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This Article is From Dec 26, 2016

'दंगल' का बापू हानिकारक नहीं, क्रांतिकारक है !

Sarvapriya Sangwan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 26, 2016 18:03 pm IST
    • Published On दिसंबर 26, 2016 16:25 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 26, 2016 18:03 pm IST
दावे से तो नहीं कह सकती लेकिन मैंने कभी किसी लड़के या लड़की को ये कहते हुए नहीं सुना कि उसकी अपनी मां से नहीं बनती या कोई वैचारिक मतभेद हैं. हमेशा पिता ही इस ईगो की लड़ाई में एक पार्टी होता है. इतिहास ने भी बाप-बेटे में लड़ाइयां देखी हैं. समाज भी देखता आ रहा है. हक़, इज़्ज़त और 'मैं' के ये भाव पिता में ही ज़्यादा देखे जाते हैं. पितृसत्ता की एक शाखा यह भी मानी जा सकती है.

फ़िल्म 'दंगल' का महावीर फोगाट शायद उसी 'ईगो' और सख्ती से काम लेता है जैसा आमतौर पर हर पिता. लेकिन फिर भी इस आम व्यक्ति में हम सबका हीरो होने के लिए गुंजाइश बनी रहती है. क्योंकि हम उसमें वह देख पा रहे हैं जो शायद हम अपने पिताओं में देखना चाहते थे. क्रांति भी तो सापेक्ष (रिलेटिव) है और नज़रिये से मुक्त नहीं है. इस पिता को देखने के दो नज़रिये बिल्कुल हो सकते हैं. हम सब इस फ़िल्म को एक बच्चे के नज़रिये से नहीं देख पाये. गौर से देखते तो पाते कि एक आम इंसान जितनी कमज़ोरियां और कमियां इस पिता में भी मौजूद हैं.

हमें ना पिता की कमज़ोरियां नज़र आयीं और ना उनका घमंड. इस नज़रिये के लिए स्कोप भी कम ही रखा गया था. हम सबने इस पिता को ही हीरो माना क्योंकि हम अपने पिता में उस क्रांति के लिए हिम्मत और सहयोग देखना चाहते हैं जो महावीर फोगाट ने अपनी बेटियों के लिए दिखाया. ऐसी जगह पहली बार ऐसा कदम उठाया जहां की लड़कियों के लिए घर से बाहर पहला कदम ससुराल के लिए तय होता है. हो सकता है कि आज लड़कियां कामयाब हो गयी तो इसलिए हम सब उनके पिता की तारीफ़ कर रहे हैं लेकिन कामयाब ना भी होतीं तो क्या योगदान कम होता? बात यहां सिर्फ पिता और उसकी बेटियों तक सीमित नहीं रह जाती, सिर्फ पिता के सपनों तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि समाज में एक विमर्श और साहस को जन्म देती है.
 
aamir

जब 2016 ओलिंपिक्स चल रहे थे और बबीता कुमारी का मैच कुछ घंटे बाद होने वाला था. तब लिखा था कि एक पिता की हिम्मत कितनी बेटियों की राह आसान कर देती है. ओलिंपिक्स शुरू होने से पहले पापा ने यूं ही एक दिन महावीर फोगाट का ज़िक्र छेड़ा और मुझसे कहा कि 'देखो, वो पहलवान महावीर फोगाट पर फिल्म बन रही है और इस फ़िल्म में आमिर खान है.' फिर मां की ओर देख कर कहा कि 'सोचो, जब उसने उस ज़माने में अपनी सभी बेटियों को पहलवान बनाने का सोचा होगा, तब गांव वालों ने क्या-क्या नहीं कहा होगा उसे. कोई ताने के लहज़े में कहता होगा कि 'हाँ, यो बनावेगा छोरियां ने पहलवान!' किसी रिश्तेदार ने ज़रूर सलाह दी होगी कि इनकी शादी होनी मुश्किल हो जाएगी. लेकिन फिर भी उसने सुनी नहीं और सभी बेटियों को पहलवानी में उतारा. आज देखो, बेटियां मैडल जीत रही हैं, लोग फिल्म बना रहे हैं.'

पूरी फ़िल्म और पापा की बातों में काफी समानता थी. शायद उनका हरियाणवी होना इसकी वजह हो. उस वक़्त तो मैं पापा से इतना ही कह पायी कि जो पहली बार हिम्मत करता है, ऐसी सफलता का वह ही हक़दार है. क्रांति के 'रिस्क' उसके सिर, तो सफलता का सेहरा भी उसी के सिर. दूसरे की सफलता को देख कर नक़ल करने वाले और ज़माने को देख कर चलने वाले तो देश में 90 फीसदी हैं ही. इस नक़ल के चक्कर में ज़बरदस्ती अपने बच्चों में वो क्षमता ढूंढने लगते हैं जो उनमें होती ही नहीं. दूसरे की सफलता को देख अपना सपना बुन लेते हैं और उसे बच्चों पर लादने लगते हैं. वो पहला कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते. लड़कियों में तो किसी क्षमता को देखना चाहते भी नहीं. क्योंकि उस क्षमता को कामयाबी बनाने की कीमत उन्हें ज़्यादा लगती है. इस बातचीत के बाद मन ही मन मैं भी सोचने लगी कि क्या मेरे पिता मुझे पहली महिला पत्रकार या महिला डॉक्टर होने देते?
 
geeta phogat

ये बताना कई बार बहुत ज़रूरी हो जाता है कि जो लड़कियां सफल हो रही हैं, वो आखिर किस क्षेत्र और पृष्ठभूमि की हैं. पापा की बात से मुझे यह तो एहसास हो गया कि सफलता ज़रूरी है और खासकर लड़कियों की सफलता को जब दिल से सराहते हैं तो कितने ही पिताओं पर उसका असर होता है. फ़िल्म के आखिर में भी यही संदेश आमिर खान महावीर के मार्फ़त हमें दे रहे हैं. दंगल फ़िल्म के ज़रिये महावीर फोगाट के बारे में आज बहुत से लोग जान रहे हैं. उससे पहले हरियाणा के काफी लोग उन्हें उनकी बेटियों की सफलता की वजह से जान रहे थे.

बहुत सी कामयाब लड़कियां दुनिया के सामने 'बोल्ड' होकर खड़ी हैं लेकिन ये वो ही जानती हैं कि कितनी लड़ाइयां उन्हें अपने घर में अकेले ही लड़नी पड़ीं. शायद आज भी लड़ ही रही हैं. कामयाबी के बाद मां-बाप को गले लगाते तो देखा है लेकिन कामयाबी से पहले दुनिया के सामने हाथ पकड़ कर खड़े होने वाले पिता कम ही देखे. महावीर में वो ही पिता हम सब देख पा रहे हैं. ये लड़कियां और उनके पिता ही हैं जो समाज में बदलाव ला रहे हैं, सरकारी योजनाएं और दिल बहलाऊ नारे नहीं. खिलाड़ी कहने को तो देश के लिए लड़ रहे हैं लेकिन ये कहते हुए उनके दिल के किसी कोने से हूक ज़रूर उठती होगी कि देश के लोगों से, देश के समाज से लड़कर ही तो आज देश के लिए मुक़ाबला करने पहुंचे हैं. उनकी मेहनत से मिली कामयाबी को देश की कामयाबी का नाम देकर हम भी थोड़ा गर्व चुरा लेते है. जबकि हम सिर्फ दर्शक होते हैं और दर्शक के रूप में ही अपना रोल समझते हैं, चाहे खेल हो या फ़िल्म हो. समाज में भी दर्शक का ही रोल निभाकर खुश हैं.

फ़िल्म हरियाणा की पृष्ठभूमि पर बनी है. हरियाणा का सटीक चित्रण भी है. लेकिन फ़िल्म देख कर हरियाणा पर गर्व नहीं होता. होता है तो महावीर सिंह फोगाट पर और ऐसे विरले पिताओं पर जिन पर फ़िल्म तो नहीं बनी लेकिन कहीं ना कहीं अपनी बेटियों के साथ हम सब बेटियों का 'बोझ' कुछ हल्का कर रहे हैं.

(सर्वप्रिया सांगवान एनडीटीवी में एडिटोरियल प्रोड्यूसर हैं)

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