"तनख़्वाह इतनी कम है कि शादियों के दौरान रिश्तेदारों के बीच जाने में शर्म आती है... हम तोहफे भी नहीं ले जा सकते... हमारे कपड़ों में भी जान नहीं बची है... लोग समझते हैं कि हम कॉलेज में लेक्चरर हैं, हमें भी लाख रुपये तनख़्वाह मिलती होगी, लेकिन हम किस-किसको बताएं... हमने तो अपनी ज़िन्दगी में कुछ कमाया ही नहीं... बच्चे भी पूछते हैं कि किसने कहा था कि पीएचडी करो और कॉलेज में पढ़ाओ... हम सबकी आर्थिक हैसियत बेहद ख़राब हो चुकी है... कोई सुविधा नहीं मिलती है... मां-बाप के लिए दवा तक नहीं ख़रीद पाते हैं..."
पंजाबी भाषा के सम्मान के नाम पर मरने-कटने वाले लाखों मिल जाएंगे, मगर पंजाबी के लेक्चरर के इस बयान से किसी को फ़र्क भी नहीं पड़ेगा. न पंजाबियत को, न पंजाबियत की राजनीति करने वालों को. पंजाब में जिस भी कॉलेज से गुज़रा, तदर्थ, गेस्ट लेक्चरर की सिसकियां सुनाई देती रहीं. ये बोल नहीं सकते, क्योंकि बोलने पर नौकरी जा सकती है. इनके पास पैसे नहीं है, फिर भी कई साल से अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं. फैसले भी होते हैं, मगर हक नहीं मिलता.
'इंडियन एक्सप्रेस' ने हाल ही में छापा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में 4,500 पद ख़ाली हैं, जिन पर गेस्ट लेक्चरर पढ़ा रहे हैं. 28 कॉलेजों में प्रिंसिपल के पद ख़ाली हैं. यह वह देश है, जिसके नेता हर भाषण में बेरोज़गारी दूर करने का वादा करके लोगों को ठग रहे हैं. पंजाब में ही गेस्ट लेक्चरर के अधिकारों के लिए लड़ रहे एक शिक्षक ने बताया कि राज्यभर के 48 सरकारी कॉलेजों में हर स्तर के शिक्षकों के करीब 1,873 पद हैं, जिन्हें आप लेक्चरर से लेकर प्रोफेसर तक के नामों से जानते हैं. मगर इनमें से 800 से अधिक पदों पर पढ़ाने वाले गेस्ट लेक्चरर हैं. जो शिक्षक रिटायर होते हैं, उनकी जगह परमानेंट भर्ती नहीं होती. पढ़ाते-पढ़ाते गेस्ट लेक्चरर के 14-14 साल बीत गए हैं, मगर उनकी नौकरी पक्की नहीं हुई है.
800 के करीब अस्थायी शिक्षकों में से करीब 200 शिक्षक ऐसे हैं, जिनके पास यूजीसी के पैमाने की सभी पात्रताएं हैं. एक शिक्षक ने बताया कि वह तीन तीन बार नेट पास हैं, फिर भी नौकरी पक्की नहीं हुई. जिन अस्थायी शिक्षकों की नेट वाली पात्रता नहीं है, उनकी संख्या 600 के आसपास है. इनमें से ज़्यादतर वे हैं, जो रिश्तेदार से लेकर राजनीतिक कोटे से भर्ती किए गए हैं. दोनों को ही एकसमान वेतन मिलता है. 21,600 प्रतिमाह. इसमें से 10,000 सरकार पहले पेरेंट-टीचर्स एसोसिएशन फंड में देती है, फिर वहां से इन्हें मिलता है. इसका क्या तुक है, मुझे समझ नहीं आया. कई बार सरकार का हिस्सा आने में देरी हो जाती है. महीनों पूछताछ के बाद इन्हें वह 10,000 मिलता है, वर्ना हर महीने हाथ में 11,600 रुपये ही आते हैं. प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' की याद आ गई. संदर्भ तो कुछ और था, मगर इनका वेतन भी पूर्णमासी के चांद जैसा ही है. प्रेमचंद की कहानी का चांद तो महीने में एक बार दिखाई भी देता है. पंजाब के शिक्षकों से यही कहा जाता होगा कि पूर्णमासी को चांद तो मिलेगा, मगर आधा-अधूरा ही.
ऐसा नहीं है कि इन अस्थायी शिक्षकों के हिस्से काम कम है. कॉलेज-दर-कॉलेज शिक्षकों ने बताया कि वही सबसे ज़्यादा काम करते हैं, क्योंकि मना करने से नौकरी जा सकती है. पंजाबी भाषा और साहित्य पढ़ाने वाले एक शिक्षक ने कहा कि पंजाब में पंजाबी सबको पढ़नी पड़ती है. हमारे कॉलेज में कायदे से 11 से 12 लेक्चरर होने चाहिए थे, लेकिन दो ही बचे हैं. हमारी कक्षा में कई बार चार-चार सौ बच्चे होते हैं. हम अपना तो काम कर ही रहे हैं, 10-10 प्रोफेसरों का भी काम कर रहे हैं. कॉलेज का सारा काम गेस्ट लेक्चरर ही करते हैं. सरकार ने इनका भविष्य अंधेरे में डाल रखा है और इनसे उम्मीद की जाती है कि ये देश के युवाओं का भविष्य उज्ज्वल करते रहें. हर साल सितंबर महीने की 5 तारीख को शिक्षकों के योगदान के गुणगान की राष्ट्रीय नौटंकी में हम सब शामिल होते हैं. आहें भरते हैं. महान बताते हैं, मगर इन शिक्षकों की व्यथा पर उफ तक नहीं करते.
सरकारें वादा करती हैं, भूल जाती हैं. वर्ष 2011 में सरकार ने एक आदेश निकाला था कि जिन्हें ठेके पर पढ़ाते हुए पांच साल हो गए हैं, उनकी नौकरी पक्की की जाएगी, आज तक इस आदेश पर अमल नहीं हुआ है. अदालतों से केस जीत जाते हैं, फैसला लागू नहीं होता है. अभी तक की कानूनी लड़ाई से हमें यही हासिल हुआ है कि एडहॉक, पार्ट टाइम और गेस्ट लेक्चरर के अंतर को अदालत ने नहीं माना. जब कॉलेज ने देखा कि एडहॉक, यानी तदर्थ वाले लेक्चरर परमानेंट हो गए तो वे पार्टटाइम रखने लगे, जब पार्टटाइम वालों को कोर्ट ने मान्यता दी तो गेस्ट लेक्चरर रखने लगे. बस यही हक मिला है हमें कि परिभाषा के हिसाब से हम नौकरी के योग्य माने गए, मगर नौकरी नहीं मिली.
एक शिक्षक ने बताया कि 21,600 से पहले हमें 7,000 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था. प्रिंसिपल हमें छह महीने के लिए रखते थे, यानी साल के 42,000 की कमाई में हमने ख़र्च चलाया है. बताइए, हमारे पास अख़बार ख़रीदने तक के पैसे नहीं होते हैं. एक छात्रा ने बताया कि वह ऐसे टीचर को जानती है, जो पढ़ाने में बहुत अच्छे हैं, मगर इतनी कम सैलरी है कि वह फैमिली तक प्लान नहीं कर पा रहे हैं. कई छात्र मिले, जो इन शिक्षकों से सहानुभूति रखते हैं. परमानेंट शिक्षक भी इनकी बातों से सहमत हैं, मगर यह फैसला सरकारों के स्तर पर होना है. नीतियों के स्तर पर होना है. सरकारें भी जानबूझकर बेरोज़गारी प्रमोट कर रही हैं.
भाषा की समस्या के कारण तथ्यों में कुछ त्रुटि हो सकती है, मगर पंजाब के सरकारी कॉलेजों की इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता. चुनाव आते हैं, तो कुछ बात होती है. कुछ आश्वासन मिलता है. चुनाव बीत जाते हैं, सब भूल जाते हैं. हर राज्य में कमोबेश यही स्थिति है. सोचिए, दिल्ली विश्वविद्यालय में 4,500 नौकरियां हैं, मगर कहीं कोई हंगामा नहीं है. बिहार से भी गेस्ट लेक्चरर लिखते रहते हैं. वे भी इंतज़ार कर रहे हैं कि उनके बदले कोई बोले. हर राज्य के स्कूलों में ठेके पर शिक्षक रखे जा रहे हैं. शिक्षकों की दुनिया की यह विचित्र हकीकत है. अकेले नहीं बोल सकते, तो हर राज्य के शिक्षक मिलकर तो बोल सकते हैं. अपना हक मांग सकते हैं. डरकर तो देख ही लिया है, उससे एडहॉक के अलावा क्या मिला. इसलिए मांगकर देख लीजिए. हो सके, तो लड़कर भी देख लीजिए.
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This Article is From Jan 30, 2017
पंजाब के गेस्ट लेक्चरर की व्यथा-कथा - मत सुनिहो ऐ राजा जी...
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 30, 2017 13:36 pm IST
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Published On जनवरी 30, 2017 13:36 pm IST
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Last Updated On जनवरी 30, 2017 13:36 pm IST
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