मेरठ से लेकर मुरादाबाद स्टेशन के बाहर की दीवार पर एक के बाद एक दवाखानों के विज्ञापन इस तरह से लिखे गए हैं जैसे गुप्त रोग दूर करने की कोई स्पेशल रेलगाड़ी चलाई गई हो. बहुत दूर तक इनके विज्ञापन खत्म ही नहीं होते. विलायती और बादशाही नाम मुझे दिलचस्प लगे. लगता है असली मुकाबला इन्हीं दो के बीच है.
जिस तरह से इतिहासकारों ने कालखंड को ईसा पूर्व और ईसा पश्चात में विभाजित किया है, उसी तरह गुप्त रोग को शादी से पहले और शादी के बाद में बांटा गया है. एक नया विभाजन और दिखा गुप्तरोगी स्त्री और गुप्तरोगी पुरुष. शर्तिया की जगह पूर्णतया इलाज आ गया है. धर्मनिरपेक्षता का संकट यहां भी है. शफाखाना मतलब हकीम होंगे, दवाखाना मतलब वैद्य होंगे. हिन्दू मुस्लिम सेक्स रोगियों ने अपने अस्पतालों का बंटवारा बिना किसी सांप्रदायिक दंगे के ही कर लिया है.
नवाबों जैसी ताकत पायें, विलायती दवाखाने के इस नारे से अचंभे में पड़ गया. ये कौन सी ताकत है जिसे पाने के लिए विलायती जी मुरादाबाद की दीवारों को रौशन कर रहे हैं. नवाबों की हवेलियां या तो खंडहर हो गईं या हेरिटेज होटल में बदल गईं. मगर उनकी इस ताकत का राज मुरादाबाद के विलायती दवाखाना वालों को कैसे पता चला, यह अलग से शोध का विषय है. नवाबों जैसी ताकत पर ज्यादा जोर देने से इलाके का सांप्रदायिक माहौल बिगड़ सकता है. कोई जमींदारों, सामंतों जैसी ताकत दिलाने का दावा कर सकता है.
सेक्स रोग अगर भयावह स्तर पर है तो यह चुनावी मुद्दा बिल्कुल होना चाहिए. इसे गुप्त रोग के स्टेटस से आजाद कराने की जरूरत है. सेक्स एजुकेशन का विरोध होता रहेगा, लेकिन दीवारों पर सेक्स रोग की समस्या भी प्रकट होती रहेगी. रोगियों की कितनी प्रताड़ना होती होगी. दवाखाने तक पहुंचने से पहले सौ मौतें मरते होंगे. यह सरकारों की नाकामी है कि उनके अस्पतालों ने ऐसे विज्ञापन नहीं लगाए कि सेक्स की समस्या एक सामान्य बीमारी है. आप सदर अस्पताल के चीफ मेडिकल अफसर से मिलें, वही औपचारिक इलाज करेंगे. दीवारों पर लिखे ये नारे समाज की कुंठाओं की बुलंद तस्वीरें हैं.
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