यान रखिए कि अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा दुनिया की बेस्ट ट्रेनिंग पाए, तो उसे कुछ समय के लिए बाहर भी भेजना होगा। उसके खर्च का अंदाजा लगा लीजिए। ...और एक चीज तो भूल ही गए। अच्छा खाना। खिलाड़ी के लिए सबसे जरूरी चीज। उसका अपना खर्चा है।

यह शुरुआती स्तर की कहानी है। एक मध्य वर्गीय परिवार अपने बच्चे को बेहतरीन सुविधाएं देना चाहे, तो समझ सकते हैं कि जरूरतें क्या हैं। शुरुआती स्तर पर मदद नहीं होती। एक समय होता था, जब अखबारों में बच्चों के टूर्नामेंट की खबरें छपा करती थीं। उसकी कटिंग के साथ मां-बाप स्पॉन्सर के पास जाते थे। ऐसा अब लगभग बंद है। बड़े अखबारों में एनबीए से लेकर ईपीएल तक सबके लिए जगह होती है, बच्चों या भारतीय खेलों के लिए नहीं।

भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साई का सहारा
घूम-फिरकर साई ही एक सहारा है। यहां ट्रेनिंग सस्ती हो जाती है। लेकिन कुछ समय पहले साई के महानिदेशक का बयान याद कीजिए, जहां उन्होंने कहा था कि हमारे कोच स्तरीय नहीं हैं और मेहनत नहीं करना चाहते। हालांकि साई में तमाम बेहतरीन कोच हैं। लेकिन कुल मिलाकर बड़े तबके के बारे में महानिदेशक का आकलन गलत नहीं था। इसके अंदाजा एक किस्से से लगाया जा सकता है। हॉकी टीम के साथ जब स्पेन के कोच जोस ब्रासा जुड़े, तो उन्होंने पाया कि ज्यादातर खिलाड़ियों की ग्रिप गलत है। उन्होंने कहा कि अगर नेशनल कोच को ग्रिप बदलवानी पड़े, तो समझ सकते हैं कि इस देश में खेल पर कितना काम करने की जरूरत है। ग्रिप तय करना सीखने की पहली सीढ़ी होती है, जो हॉकी की सीनियर राष्ट्रीय टीम सीख रही थी। इसीलिए लोग कम से कम व्यक्तिगत खेल में प्राइवेट कोचिंग को प्राथमिकता देते हैं। साई ट्रेनिंग सेंटर में रहने वाले छात्रों को प्रतिदिन 175 रुपये मिलते हैं। कॉम्पटीशन, किट, पढ़ाई, मेडिकल, इंश्योरेंस वगैरह के लिए 12 हजार रुपये साल यानी हजार रुपये महीना मिलता है। अगर आप साई सेंटर में नहीं रहते, तो किट के चार हजार, कॉम्पटीशन के तीन हजार और स्टाइपेंड छह हजार रुपये प्रति वर्ष मिलता है। यानी दोनों मामलों में करीब हजार रुपये महीना। हमने एक परिवार के जिस खर्च का जिक्र किया, उससे जरा तुलना करके देख लीजिए।

व्यक्तिगत स्पर्धा में भारत के लिए एकमात्र स्वर्ण जीतने वाले अभिनव बिंद्रा के बारे में लोगों को पता है कि उन्होंने घर में ही शूटिंग रेंज बनाया था। सोच सकते हैं कि कितने लोग ऐसा कर सकते हैं। अब भी बिंद्रा ने अपने घर में रेंज को ठीक वैसा रूप दिया है जैसा रियो में मिलने वाला है। महज इसलिए कि वो अपने आप को उस माहौल में ढाल सकें। ऐसा कितने लोग कर पाएंगे।

इस 'मदद' से कितनी मदद
यह सवाल उठता है कि जिम्नास्टिक्स में ओलिंपिक का टिकट पाने के बाद जब दीपा कर्माकर को 30 लाख रुपये मिले होंगे, तो अगले दो महीने में क्या वाकई उन्हें इसका बड़ा फायदा मिल पाएगा। याद कीजिए, 2014 में बजट आया था। जुलाई के दूसरे सप्ताह की बात है। उस बजट में हजार करोड़ रुपये एशियाड की तैयारियों के लिए रखे गए थे। एशियाड सितंबर में होने थे। यानी करीब सवा महीने बाद। समझा जा सकता है कि उस रकम की कितनी अहमियत बची होगी।

अब इस सवाल का जवाब दीजिए कि क्या वाकई हम अपने बच्चों को ओलिंपिक्स की तैयारी का माहौल देते हैं? क्या हम तब उसकी मदद करते हैं, जब वो कुछ नहीं होता। जब बच्चा कामयाब हो जाएगा, तब तो उसको मदद करने वाले आ ही जाएंगे। वो लाइमलाइट में भी आ जाएगा। लेकिन जब तक वो कुछ नहीं है, तब उसके साथ कोई होता है?  अगर नहीं, तो क्या यही वो सिस्टम है, जिसके साथ आप किसी देश के स्पोर्टिंग पावर होने की उम्मीद करें? इस सवाल का जवाब मिल जाए, तो फिर अपने दिमाग को रियो की तरफ ले जाइएगा और पूछिएगा कि क्या पिछली बार से ज्यादा पदक इस बार आएंगे? यकीनन आ सकते हैं। लेकिन क्या इसके लिए हमने माहौल दिया है..?

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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