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This Article is From Dec 23, 2014

रवीश कुमार की कलम से : रेल की पटरी और कचरे का अभियान

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2014 13:29 pm IST
    • Published On दिसंबर 23, 2014 13:25 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2014 13:29 pm IST

जीवनाथपुर, यूपी के चन्दौली ज़िले का एक क़स्बा या गांव होगा। दिल्ली से कोलकाता जाने के रास्ते मुग़लसराय से पहले पड़ता है। कोहरे के कारण देरी से चल रही हावड़ा राजधानी थोड़ी देर के लिए यहां रुकी थी। खिड़की से बाहर झांका, तो नज़र पटरी के किनारे बिखरे कचरे के ढेर पर पड़ गई। कोई सौ मीटर से भी लंबी दूरी तक कचरा बिखरा हुआ था। पटरी से गांव या घर काफी दूर थे। स्वाभाविक था कि कचरा स्थानीय लोगों ने नहीं फैलाया होगा। अलग-अलग शहरों के लोगों ने इस पटरी और क़स्बे को गंदा किया है।

मैं ग़ौर से देखने लगा कि कचरे में क्या-क्या है। पहले भी देखा है, पर इस बार स्वच्छता अभियान के संदर्भ में देखने लगा। प्लास्टिक के ग्लास, प्लेट, चम्मच, चाय के खूब सारे कप, चिप्स के रंगीन रैपर, गुटखा के रैपर, दूध का बड़ा डब्बा, रेलगाड़ी में मिलने वाला दूध का छोटा पैकेट, बिस्कुट का कवर... तमाम वो सामान, जिन्हें हम यात्रा में अपने साथ लेकर चलते हैं।

हम कचरा अपने बैग में लेकर चलते हैं और दुनिया को उपदेश देते हैं कि यहां-वहां मत फेंकिये। प्लास्टिक के ये समान जब तक दुकानों, कोच और हमारे बैग में है, तब भी वे कचरा ही हैं। स्वच्छता अभियान शुरू होने के बाद से कई रेल यात्राएं कर चुका हूं। सफाई के एकाध मौक़े को छोड़ दें, तो अभी तक गंदगी का राज बदस्तूर क़ायम है। नारे से हम नहीं बदलेंगे। अब एक दिन नहीं, बल्कि छह महीने गुज़र चुके हैं। रेलवे की दीवारों पर स्वच्छता अभियान के पोस्टर लटक रहे हैं और नीचे गंदगी बिखरी है।

हम रेलवे को दोष दे सकते हैं। देना भी चाहिए, लेकिन यह भी देखना चाहिए कि सफ़ाई पर ख़र्च करने के लिए रेलवे के पास पर्याप्त संसाधन हैं? जितने हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा स्वच्छता अभियान के बैनर-पोस्टर टांगने पर ख़र्च हो रहा होगा। लेकिन जितनी नारेबाज़ी हुई है, उसके अनुपात में नतीजों की भी समीक्षा होनी चाहिए।

इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए कि लोगों ने अपने व्यवहार में कितना परिवर्तन किया है। अभी भी लोग प्लेटफार्म पर पेशाब करते, थूकते दिख जाते हैं। ट्रेन में वही सब लेकर चल रहे हैं, जिनके इस्तमाल के बाद फेंकने से कचरा फैलता है। सरकार ने भी प्लास्टिक पैकिंग पर प्रतिबंध लगाने को लेकर गंभीर बहस शुरू नहीं की है। क़चरे के निस्तारण को लेकर भी कोई बयानबाज़ी नहीं हो रही है।

इससे पहले कि स्वच्छता अभियान के नारे दीवारों पर जीवाश्म की तरह चिपक जाएं, हमें अपने और सरकार के भीतर गंभीरता से झांककर देखने की ज़रूरत है। वर्ना जीवनाथपुर जैसे लाखों क़स्बों को ख़बर तक नहीं होगी कि बीती रात कौन कचरा फैला गया है। लोगों को यह सवाल भी करना चाहिए कि कचरा आता कहां से है।

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