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This Article is From Mar 26, 2016

प्राइवेसी और पहचान की बहस का आधार और आशंका

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 26, 2016 13:40 pm IST
    • Published On मार्च 26, 2016 13:23 pm IST
    • Last Updated On मार्च 26, 2016 13:40 pm IST
"पूरा ब्लाक सिखों का था और जब 400-500 सिख इकट्ठे हों तो मजाल है कि कोई बाल भी बांका कर जाए। लेकिन इतने में मोहल्ले के बाहर भीड़ बढ़ने लगी और पत्थरों की बौछारें शुरू हो गईं। पुलिस आई तो लगा कि अब बात बन जाएगी। पुलिस इस हिंसक भीड़ को तो यहां से हटाएगी। लेकिन क्या पता था कि कानून के रखवाले ही जान के दुश्मन बन चुके हैं। अब एसएचओ शूरवीर सिंह त्यागी और चौकी इंजार्ज शर्मा आए और कहने लगे कि आप लोग इकट्ठे मत हो, अपने अपने घरों में चले जाओ। हमने खाकी वर्दी पर भरोसा कर लिया। जैसे ही पुलिस के कहने पर सिख अपने-अपने घरों में गए, वैसे ही पास के चिल्ला गांव से आई इस भीड़ ने फिर हमला बोल दिया। अब तो पुलिस भी उनके साथ थी। इन्होंने घरों के पानी के पाइप तोड़ दिए, बिजली की नंगी तारें करंट फैलाने के लिए घरों के अंदर फेंकनी शुरू कर दीं। अब भीड़ ने भाई समुद्र सिंह को देख लिया और कहने लगे कि इधर आ जाते बाल काट-काट कर छोड़ देंगे। वहशियों ने उसे उठाकर दूसरी तरफ पटका और सरकार समुद्र सिंह को मार डाला।"

"शाम का ही वक्त रहा होगा कि पास रहने वाले नाइयों के घरों से कुछ लोग आए और कहने लगे कि आप डरो मत, घर में ही रहो, हमने घर के बाहर से ताला लगा दिया है। हमें कुछ समझ में नहीं आया। लगाशायद हालात बिगड़ते देख पड़ोसी अपना धर्म निभा रहे हैं। बाहर ताला लगा होगा तो दंगाई यह सोच कर लौट जायेंगे कि अब यहां कोई नहीं रहता। पड़ोसियों ने कितनी समझदारी का काम किया है। लेकिन ज़्यादा देर नहीं हुई थी कि भ्रम टूट गया। यही पड़ोसी अपने साथ भारी भीड़ लेकर आ धमके। अब समझ में आया कि ताला बाहर से इसलिए लगाया था कि कहीं कोई भाग न जाएं।"

ये दोनों प्रसंग जरनैल सिंह की किताब "कब कटेगी चौरासी" से लिए हैं जिसे पेंगुइन ने 2009 में छापा था। पहली घटना दिल्ली के नंदनगरी की है और दूसरी घटना मयूर विहार के पास त्रिलोकपुरी की है। उस वक्त सिख विरोधी नरसंहार का कवरेज न के बराबर हुआ था इसलिए आप यह किताब पढ़ सकते हैं। एक तर्क दिया जाता है कि आज की तरह प्राइवेट न्यूज़ चैनल नहीं थे मगर कई अख़बार तो वही थे जो आज हैं। पर पुलिस, जांच एजेंसी और न्यायपालिका तो वही थी जो आज है। फिर भी किसी साधारण या किसी बड़े को सज़ा नहीं मिली। राजनीति हमें दो चार नेताओं के पीछे घुमाती रही, वो तो बच ही गए उनके नाम पर तमाम तरह की भीड़ में आए आम हत्यारे भी बच गए।

भीड़ कई प्रकार की होती है। हर भीड़ की अपनी अलग पहचान और प्रवृत्ति होती है। भीड़ किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ बन सकती है और किसी समूह के ख़िलाफ़ भी। आप इस भीड़ को जाति, धर्म से लेकर सरकार समर्थक के रूप में चिन्हित कर सकते हैं। कुछ भीड़ अलग-अलग कारणों से मौके पर ही बन जाती है। दुर्घटना या मामूली कहासुनी के वक्त लोग भीड़ में बदल जाते हैं जिसका अंजाम भी पहचान के आधार पर बनी राजनीतिक भीड़ से अलग नहीं होता है। सिख विरोधी नरसंहार में दिल्ली भर में अलग-अलग तरीके की भीड़ बन गई थी। बड़ी संख्या में भीड़ का निर्माण हुआ था। यह पहली भीड़ है जिसकी पहचान सिर्फ पार्टी के लिहाज़ से हुई है। बाकी भीड़ की पहचान हम दलों के हिसाब से भी करते हैं और धर्म जाति के हिसाब से भी। मेरा मकसद इन दंगों और नरसंहारों में लौटना नहीं है बल्कि इसकी पड़ताल करना है कि क्या होगा अगर एक भीड़ को दूसरी भीड़ के बारे में पलक झपकते ही सारी जानकारी मिल जाए। क्या मरने मारने का काम पहले से और आसान हो जाएगा?

गोधरा कांड को लेकर भी पहचान और हिंसा के सवाल को समझ सकते हैं। सबको पता था कि जो साबरमती एक्सप्रेस कारसेवकों को लेकर अयोध्या गई है वही उन्हें लेकर लौट रही है। अगर ये पता होता कि कारसेवक अलग-अलग ट्रेन से लौटेंगे तब भी क्या किसी एक बोगी की पहचान कर जलाना आसान होता? अहमदाबाद के गुलबर्ग सोसायटी और नरोडा पाटिया में दंगाइयों की भीड़ पहुंच गई थी। अगर इन मोहल्लों की पहचान सिर्फ मुस्लिम मोहल्ले के रूप में न होती तो भी जेल की सज़ा काट रहीं पूर्व मंत्री माया कोडनानी जैसों के लिए आसान होता कि इन मोहल्लों पर धावा बोल दें।

यह सही है कि आम जीवन में लोग इन मोहल्लों की पहचान करते हैं। गांव देहात में मिश्रा टोला से लेकर दलित टोला तक की पहचान सबको मालूम होती है। आप अतीत के किसी भी दलित नरसंहार की घटना उठाकर देखिये। जिनकी हत्या हुई है उनके चुनाव में जगह और जाति की पहचान की बड़ी भूमिका रही है। पिछले ही साल पटेल आरक्षण को लेकर अहमदाबाद में पुलिस ने कथित हिंसा के बाद पटेल छात्रों को दौड़ाना शुरू किया। अहमदाबाद में सबको पता है कि बापूनगर के इलाके में कई सोसायटियां ऐसी हैं जिनमें पटेल ही पटेल रहते हैं। उन पटेल लोगों की भी कारें तोड़ दी गईं जिनका इस प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं था। हरियाणा के जाट आरक्षण की मांग को लेकर हुई हिंसा में भी आप पहचान की ये प्रवृत्ति देख सकते हैं।

चंद पल की देरी किसी की जान बचा सकती है तो किसी को मार सकती है। सारा खेल सटीक जानकारी का है। मेरठ दंगों के वक्त सेना हाशिमपुरा इलाके में घुसती है और वहां से चंद लोगों को उठाकर पीएसी के हवाले कर देती है। हाशिमपुरा अंग्रेज़ी के शब्द 'यू' आकार की एक बस्ती है। बहुत आसानी से कोई हाशिमपुरा की गली में प्रवेश कर सकता है और घरों को पहचान कर लोगों को उठा सकता है। हर घर से चुन-चुन कर मुसलमान निकाले जाते हैं। बाद में पता चलता है कि कुछ हिन्दू भी निकाले गए जिनका आज तक पता नहीं चला। खैर अंतिम कहानी ये है कि पुलिस इन्हें अंधेरे में कहीं लेकर जाकर ट्रक से उतारती है और मार देती है। इस मामले में कोई दोषी नहीं साबित होता है। अंतिम अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट में मामला है।

पुलिस तो वही है। कभी मुसलमानों की पहचान कर लेती है तो कभी पटेलों की तो कभी दलितों की। पुलिस का मतलब स्टेट से है। स्टेट का मतलब सत्ता से है। इस स्टेट के दम पर कई सामाजिक समूह दूसरे सामाजिक समूहों का दमन करने लगते हैं। पुलिस उनका साथ देने लगती है। हमारे देश की राजनीति में जाति और धर्म के आधार पर समूहों की निशानदेही कर नौकरी से लेकर राजनीति तक में घेरने और मार देने का ख़तरा अब भी बना हुआ है। आपने इस लेख के सबसे पहले प्रसंग में देखा। चार सौ सिख यह सोचते रहे कि वे काफी बड़ी संख्या में हैं लेकिन उससे भी बड़ी संख्या वाली भीड़ उन्हें घेर लेती है और मार देती है।

अब आते हैं आधार कार्ड कानून के संदर्भ में प्राइवेसी और पहचान की बहस में। अगर यही सब जानकारी कंप्यूटर पर एक सर्च से पल भर में बाहर जाए तो सरकार के लिए कितना आसान होगा किसी के ख़िलाफ़ रणनीति बनाना। इसका इस्तेमाल नरसंहार के लिए हो सकता है तो किसी आंदोलन को कुचलने के लिए भी। हम अक्सर सुनते हैं कि कोई विधायक या सांसद फलां इलाके में इसलिए नहीं जाता क्योंकि वहां उसका वोट नहीं है। ज़ाहिर है हम, हमारे प्रतिनिधि और सरकारें लोगों और इलाके की पहचान के आधार पर अपनी राजनीतिक और हिंसक प्राथमिकता तय करते रहे हैं।

दंगों के वक्त भागलपुर से लेकर गुजरात तक में अनेक किस्से मिलेंगे कि हिन्दू को मुस्लिम ने बचाया और मुस्लिम को हिन्दू ने। इन किस्सों का विवरण देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि लोगों ने अपनी पहचान को लेकर कई तरह के झूठे किस्से गढ़े। क्या आधार कार्ड के बाद इन चंद किस्सों के लिए कोई जगह बचेगी। जो भीड़ आएगी वो आपके घर से लेकर मोहल्ले के बारे में ठीक-ठीक जानती होगी। उसके पास पूछने का कोई कारण ही नहीं होगा कि आप कौन है। वो पहले से जान रही होगी कि आप वही है जिसकी उसे तलाश है। यह सारा काम कितनी तेज़ी से और कितने बड़े पैमाने पर किया जा सकेगा। जब हम 84 के नरसंहार से नहीं सीखे तो 2002 के दंगों से सीख जायेंगे, इसका क्या ठोस प्रमाण है।

प्राइम टाइम में आधार कार्ड और प्राइवेसी को लेकर दो बार चर्चा करने के बाद मैं इस अफसोस से भर गया कि आखिर जब प्राइवेसी को लेकर ख़तरा बताया जा रहा है तो वक्ता क्यों नहीं ठीक से समझा पा रहे हैं और लोगों तक यह बात क्यों नहीं पहुंच पा रही है। एक वक्ता ने कह दिया कि स्मार्ट फोन के ट्रैकर से पता ही होता कि आप कब और कहां से गुज़र रहे हैं। फेसबुक से लेकर ट्वीटर तक में लोकेशन आ जाती है। मुझे भी लगा कि सही बात है। जब सब पता ही है तो आधार से पता चल जाएगा तो क्या ख़तरा हो जाएगा। फिर भी मेरे सवाल कहीं अटके रहे। मुझे लगा कि शायद प्राइवेसी का मसला कुलीन मसला है लेकिन जब सामाजिक राजनीतिक जीवन से उदाहरण उठा कर देखा तो लगा कि ये तो आम आदमी का मसला है और सबसे अधिक तो वही प्रभावित है।

आखिर सिख विरोधी दंगों की भीड़ नंदनगरी ही क्यों गई। हम सब जानते हैं कि आम लोग जहां रहते हैं वही दंगों के आसान शिकार होते हैं। क्या दंगों की योजना बनाने में या किसी आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिसिया दमन करने में आधार से मिली जानकारी स्टेट यानी सरकार और राजनीतिक दलों की मदद नहीं करेगी? जर्मनी के नाज़ी दौर में वही तो हुआ था जो दिल्ली में सिखों के ख़िलाफ़ हुआ। जर्मनी में आर्य और यहूदियों के नयन-नक्श के अंतर का पता करने के लिए बकायदा कैलिपर्स नामक माप-यंत्र से जबड़े से लेकर थोबड़े की नपाई होती थी और इस आधार पर यहूदियों को पकड़कर गैस की भट्ठी में फेंक कर मार दिया गया। यह बायोमेट्रिक्स का ही तो आदिम रूप था और सब इतना सामान्य है कि बायोमेट्रिक्स की सारी जानकारी एक संस्था और एक कंप्यूटर में लैस है।

आधार कार्ड की सारी जानकारी कंप्यूटर में होगी और वो भी एक जगह। अगर ये सर्च मारा जाए कि फलां ज़िले में दलित कहां-कहां रहते हैं या मुसलमान कहां-कहां रहते हैं या सिख कहां-कहां रहते हैं या हिन्दू कहां-कहां रहते हैं तो धड़ से सारी जानकारी कंप्यूटर पर आ जाएगी। सोचिये स्टेट के हाथ में ये जानकारी अौर सुविधा है तो क्या ये ख़तरा नहीं है? अगर यही जानकारी राज्य से होते हुए प्राइवेट कंपनियों तक पहुंचेगी और उनके बाद किस-किस तक तो इसके क्या-क्या इस्तमाल हो सकते हैं क्या हम और आप ठीक-ठीक जानते हैं ? क्या आप अब भी अपनी पहचान उस पुलिस के हाथ सौंप देना चाहेंगे जो हिंसा के वक्त आपका कम स्टेट का साथ ज़्यादा देती रही है। सरकार किसी की ही, पुलिस हमेशा सरकार की होती है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रतापभानु मेहता ने आधार कार्ड कानून और प्राइवेसी के सवाल को लेकर एक लेख लिखा है। अगर इस कानून के बाद भी आपकी निजता भंग होती है तो उसके बारे में आपको कैसे पता चलेगा और क्या आप सीधे अदालत जा सकते हैं? आपको उसी प्राधिकरण के पास जाना होगा जो आधार कार्ड के नंबर की संरक्षक है। वो प्राधिकरण तय करेगा कि आपके मामले को लेकर अदालत में जाया जा सकता है या नहीं। आलोचक इस तरह की दलील दे रहे हैं। सरकार कह रही है कि प्राइवेसी के सवाल पर चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आधार कानून काफी मज़बूत है।

प्रतापभानु मेहता ने लिखा है कि नौकरशाही को अधिकार दिया गया है कि वही फैसला करेगी और उसी के हिस्से का एक दूसरा समूह उस फैसले की समीक्षा करेगा। वित्त मंत्री ने कहा कि निजता यानी प्राइवेसी संपूर्ण नहीं है। इस पर प्रतापभानु ने लिखा है कि फिर नौकरशाही को करीब-करीब संपूर्ण अधिकार दिये जाने का क्या तुक है। जब भी कोई सरकार यह याद दिलाये कि प्राइवेसी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अंतिम नहीं है, एब्सोल्यूट नहीं है तो कान खड़े हो जाने चाहिए। वो सरकार ज़रूरी नहीं कि बीजेपी की हो, वो कांग्रेस की भी हो सकती है और वो तेलंगाना की टीआरएस की भी हो सकती है। अगर प्राइवेसी या अभिव्यक्ति का अधिकार अंतिम नहीं है तो यह कहां लिखा है कि सरकार के सारे अधिकार अंतिम हैं। सरकार एब्सोल्यूट हैं। क्या ये कहीं पर लिखा है। सरकार भी तो एब्सोल्यूट नहीं है, इस बात के बावजूद उसे हमीं चुनते हैं और वो हमारे होने के लिए ज़रूरी भी है।

आधार कानून के समर्थन में अमरीका के सोशल सिक्योरिटी नंबर की मिसाल दी गई लेकिन अमरीका के सिक्योरिटी नंबर के लिए बायोमेट्रिक निशान नहीं लिये जाते जैसे आधार के लिए आपकी उंगलियों और आंखों की पुतलियों को स्कैन किया गया होगा। मिशी चौधरी ने बताया है कि वहां का सोशल सिक्योरिटी प्रशासन लोगों को प्रोत्साहित करता है कि पहचान के लिए दूसरे विकल्पों का इस्तमाल करें। अमरीका में बकायदा 1974 का बना एक प्राइवेसी एक्ट है। इस एक्ट के तहत आम नागरिक अपने रिकार्ड को देख सकता है। उसमें बदलाव का अनुरोध कर सकता है कि ये जानकारी सही नहीं है या अमुक जानकारी जोड़ी जा सकती है। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया गया है कि आपकी जानकारी के संदर्भ में आपका अधिकार परिभाषित है। हमारे देश में अभी यही बहस हो रही है कि प्राइवेसी का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं। वैसे अमरीका में भी ये बहस हुई थी। आज भी होती है।

ज़रूरी है कि हम इन ख़तरों के बारे मे जानें, खुद से भी कानून के प्रावधान को पढ़ें। भले ही कानून पास हो गया है लेकिन अगर ये तमाम आशंकाएं सही लगती हैं तो बदलाव की गुंज़ाइश ख़त्म नहीं हुई है। सरकारें अपने कानूनों में संशोधन तो करती ही हैं लेकिन उससे पहले यही सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या हम आधार कानून के प्रावधानों के बारे में जानते हैं और क्या हम प्राइवेसी के ख़तरों को पहचानते हैं ?

 

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