सेल्फी आत्म से साक्षात्कार नहीं है। यह स्व यानी आत्म का उपभोग है। उपभोग दोनों प्रकार से होता है। हम जिसका उपभोग करते हैं, वही हमारा भी करता है। हम उपभोग के बाद बाह्य जगत में कचरा फैलाते हैं और उपभोग हमारे आंतरिक शरीर में वसा और अन्य व्याधियां जमा करता है। सेल्फी हमारे लौकिक जीवन का नया रूप है जिसके उपभोग से सकल घरेलू उत्पाद की दर बढ़ती है या सकल घरेलू उत्पाद के बढ़ने से सेल्फी की खपत बढ़ती है।
संवाद भी उपभोग ही है। संवाद के उपभोग से कचरा पैदा हो रहा है। हम कचरे को संवाद बनाकर फैला रहे हैं। कुछ भी लिख रहे हैं और कुछ भी पढ़ रहे हैं। जब इन दोनों के लिए कुछ नहीं होता तो ख़ुद को देखने और दिखाने लग जाते हैं। सेल्फी एक किस्म का फोटो कचरा है।
पहले सेल्फी में कोई एक होता था अब कई होने लगे हैं। एक फ़्रेम में कई चेहरे ठूंस दिये गए हैं। चेहरे का चेहरा बेमानी हो गया है। क्लिक होने से पहले मुस्कुराहट की तैयारी की जाती है। सब अपने को एकबार के लिए देखते हैं और क्लिक हो जाते हैं। सफलता का भी तय फ़्रेम होता है तो सेल्फी का भी है। सेल्फी आत्म के आस-पास एक भीड़ है जो हमें कामयाब होने का अहसास कराती है। हम अकेले नहीं जी सकते और जब कोई साथ न हो तो सेल्फी को साथ बुला लेते हैं। सेल्फी भीड़ से घिर जाने की इच्छा का प्रतिफल है। जैसे ही फ़ेसबुक पर पोस्ट होता है सबकुछ लाइक की प्राप्ति में बदल जाता है
लाइक हमारी महत्वकांक्षा का दयनीय रूप है। सेल्फी इस दयनीयता का आवरण है। दुनिया की विविधता का तेज़ी से ख़ात्मा हो रहा है। अमेरिका और कोलकाता या दिल्ली और दुबई में समानताएं बढ़ चुकी हैं। देखना एक बोरिंग काम हो गया है। सुपर-मॉल ही हमारे वर्तमान की ऐतिहासिक इमारत है। ऐतिहासिक इमारतों की रेप्लिका यानी अनुकृति कब से बिक रही है। लाज़मी था कि हम दुनिया छोड़ ख़ुद को देखने लगे। लंदन पहुंचकर भी लोग खुद को देख रहे हैं। सेल्फी खींच रहे हैं। दुकानों और शहरों की तरह हम सब भी पहनावे से लेकर आदतों में एक जैसे हो गए हैं। फ़्रेम में एक हो या अनेक सब एक ही हैं। सेल्फी हमारे आत्म की विविधता के ख़ात्मे का प्रतीक है।
हम सब सेल्फी हैं। ख़ुद का हर पल संचय कर रहे हैं पर दरअसल ये उपभोग करना है। दुकान जितनी छोटी होती है, उत्पाद के आकार भी घट जाते हैं। महानगरों के अजीब अजीब कोनों में दुबकी-सिमटी दुकानों में रखे शैम्पू, तेल, साबुन, अगरबत्ती, बिस्कुट और चॉकलेट के लघु संस्करण सेल्फी ही हैं। सेल्फी हम सबका छोटा होना है। संकुचित।
जल्दी ही हम इस उपभोग से ऊब जाएंगे। हम बिना उपभोग के शांति नहीं पा सकते। उपभोग ही आध्यात्म है। उपभोग करो। उपभोग से राष्ट्र तरक्की करता है और नागरिक तृप्ति पाता है। यह जो साल गुज़रा है वो बता रहा है कि हम अब अणुकणों का उपभोग करेंगे। सेल्फी हमारे विराट स्व का अणुकण है। आप इस लेख को पढ़कर चक्कर खा रहे होंगे। सोच रहे होंगे कि पत्रकार का दिमाग़ तो सही है। पर क्या हमारा सेल्फीकरण नहीं हुआ है? जो इससे बचे हैं वे बेहद ग़रीब हैं। इतने ग़रीब कि उनका सोशल मीडिया पर कोई खाता तक नहीं है। बाबागिरी कुछ और नहीं बल्कि देवत्व का सेल्फी है। सेल्फी कुछ और नहीं स्वत्व का देवत्व है। माया का यथार्थ। क्या मैं बाबा बन सकता हूं। आध्यात्म का उपभोग करने के लिए मेरा बाबा बनना ज़रूरी है! मेरा एक और सेल्फी होना चाहिए। स्व से ही स्वर्ग है और सेल्फी ही अलौकिक संवाद। आमीन!
This Article is From Dec 27, 2014
रवीश कुमार की कलम से : स्व, सेल्फ़ और बाबागिरी का दौर
Ravish Kumar
- Blogs,
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Updated:दिसंबर 27, 2014 16:52 pm IST
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Published On दिसंबर 27, 2014 12:02 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 27, 2014 16:52 pm IST
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