संजय किशोर की कश्मीर डायरी-1 : कश्मीर और मेरी कशमकश

संजय किशोर की कश्मीर डायरी-1 : कश्मीर और मेरी कशमकश

श्रीनगर की डल झील की फाइल फोटो

नई दिल्ली:

मानवीय रिश्तों में ये रिश्ता खास रहा है। इसमें सब्र है। सहनशीलता है। सहजता है। साथ है। समर्पण और शिकायत भी। समझ और समझौते के बीच 15 साल निकल गए। 15 साल। कुछ पतझड़। तो कुछ बसंत।

जश्न से ज़्यादा ख्वाहिश डेढ़ दशक के इस मील स्तंभ को यादगार बनाने की थी। कई दिन उधेड़बुन में बीत गए। किसी योजना पर जेब भारी पड़ जाए तो किसी पर दूरी। स्कूल में नए सेशन शुरू हो गए थे, लिहाज़ा बच्चों की छुट्टी भी ज़्यादा नहीं करायी जा सकती थी। तभी एक दिन अख़बार में स्पाइस जेट का ऑफ़र आया। टिकट रेल से भी कम कीमत पर मिल रहे थे। काठमांडू या फिर केरल, अंडमान या दीव। तमाम विकल्प तलाशने के बाद, दो छुट्टियां और दो ऑफ़ प्लस सबसे कम कीमत में गणित लगाया तो बराबर आया कश्मीर।

आशंकाएं कई थीं। क्या तब तक स्पाइस जेट कंपनी का वज़ूद बचेगा? दिल को दिलाशा दिया कि कंपनी के पुराने मालिक अजय सिंह ने साल की शुरुआत में ही 550 करोड़ लगाए हैं तो कुछ सोच कर ही लगाया होगा। मई तक अगर वे 1000 करोड़ लगाना चाहते हैं तो ज़रूर कंपनी को पटरी पर लाने की उनकी कोई ठोस योजना होगी। लिहाज़ा ये डर तो ख़ारिज़ हो गया। दूसरी आशंका थी कि क्या कश्मीर जाना चाहिए? घाटी में कब क्या कैसे और क्यों हो जाए कोई नहीं जानता। सिर्फ़ दो दिनों के स्पाइस जेट के ऑफ़र ने ज़्यादा सोचने नहीं दिया। लिहाज़ा क्रेडिट कार्ड स्वाइप हो गया। थोड़ी तसल्ली ये भी थी कि बच्चे अब ये नहीं पूछेंगे कि हम हमेशा ट्रेन से ही सफर क्यों करते हैं।

इस बीच कश्मीर में लगातार बारिश और टेलीविजन चैनल्स पर बाढ़ की तस्वीरें देख कर पैसा डूबता नज़र आया। टिकट 'नॉन-रिफंडेबल' जो थे। ज़्यादातर चैनल्स असलियत का पता किए बगैर पिछली बाढ़ की तस्वीरें दिखाते रहे। इससे भ्रम बढ़ा और कई सैलानियों ने अपनी यात्रा रद्द तक कर दीं। कश्मीर के संवाददाताओं ने जब दबाव बनाया तब पुरानी तस्वीरों को हटाया गया। सब कुछ नकारात्मक था ऐसा नहीं। अख़बारों में गुलमर्ग में हिमपात की ख़बर देखकर उत्साह बढ़ा। मशहूर ट्यूलिप गार्डन खुलने की ख़बर भी अख़बारों में आ चुकी थी। कश्मीर हमें बुला रहा था। वही कश्मीर जिसके बारे में मशहूर पर्सियन कवि फिरदौस ने कभी कहा था-

"गर फ़िरदौस वर-रुए जमी अस्त
हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्तो।"

जाने के पहले होटल बुकिंग भी करानी थी। कई वेब साईट खंगाल डाले। विकी ट्रेवल्स और सीएनएन ट्रेवल्स से कई जानकारियां हासिल हुईं। पता चला कि असली रोमांच बोट हाउस पर रहने में है। एक दोस्त अक्सर रिपोर्टिंग के लिए कश्मीर जाता रहता है। उससे बात हुई तो उसने एक ड्राइवर का नंबर दिया था। आबिद नाम था उसका। आबिद से बात हुई तो उसने कहा, "होटल बुकिंग कराने की ज़रूरत नहीं। अभी टूरिस्ट सीज़न पूरी तरह शुरू नहीं हुआ है। बाढ़ की ख़बर के कारण भी कई बुकिंग्स कैंसिल हुई हैं। आप बस चले आओ। अच्छी डील मिल जाएगी।" सीएनएन ट्रेवल्स की भी ये ही सलाह थी कि वहां जाकर बोट देखने के बाद ही बुकिंग करानी चाहिए। आबिद ने हमें एक-एक स्वेटर रख लेने के लिए कहा था।

इस बीच एयरलाइंस से एक एसएमएस आता है कि फ़्लाइट की टाइमिंग बदल गई है। कृपया फिर से बुकिंग कराएं। एक तरह से ये अच्छा ही हुआ। 'री-शिड्यूलिंग' में जाने की फ़्लाइट सुबह और लौटने की देर शाम की मिली। इससे वहां ज़्यादा समय बिताने का मौक़ा मिल कहा था।

जाने का दिन भी आ गया। एयरपोर्ट पर भी अब बस अड्डे से कम भीड़ नहीं होती। बस फ़र्क होता है, यहां पसीने नहीं छूटते। कुछ ज़्यादा पैसे देकर सीट पहले ही आरक्षित करा रखी थी, लिहाज़ा विंडो सीट के लिए दांत निपोड़ना नहीं पड़ा। इकॉनमी फ़्लाइट में फेरीवाले की तरह जब एयर होस्टेस स्नैक्स बेचती थी तो पहले बड़ी हैरानी होती थी। अब तो ये आम हो गया है। हॉपिंग फ्लाइट थी। जम्मू में प्लेन उतरा तो उड़ने का नाम न ले। उद्घोषणा हुई की मौसम खराब होने के कारण विलंब हो रहा है। ऐसा लगा तो नहीं, लेकिन ऐसे में यकीन के सिवा किया भी क्या जा सकता है। इस बीच आबिद का फ़ोन आ गया। उसने कहा कि श्रीनगर का मौसम तो बिल्कुल ठीक है।

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करीब एक घंटे के विलंब से हम श्रीनगर पहुंचे। है तो नहीं लेकिन श्रीनगर सेना का एयरपोर्ट जान पड़ता है। रनवे से लेकर टर्मिनल तक हर जगह सेना की मौज़ूदगी। हमें पहले ही ताकीद कर दी गयी थी कि यहां फ़ोटो खींचना मना है। सामान पहुंचने में देरी हुई तो आबिद का फ़ोन आ गया। पौन घंटे के बाद आखिरकार सामान आया। हमारे नाम की तख़्ती के साथ कोई नज़र नहीं आया। फ़ोन किया तो आबिद सामने ही खड़ा था। "वॉट्स ऐप" के फ़ोटो से थोड़ा अलग था, इसीलिए पहचान नहीं पाए। अब हम आबिद के हवाले थे। (जारी है...)